सकारात्मकता से पुष्ट हो राष्ट्रीयता
प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हम एक अजीबोगरीब वक्त में रह रहे हैं. पूरे देश में तथाकथित ‘राष्ट्रीयता’ का शोर है, पर इस तथ्य से किसी को कोई मतलब नजर नहीं आता कि हमारी राष्ट्रीयता का केंद्रीय सरोकार राष्ट्रीय एकता से होना चाहिए. देश ने ऐसे एक से अधिक संघर्ष देखे हैं, जो […]
प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
हम एक अजीबोगरीब वक्त में रह रहे हैं. पूरे देश में तथाकथित ‘राष्ट्रीयता’ का शोर है, पर इस तथ्य से किसी को कोई मतलब नजर नहीं आता कि हमारी राष्ट्रीयता का केंद्रीय सरोकार राष्ट्रीय एकता से होना चाहिए. देश ने ऐसे एक से अधिक संघर्ष देखे हैं, जो किसी भी राष्ट्रवादी को असहज करने को काफी हैं, जबकि मैं हिंदू-मुसलिम संघर्ष अथवा धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति की बातें नहीं कर रहा, जिनके लिए कुछ करना इस घड़ी उतनी ही बड़ी जरूरत है.
हमने एक ओर तमिलनाडु तथा कर्नाटक के बीच, तो दूसरी ओर पंजाब एवं हरियाणा के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर चले विवाद देखे हैं. इसी तरह, वृहत्तर नागालैंड की आकांक्षा ने मणिपुर एवं नागालैंड के मध्य तीव्र संघर्ष को जन्म दिया. हैरत यह है कि राष्ट्रीयता की चीख-पुकार मचानेवालों ने इन संघर्षों के समाधान को न सिर्फ तनिक भी तवज्जो न दी, बल्कि इनमें से हरेक को और घनीभूत करने में योगदान किया. ऐसे में कोई अचरज नहीं कि जब हम एक के बाद दूसरे मौके गंवाते चले जाते हैं, ये संघर्ष तीव्रतर होते जा रहे हैं.
हाल में एक अवसर आया, जब रावी-ब्यास जल के बंटवारे और हरियाणा के हिस्से पड़े जल को वहां ले जाने के लिए सतलज-यमुना संपर्क (एसवाइएल) नहर के निर्माण को लेकर चले आ रहे लंबे विवाद को सुलझाया जा सकता था. हुआ यह कि उत्तर क्षेत्रीय परिषद् की एक बैठक में पंजाब के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने कहा कि पंजाब इस विवाद का समाधान बातचीत से निकालना चाहेगा. यह पंजाब सरकार तथा वहां के राजनीतिक दलों द्वारा पिछले दशक में अपनाये इस अड़ियल रवैये से एक अहम विलगाव था कि पंजाब के पास किसी और को देने के लिए एक बूंद भी अतिरिक्त जल नहीं है.
हरियाणा सरकार को चाहिए था कि वह इस पेशकश की डोर थाम बातचीत की शुरुआत करती, मगर दुर्भाग्यवश यह न हुआ. दरअसल, हरियाणा सरकार को ऐसा लगता है कि वैधानिक स्थिति उसके पक्ष में है, इसलिए उसे बातचीत करने की कोई जरूरत नहीं. सो उसने इसे ठुकरा दिया और दोनों सरकारें एक बार फिर अपने पूर्ववर्ती कड़े रवैये पर पलट गयीं, जिसने बातचीत की संभावना सिरे से समाप्त कर डाली. यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण तथा अदूरदर्शी घटनाक्रम रहा. हालांकि, हरियाणा सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर क्रियान्वयन याचिका पर जब जुलाई माह में सुनवाई शुरू होगी, तो संभावना यह रहेगी कि फैसला हरियाणा के पक्ष में ही जाये, पर उसका जमीनी क्रियान्वयन तो तब भी दूर की कौड़ी ही बना रहेगा.
