करीब एक महीने से उत्तर प्रदेश का सहारनपुर दो समुदायों की बीच जातिगत हिंसा के कारण चर्चा में है. राज्य में कानून-व्यवस्था बेहतर करने के वादे के साथ सत्ता में आयी योगी सरकार के लिए हिंसक तनाव बड़ी चुनौती है. हालांकि, अभी स्थिति नियंत्रण में है, लेकिन प्रशासनिक मुस्तैदी के साथ दोनों पक्षों को भी समझ-बूझ से काम लेने की जरूरत है. घटनाक्रम के अलग-अलग पहलुओं पर नजर डालती इन-दिनों की यह प्रस्तुति…
सहारनपुर की हिंसा की घटना जातीय संघर्ष का प्रमाण है. अगर इसके घटनाक्रम पर डालें, तो सबसे पहले इसकी शुरुआत तब हुई, जब दलितों ने वहां अप्रैल में बाबा साहेब आंबेडकर की प्रतिमा लगाने का काम शुरू किया, जिसे ठाकुरों ने रोक दिया. उसके बाद जब ठाकुरों ने राणा प्रताप के जन्मदिन पर शोभा यात्रा निकाली, तो दलितों ने यह कह कर रोक दिया कि इसकी अनुमति कहां है. इस पर ठाकुर यह कहने लगे कि दलितों की इतनी औकात है कि वे हमें रोक दें. जातीय संघर्ष का दूसरा प्रमाण यह है कि दलित-ठाकुर झड़प के बाद ठाकुरों ने दलितों की कई झोपड़ियों काे जला दिया. सवर्ण समाज के जो नेता दलितों की बस्तियों में जाकर खाना खाने का ढोंग करते थे, कैमरे के सामने दिखावा करते थे, वे अब कुछ नहीं बोल रहे हैं. कहीं न कहीं उनको यह लग रहा है कि ठाकुरों ने ज्यादती की है और अगर हमने दलितों से सहानुभूति दिखायी, तो ठाकुर वोट बैंक खिसक जायेगा. वहीं मायावती, चूंकि वे दलित समाज की राजनीति करती हैं, इसलिए उनको अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करने के लिए मजबूरन वहां जाना पड़ा. यह पूरा घटनाक्रम यह बताता है कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक सौहार्द अब जातीय संघर्ष में बदल चुका है.
सामाजिक सौहार्द के जातीय संघर्ष में बदलने के पीछे का कारण है पिछले 25 वर्षों तक सवर्ण समाज की राजनीतिक वर्चस्वता को बहुजन राजनीति द्वारा चुनौती मिलना. अब सवर्ण समाज अपने नेतृत्व में वहां सरकार बना चुका है, तो वह वही करना चाहता है, जैसा पहले करता था. लेकिन, पिछले ढाई दशकों में दलित समाज में यह चेतना आ चुकी है कि वह भी देश का नागरिक है, उसके भी नागरिक अधिकार हैं और वह अब सवर्ण समाज की चुनौती भी स्वीकार कर सकता है. इसलिए वह उठ कर खड़ा हो गया है, जिसका परिणाम वर्तमान संघर्ष है. जब-जब दलित बोलेगा, तब-तब संघर्ष उभरेगा, यह स्थिति आनेवाले समय में भी हमें दिखायी पड़ेगी. अब हर तरफ दलित चेतनायुक्त हुआ है और विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित तो पहले से ही चेतनायुक्त था.
जहां तक उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था का सवाल है, तो योगी सरकार तीन महीने के भीतर यह नहीं दिखा पायी कि उसकी कोई सशक्त रणनीति है. योगी जी को पहले मजनू दिखायी दिये और वे मजनू स्कॉड को उनके पीछे लगा दिये. फिर उन्हें बीफ दिखायी दिया और उन्होंने उसे बंद कराया तो लोग कोर्ट चले गये. भाजपा का एक सांसद उत्तर प्रदेश में एक एसपी के घर को उजाड़ देता है, लेकिन योगी सरकार कुछ नहीं करती है और चार दिन लग जाते हैं एफआइआर दर्ज करने में. यह तो उस सरकार की कानून-व्यवस्था है, जो कानून का राज होने की बात करती है. इसके विपरीत अगर मायावती के शासन को देखिये, तो वे सांसद उमाकांत यादव को अपने घर से गिरफ्तार करा दी थीं. यह मायावती के प्रशासन का संदेश था. लेकिन, वहीं योगी जी पिछले तीन महीने से यह समीकरण बनाने में लगे हैं कि हर स्तर पर सवर्ण समाज को कैसे लाया जाये. निष्पक्ष काम की जगह जातीयता को बढ़ावा दिया जा रहा है.
