क्यों बंद हो रहे हैं विद्यालय?
मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com हरियाणा में रेवाड़ी के किसी स्कूल की लड़कियों ने अपने विद्यालय में बारहवीं कक्षा शुरू करने के लिए भूख हड़ताल किया. इनका कहना था कि यदि उन्हें दूर के विद्यालय में जाना पड़ेगा, तो शायद आगे की पढ़ाई संभव नहीं हो सके. अब इस खबर के साथ इस […]
मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
हरियाणा में रेवाड़ी के किसी स्कूल की लड़कियों ने अपने विद्यालय में बारहवीं कक्षा शुरू करने के लिए भूख हड़ताल किया. इनका कहना था कि यदि उन्हें दूर के विद्यालय में जाना पड़ेगा, तो शायद आगे की पढ़ाई संभव नहीं हो सके. अब इस खबर के साथ इस खबर को देखने की जरूरत है कि भारत के अलग-अलग राज्यों में बहुत से सरकारी और सरकार समर्थित विद्यालयों को बंद किया जा रहा है.
उदाहरण के लिए राजस्थान में लगभग सत्रह हजार विद्यालय बंद किये जा चके हैं या किये जाने की प्रक्रिया में हैं. गुजरात और मध्य प्रदेश में भी यह संख्या तेरह हजार के आसपास है. कुछ ऐसी ही हालत हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में भी है. केरल में भी यह संख्या पांच हजार से ऊपर है, जो राज्य के विद्यालयों का लगभग 44 प्रतिशत है. ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हमें इन विद्यालायों की जरूरत नहीं है? क्या शिक्षा के अधिकार के सपने को साकार करना संभव हो पायेगा?
कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में विद्यालयों में बच्चे नहीं आ रहे हैं. इनमें नामांकन ही नहीं हो पा रहा है. सवाल यह है कि नामांकन क्यों नहीं हो रहा है? क्या बच्चों की संख्या घट गयी है? जिस देश में लगभग एक चौथाई जनसंख्या चार से चौदह वर्ष की हो, वहां यह तर्क कुछ सही नहीं लगता है. इसका मतलब साफ है कि लोग इन विद्यालयों के स्तर से संतुष्ट नहीं हैं.
यहां भेज कर बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने जैसा है. यह एक अच्छी बात है कि लोगों को अब स्तरीय शिक्षा का महत्व समझ में आने लगा है. क्या सरकारी विद्यालय बेहतर शिक्षा केंद्र नहीं हो सकते हैं? जिन मध्यम वर्गीय लोगों की उम्र अब पचास के आसपास होगी, उनमें से ज्यादातर लोगों को याद होगा कि अस्सी के दशक तक ये सरकारी विद्यालय ठीक-ठाक थे.
सच तो यह है कि इसी सरकारी व्यवस्था ने भारत में पढ़े-लिखे लोगों की एक बड़ी जमात खड़ी की है. बिहार के कई गांवों में कुछ ऐसे सरकारी विद्यालय भी हैं, जहां से पढ़े लोग आज अनेक उच्च पदों पर आसीन हैं. ऐसे उदाहरण अन्य राज्यों में भी मिल ही जायेंगे. फिर ऐसा क्या हुआ कि लोग सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चों को नहीं भेजना चाहते हैं?
एक तो यह कारण हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा की तकनीकी में काफी बदलाव आया है. छात्र-शिक्षक संबंध और छात्रों की क्षमताओं को देखने-समझने का दृष्टिकोण बदल गया है. सरकारी विद्यालय अब भी अपने पुराने नजरिये पर टिका है. निजी विद्यालयों में हर छात्र पर ध्यान दिया जाता है, ताकि उसमें जो भी गुण हों, उसका संपूर्ण विकास हो सके. और यदि ऐसा नहीं हो, तो अभिभावक सवाल पूछ सकते हैं, क्योंकि उनकी जेब से हर महीने मोटी रकम विद्यालय को मिलती है. सरकारी विद्यालयों में अभिभावकों को कुछ कहने का अधिकार नहीं होता है.
