आग से आग नहीं बुझती
अशोक कुमार पांडेय कवि एवं लेखक ashokk34@gmail.com सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने अपनी नियुक्ति के बाद से कश्मीर मुद्दे पर जितने बयान दिये हैं, उन्हें पढ़ते हुए महाराज रणबीर सिंह के विश्वस्त और 1887-89 के भयानक अकाल के समय कश्मीर के सूबेदार रहे पंडित वजीर पुन्नू का वह बयान याद आता है, जिसमें उन्होंने […]
अशोक कुमार पांडेय
कवि एवं लेखक
ashokk34@gmail.com
सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने अपनी नियुक्ति के बाद से कश्मीर मुद्दे पर जितने बयान दिये हैं, उन्हें पढ़ते हुए महाराज रणबीर सिंह के विश्वस्त और 1887-89 के भयानक अकाल के समय कश्मीर के सूबेदार रहे पंडित वजीर पुन्नू का वह बयान याद आता है, जिसमें उन्होंने अकाल के दौरान श्रीनगर की आधी आबादी खत्म हो जाने के बावजूद हालात को सामान्य बताया था, क्योंकि इसमें कोई कश्मीरी पंडित, डोगरा या सिख नहीं मरा था. तब वजीर पुन्नू का कहना था कि ‘मेरा चले तो श्रीनगर से जम्मू तक कोई मुसलमान जिंदा न बचे.’
अजित डोभाल के सुरक्षा सलाहकार के रूप में नियुक्ति के बाद से ही यह साफ हो गया था कि मोदी सरकार पूर्ववर्ती बाजपेयी सरकार की जख्म भरने की नीति की जगह कश्मीर में सख्ती की नीति अपनायेगी. लेकिन, आम कश्मीरियों को बाजपेयी का समय याद था और इसीलिए जब कश्मीर में पीडीपी तथा भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी, तो उन्हें उम्मीद थी कि घाटी के हालात सुधरेंगे. लेकिन, ये उम्मीदें जल्द ही ध्वस्त हो गयीं और बुरहान वानी की हत्या के बाद जिस तरह कश्मीरी जनता लगातार सड़कों पर उतरी है, आतंकवादियों के जनाजे में शिरकत करनेवालों की संख्या में और अलगाववादी घटनाओं में वृद्धि हुई है.
खूनखराबा बढ़ा है तथा पत्थरबाजी रोजमर्रा का नियम बन गयी है. ऐसा लगता है कि कश्मीर में 90 का दशक फिर से लौट आया है. बल्कि इस मायने में हालात नब्बे से भी अधिक खतरनाक लग रहे हैं, क्योंकि वहां नाउम्मीदी और असंतोष का एक भयानक माहौल बना है, जिसमें लड़कियां, बच्चे और बूढ़े भी मौत का भय छोड़ कर सड़कों पर दिखायी दे रहे हैं. और यह आग गांवों तक में पहुंच चुकी है.
कश्मीर में 1987 के बदनाम चुनावों के बाद से हिंसा का जो दौर चला था, उसमें न केवल कश्मीरी पंडितों को विस्थापित होना पड़ा, बल्कि बड़े पैमाने पर कश्मीरी मुसलमानों की जानें भी गयीं.
उस समय के अलगाववादी आंदोलन का नेतृत्व जिस जेकेएलएफ के पास था, उसके एजेंडे में आजादी की मांग सबसे ऊपर थी. 2000 का दशक आते-आते यह आंदोलन कमजोर पड़ने लगा था और जैसा कि बाजपेयी सरकार के समय कश्मीर डेस्क के प्रमुख रहे पूर्व रॉ और आइबी प्रमुख एएस दुलत अपनी चर्चित किताब ‘द बाजपेयी डेज’ में बताते हैं कि ‘सिर्फ हथियारों और ताकत के बल पर कश्मीर समस्या को सुलझाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह कश्मीरी मानस और कश्मीरी अस्मिता से जुड़ा सवाल है.
उनके आत्मसम्मान को कुचल कर दबाया तो जा सकता है, लेकिन हल नहीं किया जा सकता.’ इसीलिए एनडीए के दौर में लगातार बातचीत करने और जख्मों पर मरहम लगाने की नीति अपनायी गयी. साल 2010 का दशक कश्मीर में अपेक्षाकृत शांति का दशक था और भारत सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों को एलटीसी नियमों में छूट दिये जाने जैसे उपायों से वहां पर्यटन में भी उछाल आया, जिसने स्थानीय समृद्धि में योगदान दिया. मनमोहन सिंह ने भी इस नीति को जारी रखा और इसी के चलते 2014 के चुनावों में बड़ी संख्या में कश्मीरियों ने भागीदारी की.
एएस दुलत बताते हैं, 9/11 के बाद कश्मीर मामले में अमेरिकी दबाव में पीछे हट चुके पाकिस्तान को भी बुरहान वानी की हत्या के बाद के माहौल में नये सिरे से अपनी घुसपैठ बढ़ाने और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह सवाल जोर-शोर से उठाने का मौका मिला. नतीजा यह कि आज कश्मीर में चल रहे आंदोलन का नेता पाकिस्तानपरस्त गीलानी है, जिसने न केवल हुर्रियत की उदार आवाजों को पूरी तरह से दबा दिया है, बल्कि कश्मीरी आक्रोश को इस्लामी आंदोलन बनाने में भी सफलता पा ली है. मोदी सरकार के आने के बाद देश भर में हिंदुत्ववादी ताकतों के बढ़ते उत्पात ने भी इस परिघटना को ताकत दी है.
जब सेना प्रमुख कहते हैं कि कश्मीरी युवा पत्थर फेंकने की जगह गोलियां चलाते, तो बेहतर होता. या यह कि अगर युवा सेना की गतिविधियों में बाधा पहुंचायेंगे, तो इसका अंजाम बुरा होगा. या फिर वह मेजर गोगोई द्वारा एक कश्मीरी युवक को जीप से बांध कर घुमाने को सही रणनीति बताते हैं, तो असल में वह पूरी कश्मीरी जनता के आत्मसम्मान पर ही चोट पहुंचा रहे होते हैं और यह भी स्पष्ट कर रहे होते हैं कि कश्मीरी जनता अब उनके लिए शत्रु पक्ष है.
वह यह भूल जाते हैं कि श्रीनगर के चुनावों में जिन सात प्रतिशत लोगों ने वोट दिया था, उनमें से एक को जीप पर बांध कर घुमाना असल में उनके इस दावे को ही खारिज करता है कि ऐसा वह अमनपसंद कश्मीरी शहरी की रक्षा के लिए कर रहे हैं. पत्थर चलानेवाला हर युवा आतंकवादी नहीं है. लोकतांत्रिक समाज में विरोध के हक से महरूम पैलेट गनों से बिंधे कश्मीरी आत्मसम्मान को लगातार आहत करते ये बयान कश्मीर से दिल्ली की दूरी को कम करने के बजाय और बढ़ायेंगे ही.