केंद्रीय सरकार द्वारा घोषित नदी जल बंटवारे के प्रथम फैसले को चालीस वर्ष बीत चुके हैं. हरियाणा सरकार द्वारा अपनायी नीति समाधान को और भी दूर धकेल देगी और यदि वह सफल भी हो जाये, तो उससे दोनों राज्यों की जनता के बीच एक ऐसा वैमनस्य पैदा होगा, जिससे सहज ही बचा जा सकता था. मैंने बार-बार दलील दी है कि हरियाणा-पंजाब के बीच का विवाद सुलझा लेने योग्य है. मैं दोनों राज्यों की जनता के विचारार्थ एक प्रस्ताव पेश करना चाहता हूं, जिसका सार यह है कि हरियाणा सरकार दोनों सरकारों के बीच हुए पहले समझौते के अनुसार उसे मिलनेवाले जल से कम हिस्से पर राजी हो जाये और दूसरी ओर, पंजाब सरकार एसवाइएल नहर के निर्माण समेत इस नये समझौते के त्वरित कार्यान्वयन को तैयार हो जाये.
विदित हो कि विवाद का विषय सतलज का पानी नहीं, रावी-ब्यास नदियों से संबद्ध दो मुद्दे हैं, जिनमें पहला बंटवारे के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा की बाबत है. इसके 159 लाख एकड़ फुट के न्यूनतम अनुमान से लेकर 183 लाख एकड़ फुट तक होने का सबसे वृहत अनुमान किया जाता है. पंजाब इस वृहद् अनुमान के प्रति विरोध व्यक्त करता रहा है. हरियाणा का कहना यह रहा है कि पानी की 30 लाख एकड़ फुट तक की अहम मात्रा बरबाद होने दी जाती है और इसे पाकिस्तान की ओर बहने दिया जाता है. कुल मिला कर, यह एक तकनीकी विवाद है और इसकी कोई वजह नहीं कि वर्तमान रावी-ब्यास न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) इसका समाधान न निकाल सके. यह निकाय रिक्तियों की वजह से पिछले एक दशक से निष्क्रिय है. आवश्यकता इसकी है कि केंद्र सरकार ये रिक्तियां भरे और इसे इस प्रश्न पर अपनी राय तय करने दे, ताकि दोनों राज्यों के बीच जल का बंटवारा इस मुद्दे का बंधक न बना रहे.
पंजाब की सभी सरकारों की यह दलील रही है कि 1976 में इंदिरा गांधी द्वारा किये गये फैसले के अनुसार पंजाब को मात्र 22 प्रतिशत पानी दिया जाना अनुचित है. 1981 में दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा इसकी समीक्षा कर इसे 25 प्रतिशत कर दिया गया था. रावी-ब्यास ट्रिब्यूनल ने 1987 में दी गयी अपनी पहली रिपोर्ट में इसे बढ़ा कर 28 प्रतिशत कर दिया था, जिसे पंजाब के नेताओं ने खारिज कर दिया. जिस जल पर हरियाणा का वाजिब हक बनता है, उसके विषय में पंजाब के नेता अपनी समस्या पर राजनीतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए यह कहते हैं कि पंजाब के मालवा क्षेत्र के किसान उसी अतिरिक्त जल पर आश्रित हैं.
मेरी समझ से हरियाणा को यह चाहिए कि उपर्युक्त परिस्थिति में वह पंजाब को मिल रहे पिछले हिस्से से लगभग पांच प्रतिशत अतिरिक्त पानी देना स्वीकार कर ले. इसके बदले, पंजाब को नहर के निर्माण पर अपना हठ छोड़ एक निश्चित समय सीमा में उसे पूरा कर लेने पर राजी हो जाना चाहिए. पूरी संभावना यह बनती है कि सुप्रीम कोर्ट में पंजाब को इस पर राजी होना होगा. पर एक सियासी समझौता यह सुनिश्चित कर देगा कि अब आगे इस पर और कोई मुकदमेबाजी और सियासी नाटकबाजी नहीं होगी.
ऐसा समझौता दोनों राज्यों की जनता के दीर्घकालीन हित में होगा. यह माकूल वक्त है कि दोनों राज्यों के सभी विवेकशील, एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवी तथा किसान संगठन एकजुट होकर अपनी सरकार को बातचीत की मेज तक लाने को उत्साहित करें. टीवी स्टूडियो में बैठे जेहादी एंकरों द्वारा प्रचारित नकली राष्ट्रीयता की बजाय, यह राष्ट्रीय एकता की दिशा में उठा एक सकारात्मक कदम होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)