लेकिन, यह इतना बड़ा कारण नहीं लगता है. यदि शिक्षक सही हों, उनकी ट्रेनिंग सही हो, विद्यालय की व्यवस्था सही हो, उसमें मूलभूत सुविधाएं हों, तो फिर शिक्षा के सही होने की नौबत नहीं आयेगी. इन सबके साथ शिक्षा में नये प्रयोगों को करना भी संभव है. शिक्षकों में बढ़नेवाले स्वार्थ रंजित वेतन भोक्ता के भाव से मुक्ति पायी जा सकती है. शिक्षकों को जिस तरह का सम्मान पहले मिला करता था, अब नवउदारवादी युग के उपभोक्तावादी संस्कृति में मिलना बंद हो गया है. सरकारी विद्यालयों में इसे वापस लाने का प्रयास किया जाना संभव है.
लेकिन, यह सब तभी संभव है, जब सरकार की मंशा सही हो. इसलिए असली समस्या सरकार की नीतियों का है. छात्रों की संख्या यदि कम होती, तो प्राइवेट विद्यालयों की इतनी चलती नहीं होती.
अंगरेजी शिक्षा के नाम पर जिस तरह ये निजी विद्यालय लोगों को लूट रहे हैं, उसमें सरकार की सहमति है. सरकार शायद यह चाहती भी है कि शिक्षा को पूरी तरह निजी हाथों में दे दिया जाये. यह एक तरह से शिक्षा को व्यापार या उद्योग की श्रेणी में लाने का प्रयास है. यही इस नवउदारवादी आर्थिक नीति का दर्शन है. विद्यालयों को बंद करने का नतीजा शिक्षा के अधिकार के बिलकुल विपरीत है. सरकारी विद्यालयों के बंद होने से दलित, लड़कियां और गरीब जनता की शिक्षा पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा. ऐसे में शिक्षा के अधिकार का क्या होगा?
सरकार का शिक्षा के दायित्व से मुंह मोड़ना भारतीय समाज के लिए कतई राष्ट्रहित में नहीं होगा. एक तो देश अपनी युवा जनसंख्या का लाभ नहीं ले पायेगा. यदि देश उन्हें मानव संसाधन की तरह भी देखता हो, तो इसके लिए उनमें गुणात्मक विकास करना जरूरी होगा. और दूसरे, जिस सामाजिक न्याय का नारा लगाते राजनेता नहीं आघाते हैं, उसकी तो मट्टी पलीत ही हो जायेगी. सामाजिक न्याय का मतलब केवल नौकरियों में आरक्षण भर होना यदि है, तो अलग बात है, लेकिन यदि इसका मतलब पिछड़े और दलित वर्गों को अच्छा जीवन देने का वादा है, तो फिर शिक्षा ही उसका एक मात्र उपाय है.
बुनियादी तौर पर बचपन में सही शिक्षा का न मिल पाना उनके साथ अन्याय है.सरकारी विद्यालयों को निजी विद्यालय की तरह ही बना दिया जाये, यह यदि संभव नहीं भी है, तो इतना तो किया ही जा सकता है कि उनमें उचित मूलभूत व्यवस्था की जाये. उनमें गुणवत्ता विकास के नये उपाय किये जायें. जिन कारणों से लोग अपने बच्चों को वहां नहीं देना चाहते हैं, उन्हें खोजा जाये और दूर किया जाये. उनका बंद किया जाना तो इन बच्चों के साथ अन्याय ही है. सच तो यह है कि शिक्षा और स्वास्थ्य को बाजार के हवाले किया जाना राष्ट्र के लिए अहितकर होगा.
निजीकरण एक तरह से राष्ट्र के निर्माण के लिए उचित नहीं है. क्योंकि, निजीकरण का एक आदर्श है, एक दर्शन है, जो राष्ट्रीय आदर्श और दर्शन के विपरीत है. विद्यालय राष्ट्रीय जनचेतना के वाहक होते हैं. इसलिए ग्रीक दार्शनिक प्लेटो मानते थे कि शिक्षा को कभी निजी हाथों में नहीं देना चाहिए.