पंकज चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
साल 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वाॅयरी कमीशन’ ने निर्देश दिये थे कि आनेवाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे. कमीशन की वह रिर्पाट लाल बस्ते में कहीं दब गयी. आजादी के बाद पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया गया. चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है. एक सदी पहले तक सैकड़ों बेहतरीन तालाब थे. वे तालाब सिर्फ लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, बल्कि अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे. मछली, कमलगट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी; हजारों घरों के लिए जीविका रहे हैं. तालाबों का पानी कुओं का जल स्तर बनाये रखने में सहायक होते हैं. विडंबना है कि शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गये.
गांव या शहर के रुतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं. पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है- न भरेगा पानी, ना रहेगा तालाब. गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है, तो शहरों में कालोनियां बनानेवाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं. यह पूरे देश की कहानी है. सभी जगह पारंपरिक जल-प्रबंधन के नष्ट होने का खामियाजा भुगतने और अपने किये या फर अपनी निष्क्रियता पर पछतावा करनेवाले लोग एकसमान ही हैं.
कर्नाटक के बीजापुर जिले की बीस लाख आबादी को पानी की त्राहि-त्राहि के लिए गरमी का इंतजार नहीं करना पड़ता. कहने को तो चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के अनगिनत संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं है. लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है. सदा नीरा रहनेवाली बावड़ी-कुओं को बोरवेल और कचरे ने पाट दिया है, तो वहीं तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया है.
यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जायेे, तो देश के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है.
एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रख-रखाव का काम समाज को सौंपा जाये. इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को भी शामिल किया जाये. जरूरत इस बात की है कि हमारे भीतर आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘अपनी जड़ों को लौटने’ की इच्छा शक्ति विकसित हो. क्योंकि जल ही कल बचायेगा.