यही है हमारा महान लोकतंत्र!
।। अवधेश कुमार।। (वरिष्ठ पत्रकार) उम्मीदवारी को लेकर जो उधम हमारे महान लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव माने जानेवाले आम चुनाव के पूर्व मचा हुआ है, उसे देख कर दुनिया हमारे बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगी! कल तक जो नेता राजनीतिक निशाने पर थे, अचानक ऐसे गले मिल रहे हैं, मानो बरसों के बिछड़े दोस्त […]
।। अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
उम्मीदवारी को लेकर जो उधम हमारे महान लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव माने जानेवाले आम चुनाव के पूर्व मचा हुआ है, उसे देख कर दुनिया हमारे बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगी! कल तक जो नेता राजनीतिक निशाने पर थे, अचानक ऐसे गले मिल रहे हैं, मानो बरसों के बिछड़े दोस्त मिल रहे हों. दल या गंठबंधन बदलनेवालों में ऐसे नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पार्टी ने नजरअंदाज किया या जिनका नेतृत्व से थोड़ा सैद्घांतिक मतभेद था. प्रश्न है कि चुनाव आने पर ही क्यों? पार्टी में रहते हुए भी सिद्घांतों की आवाज बुलंद करने का साहस दिखाया जा सकता था. जो सिद्घांतों के प्रति प्रतिबद्घ होंगे, वे परिणामों की या राजनीतिक कैरियर की चिंता नहीं कर सकते. ऐसा करनेवाले केवल दो श्रेणी में आते हैं- वे जिन्हें अपने दल या गठबंधन के अंदर सत्ता समीकरणों में महत्व नहीं दिया गया, या वे जिन्हें लगता है कि अगले सत्ता समीकरणों में उनके दल या गंठबंधन की जगह दूसरे दल या गंठबंधन को अवसर मिलेगा. असंतोष है तो इसलिए कि उन्हें सरकार या पार्टी में इच्छित स्थान नहीं मिला एवं वर्तमान चुनाव में भी वे टिकट से वंचित रह जायेंगे. पार्टी कार्यालयों, क्षेत्रों में जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, क्या ये पार्टी को सिद्घांतों की पटरी पर लाने के लिए विरोध कर रहे हैं? बिल्कुल नहीं. ऐसी अशोभनीय, असभ्य गतिविधियों के केंद्र में केवल सत्ता है?
जब राजनीति केवल सत्ता का माध्यम बन जायेगी, पार्टियां परिवर्तनकारी, जन हितकारी विचारों, सिद्घांतों के पुंज की जगह चुनाव की मशीनरी बन जायेगी, तो फिर ऐसा ही होगा. पार्टी में लोग आते ही हैं सत्ता तक जाने का रास्ता मान कर. यह जाति, संप्रदाय, क्षेत्र किसी आधार पर हो सकता है. वे या तो दल का परित्याग करेंगे या फिर विरोध करेंगे. मान भी गये तो मजबूरी में या भविष्य के किसी आश्वासन पर. दलीय प्रणाली पर आधारित लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत बुरी दशा है. वास्तव में हमारा लोकतंत्र सत्ता की लालसा वाले राजनीतिक दलों वे नेताओं का जमावड़ा बनता गया है. यह किसी व्यवस्था के अध:पतन की ही स्थिति है. जब चुनावी विजय ही राजनीतिक सफलता का मापदंड हो गया है, तो फिर पार्टियां उसको ध्यान में रख कर उम्मीदवारों का चयन करती हैं और यहीं से जाति, संप्रदाय, संपन्नता आदि भयावह आधार खड़े हो जाते हैं. इसमें वरीयता उन्हें मिलती है जो नेतृत्व की नजर में इन आधारों पर मजबूत दिखते हैं और इसमें जो थोड़े निष्ठावान, ईमानदार, नैतिक व्यक्तित्व बचे हैं, यदि वे नेतृत्व के स्तर पर या प्रभावी नहीं हैं, तो वंचित रह जाते हैं. दल और चुनाव आधारित हमारा लोकतंत्र इन्हीं सारी विद्रूपताओं, भयावह रोगों का शिकार होता दिख रहा है. चुनाव के समय यह अपने पूरे नंगापन से हमारे सामने खड़ा है.
विडंबना देखिए कि ऐसा करनेवालों को मतदाता विजय श्री के साथ संसद व विधानसभाओं में अपनी नियति संवारने के लिए भेजते भी हैं. अगर ऐसा करनेवाले नेताओं को मतदाता नकार दें, तो इस बढ़ती दुष्प्रवृत्ति पर लगाम लग लग सकती है. यहीं पर आम जनता की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. एक सचेतन अवस्था का समाज कतई ऐसे दलों या नेताओं का चयन नहीं कर सकता. जाहिर है, हमारे समाज की चेतना भी कुंठित बनी हुई है, अन्यथा मतों से निर्वाचित होनेवाला वर्ग इस तरह निर्भय होकर मर्यादाओं को अतिक्रमित नहीं करता रहता. स्वस्थ जनमत किसी प्रणाली को स्वस्थ रखने का आधार है. आम चुनाव के समय जरा एक क्षण रुक कर इस प्रश्न पर विचार करें कि क्या हम स्वस्थ जनमत वाले समाज के अंग रह गये हैं? अगर नहीं तो फिर इससे भी बुरी दशा में जाने के लिए हमें तैयार रहना होगा. ऐसे लोग या ऐसा नेतृत्व, जिसके लिए हर प्रकार के मूल्यों पर चुनाव जीतने तथा सत्ता तक पहुंचने का लक्ष्य हाबी हो, देश या लोकतंत्र को कैसे स्वस्थ रख सकता है?
महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण तक अनेक मनीषी इन्हीं कारणों से इस लोकतांत्रिक प्रणाली को सच्च लोकतंत्र मानने को कभी तैयार नहीं हुए. गांधीजी ने तो इस संसदीय प्रणाली की तीखी आलोचना करते हुए लोकतंत्र का नया विकल्प दिया. वे मतदान और बहुमत-अल्पमत के सोच को ही दोषपूर्ण मानते थे. जयप्रकाश नारायण ने भी यही विचार प्रकट किया. इस लोकतांत्रिक प्रणाली और चुनाव प्रक्रिया की उन्होंने आलोचना करते हुए कहा कि यह व्यक्ति को ईकाई मान कर चलता है और यहीं से समस्या आरंभ हो जाती है. राज्य शून्य योग यानी किसी संख्या पर एक-एक शून्य डालते हुए उसका परिमाण बढ़ाने जैसी परिणति नहीं हो सकता. इससे समाज का विघटीकरण होता है. इसमें समाज की स्वस्थ सामूहिक चेतना का विकास संभव नहीं. हम वहां तक सोचने और जाने को तैयार हैं या नहीं, यह तो एक बड़ा प्रश्न है, पर कम-से-कम आम चुनाव के दौरान हम सत्ता सर्वोपरि सोच को हतोत्साहित करने का उपक्रम तो कर ही सकते हैं.