यह एक सतही आकलन है कि दलित राजनीति करनेवाले नेताओं से दलितों का मोहभंग हो रहा है. सवाल यह है कि विपक्ष में दलित नेता कौन है? रामविलास पासवान पक्ष में हैं, रामदास अठावले पक्ष में हैं, उदित राज पक्ष में हैं, थावर चंद गहलोत पक्ष में हैं, अब ये लोग कैसे कुछ बोल सकते हैं. क्योंकि ये लोग दलित राजनीति कर ही नहीं रहे हैं. इस समय अगर कोई दलित राजनीति कर रहा है, तो वह भाजपा कर रही है. भाजपा ने आंबेडकर को सिर पे उठाया हुआ है. भाजपा ही आंबेडकर की जयंती मना रही है और उनकी जन्मस्थली से लेकर मरणस्थली तक तीर्थस्थल बना रही है. इसका मतलब यह हुआ कि दलितों का मोहभंग भाजपा से हुआ है, न कि दलित राजनीति करनेवाले नेताओं से, क्योंकि भाजपा ने सभी दलित सीटों पर कब्जा कर लिया है और वह दलितों को इतनी अनुमति नहीं दे रही है कि वे कुछ बोल पायें.
दूसरी तरफ, सत्तर वर्ष की आजादी में दलित यह सोच रहा है कि आखिर वह भी तो नागरिक है, उसके भी तो अधिकार हैं. उसके अधिकारों का हनन हो रहा है, न्यायालय से उसे न्याय नहीं मिल रहा है, कलेक्टर बात नहीं सुन रहा है और पुलिस उसकी रिपोर्ट नहीं लिख रही है. ऐसे में दलित क्या करेगा? उसका गुस्सा फूटेगा और फिर संघर्ष शुरू होगा. सहारनपुर की घटना ऐसी ही संघर्ष का परिणाम है. जहां तक भीम सेना के उभार की बात है, तो यह बहुजन आंदोलन का प्रतिफल है. बीते ढाई दशकों से उत्तर प्रदेश में बसपा, बामसेफ आदि के जरिये चलाये गये बहुजन अांदोलन ने दलितों को आत्मनिर्भर अस्मिता दी है. ढाई दशक पहले दलित युवा कांग्रेस में था, भाजपा में था, जय भीम नहीं बोलता था, लेकिन इस ढाई दशक में बहुजन आंदोलन ने दलितों को जय भीम बोलने की जबान दी है. अब उसको लगने लगा है कि उसकी अपनी आत्मनिर्भर अस्मिता है, उसकी अपनी राजनीति है, उसकी अपनी संस्कृति है.
यही वजह है कि वह अब उठ करके खड़ा हो रहा है और आधुनिक तकनीकी हथियारों (सोशल मीडिया) से सबका मुकाबला कर रहा है. यह समझनेवाली बात है कि जब दलितों को न्याय नहीं मिलेगा, तो न्याय पाने का राजनीति ही केवल रास्ता नहीं है, बल्कि दूसरे बहुत से रास्ते भी हैं, जिनके जरिये वे न्याय पाने की कोशिश करेंगे. हालांकि, भीम सेना का जिस भावना के साथ उभार हुआ है, उसके लंबे समय तक बने रहने पर संदेह है, क्योंकि भावनाअों का बहुत जल्दी शमन हो जाता है. जिस प्रकार से दलित समाज को हाशिये पर डाला गया है, वह ऐसी भावनाओं के प्रस्फूटन का कारण तो बनेगा ही.
इस मामले में कांग्रेस बेहतर थी- कांग्रेस में लोकसभा स्पीकर दलित था, संस्कृति मंत्री दलित था, यूजीसी का चेयरमैन भी दलित रहा, कांग्रेस ने कई विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर दलितों को बनाया था, योजना आयोग में भी दलितों को जगह दी थी. लेकिन, इस मामले में भाजपा बिल्कुल ही दलित विरोधी है, यहां तक कि शेड्युल कास्ट आयोग भी खाली पड़ा हुआ है. यह हाशिये की पराकाष्ठा है, जो भाजपा दलित राजनीति के नाम पर कर रही है. भाजपा केवल दलितों का वोट लेना जानती है, उनको प्रतिनिधित्व देना नहीं. इसका प्रमाण यह है कि भाजपा में एक भी दलित प्रवक्ता नहीं है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
प्रो विवेक कुमार जेएनयू