झारखंड में आरटीइ (शिक्षा का अधिकार) सिर्फ दिखावे के लिए रह गया है. अप्रैल 2010 में लागू होने के चार साल बाद इस कानून की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. सरकारी शिक्षा की बदहाली और निजी स्कूलों की मनमानी ने सबको समान शिक्षा को एक दिवास्वप्न में बदल दिया है. शिक्षकों और आधारभूत ढांचे की भारी कमी ने सरकारी स्कूलों में आरटीइ लागू करने की बाध्यता को महज खानापूर्ति बना कर रख दिया है.
सरकार के पास अपने स्कूलों की स्थिति सुधारने के लिए न कोई फंड है और न कोई रोड मैप. झारखंड में आरटीइ लागू होने के बाद से निजी स्कूलों में 25 फीसदी गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए अब तक कोई फंड नहीं जारी किया गया है. जिन निजी स्कूलों ने शुरुआत में कानून के डर से गरीब बच्चों का कोटा निर्धारित कर नामांकन लिया भी था, अब वे फंड नहीं मिलने का हवाला दे कर गरीब बच्चों का नामांकन लेने से साफ इनकार कर रहे हैं. कई जगह प्रारंभिक स्तर पर नामांकन के लिए लॉटरी तो की जा रही है, लेकिन उसमें पारदर्शिता की भारी कमी है.
शिक्षा विभाग या जिला प्रशासन के पास इस स्थिति से निबटने के लिए कोई रास्ता नहीं है. इस मामले में उनके पास न वित्तीय अधिकार हैं और न ही न्यायिक. यह बात निजी स्कूल संचालक भी जानते हैं. इसलिए वे बेतहाशा फीस वृद्धि करते हैं, गरीब बच्चों का नामांकन लेने से मना कर देते हैं और जरूरत पड़ने पर सत्र के बीच में भी फीस बढ़ा देते हैं. जबकि शिक्षा के अधिकार के तहत यह स्पष्ट है कि प्राथमिक शिक्षा का किसी भी हाल में व्यवसायीकरण नहीं होना चाहिए.
निजी स्कूलों के अपने तर्क हैं और सरकार का अपना रोना. लेकिन आरटीइ को यदि ढंग से लागू करना है, तो इसे अमलीजामा पहनानेवाली तमाम एजेंसियां जैसे एनजीओ, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्कूल, अभिभावक अपनी भूमिका सक्षमता से अदा करें और इनके बीच समन्वय बेहतर हो. आरटीइ के प्रावधानों को लागू करने के लिए अलग से फंड जुटाना केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी है. सभी स्कूलों में आरटीइ को लागू करने के लिए कमेटी बननी चाहिए ताकि इसमें आ रही परेशानियों को भी समझा जा सके. इन परेशानियों को राज्य स्तर पर सुलझाने के लिए समन्वय समिति जरूरी है.