साल 1992 से 2017 के बीच 25 सालों का फासला है. लेकिन, अब तक बाबरी मसजिद को गिराने के अपराध के दोषियों को सजा देने का काम पूरा नहीं हो सका है. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद लखनऊ की विशेष सीबीआइ अदालत ने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और नौ अन्य नेताओं के खिलाफ बाबरी मसजिद मामले में आपराधिक षड्यंत्र के आरोप में सुनवाई शुरू की है. सर्वोच्च न्यायालय ने 19 अप्रैल के अपने आदेश में दो साल के भीतर ‘भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष बुनावट को हिलानेवाले अपराध’ के इस मामले में फैसला देने के लिए भी कहा है. यह सीबीआइ अदालत के लिए बड़ी चुनौती है. उसे 900 से अधिक गवाहों का संज्ञान लेना है, ढाई दशकों में जुटाये गये भारी मात्रा में दस्तावेजों को खंगालना है और बार-बार बदले गये बयानों की तहकीकात करनी है.
हमारे देश में जजों की कमी, पुलिस की सुस्ती, कानूनी प्रक्रिया की जटिलता आदि कारकों के कारण लंबित मामलों की सूची बहुत लंबी है. सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही हर जज के पास औसतन 2,513 मामले पड़े हुए हैं. राज्य में ऐसे मामलों की कुल संख्या 6,31,290 है, जो दस सालों से अधिक समय से निपटारे का इंतजार कर रहे हैं.
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ गया कि इसकी नियमित सुनवाई हो और गवाहों की अनुपस्थिति से मुकदमा बाधित न हो. रायबरेली और लखनऊ अदालतों में चल रहे मुकदमों को भी मिला दिया गया है और उनकी आगे की कार्रवाई मौजूदा स्थिति से शुरू होगी. चूंकि यह मसला राजनीतिक और सामाजिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए इसके चलते इसकी सुनवाई के दौरान हर छोटी-बड़ी बात चर्चा में होगी, जो विवादों को हवा भी दे सकती है. बाबरी मसजिद गिराने से पहले और बाद में राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद मसले पर खूब राजनीति हो चुकी है तथा यह अब भी जारी है. अनगिनत दंगे-फसाद हो चुके हैं, लोग मारे गये हैं और संपत्ति का नुकसान हुआ है. आपराधिक षड्यंत्र के मुकदमे के अतिरिक्त विवादित स्थल पर मालिकाने को लेकर कानूनी लड़ाई अलग चल रही है.
बातचीत के माध्यम से भी कोई समुचित राह निकालने की कोशिशें हो रही हैं. यह भी देखा जाना है कि राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के पालन में कितनी सकारात्मक भूमिका निभाती है. बहरहाल, एक उम्मीद तो बनी ही है कि इस मामले का फैसला निर्धारित अवधि में आ जायेगा तथा उसके बाद बड़ी अदालतों में भी इसका जल्दी निपटारा कर लिया जायेगा.