विमर्श की चुनौती पेश करती रिपोर्ट

।। पुष्पेश पंत।। (विदेश मामलों के जानकार) अक्सर कहा जाता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होता, बल्कि नुकसान की ही संभावना अधिक रहती है. यह बात इस वक्त उस अतिगोपनीय ‘हैंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट’ के बारे में कही जा रही है, जिसके कुछ हिस्सों का खुलासा विदेशी पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने हाल […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 21, 2014 5:30 AM

।। पुष्पेश पंत।।

(विदेश मामलों के जानकार)

अक्सर कहा जाता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होता, बल्कि नुकसान की ही संभावना अधिक रहती है. यह बात इस वक्त उस अतिगोपनीय ‘हैंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट’ के बारे में कही जा रही है, जिसके कुछ हिस्सों का खुलासा विदेशी पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने हाल में किया है. यह याद दिलाने की जरूरत है कि मैक्सवेल 1962 के भारत चीन सीमा युद्ध के समय लंदन टाइम्स के संवाददाता के रूप में दिल्ली में तैनात थे और सैनिक मुठभेड़ के बाद प्रकाशित इनकी पुस्तक ‘इंडियाज चायना वार’ अपनी पक्षधरता के कारण विवादग्रस्त रही थी.

बहरहाल, जिस रिपोर्ट का जिक्र हो रहा है, उसका गठन भारत की शर्मनाक हार के कारणों की तलाश और दोषियों की जिम्मेवारी तय करने के लिए सेनाध्यक्ष जनरल चौधरी द्वारा किया गया था. मेजर जनरल ब्रुक्स के अलावा ब्रिगेडियर भगत भी इसके सदस्य थे. विषय की सामरिक संवेदनशीलता को देखते हुए इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. आम तौर पर तीस साल बाद अभिलेखागार के दस्तावेज शोधकर्ताओं को सुलभ होते हैं, पर चीन सीमा से जुड़ी सौ साल पुरानी फाइलें भी अभी तालाबंद हैं. यह बात बारंबार कही जाती रही है कि 1962 के ‘हादसे’ की सबसे बड़ी जिम्मेवारी तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके प्रमुख सलाहकार तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की थी. इसके बाद नंबर आता है उन खुदगर्ज दरबारी चापलूस नौकरशाहों और सेनानायकों का, जिन्होंने नेहरू को जमीनी हकीकत से दूर रखा. इसमें इंटेलीजेंस ब्यूरो के मलिक और नेफा मोरचे के कमांडर जनरल बीएम कौल का नाम सबसे ऊपर है.

इस बात की अनदेखी कठिन है कि भारत-चीन संबंधों के यथार्थ के बारे में नेहरू ने देश की जनता को वर्षो तक गलतफहमी मे रखा था. ‘चीनी-हिंदी भाई-भाई’ वाले दौर में ही दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने लगे थे और संसद में गरमागरम बहसों में नेहरू लाजवाब होते रहे थे. इससे भी पहले जब साम्यवादी चीन ने तिब्बत को जबरन ‘मुक्त’ कराने की तैयारी की थी, तभी सरदार पटेल ने नेहरू को इस विषय में सतर्क कर दिया था. समाजवादी रुझान के नेहरू को लगता था कि सहोदर एशियाई देश चीन भारत के लिए बैरभाव कभी नहीं रख सकता. सामंती मानसिकता वाले पाणिक्कर सरीखे राजदूतों की नादानी ने इस संकट को और विकराल बना दिया था. ये बातें वर्तमान भारत की नौजवान पीढ़ी को पौराणिक लग सकती हैं, पर इन सबको निर्विवाद तथ्यपरक ढंग से जानने-समझने के लिए किसी गोपनीय सरकारी रिपोर्ट के सनसनीखेज भंडाफोड़ की जरूरत नहीं. जितनी बार लता जी का अमर गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ या कैफी साहब का तराना ‘कर चले हम फिदा’ गूंजता है, गला रुंधने के साथ वह दु:स्वप्न भी आंखों में घूमने लग जाता है.

हमारी समझ में चुनावी माहौल में मैक्सवेल का ‘खुलासा’ यह शक पैदा करता है कि गड़े मुर्दो के साथ छेड़छाड़ भारत के लिए नयी प्रेत बाधा पैदा करने के लिए किया गया है. तब से अब तक देश और दुनिया बहुत बदल चुके हैं- चीन भी. सीमा विवाद का निबटारा इकतरफा हो चुका है- चीन को चुनौती देने की औकात आज भी भारत की नहीं. अत: रक्षा मंत्री एंटनी का यह कहना बचकाना लगता है कि यह रिपोर्ट आज भी हिमालयी मोरचे पर रणसंचालन के लिए संवेदनशील जानकारी वाली है; इसे प्रकाशित नहीं किया जा सकता!

हमारे प्रधानमंत्री एकाधिक बात यह रेखांकित कर चुके हैं कि चीन के साथ हमारे आर्थिक संबंध इतने महत्वपूर्ण हैं कि फिलहाल सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डालना ही बेहतर है. इसी का नतीजा है कि चीन का हमारी सीमा का अतिक्रमण कर निरंतर घुसपैठिया कब्जा करने का दुस्साहस बढ़ता ही गया है. कुल मिला कर सच यह है कि 50 साल पुराने इस लाइलाज दाद की खारिश में किसी की दिलचस्पी नहीं बची है. न 1962 के दोषी जीवित हैं, न उन्हें कटघरे में खड़ा करनेवाले.

इन्हीं दिनों एक और रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, जो सुर्खियों में है. यह सरकारी गोपनीयता कानून के लंबे घूंघट में कैद नहीं, पर इसका भी सीधा नाता हमारी सामरिक सुरक्षा से है. एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान ने बताया है कि विश्व में सैनिक साजो-सामान का सबसे बड़ा खरीदार भारत है. इसी कारण रूस, अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी ही नहीं, इजरायल जैसे देश भी हमारे सैनिक बाजार में प्रवेश के लिए अकुलाते हैं. बहस यहीं से उलझने लगती है. क्या बेशुमार खर्चीली खरीद से देश की सामरिक सुरक्षा को निरापद रखा जा सकता है? पिछले दिनों रक्षा सौदों में घोटालों की जो बाढ़ आयी है, उसे देख कर तो लगता है कि यह खर्च सिर्फ दलालों और परजीवी नेताओं-अफसरों को ही मालामाल बनाने के लिए होता है और मौत की सौदागरी के इस व्यवसाय का कोई संबंध किसी देश की सामरिक जरूरत से कभी-कभार ही होता है. जिस सामग्री को हम महंगे दामों पर कड़ी शर्तो के साथ विदेशी मित्रों-मददगारों से खरीदते हैं, क्या वह हमेशा आधुनिकतम होता है या फिर हमारे सर पुरानी तकनीक और नये रंग-रोगन के बाद मरम्मत किया कबाड़ थोपा जाता है? रूस से जिस विमानवाजक पोत का आयात किया गया है, उसके संदर्भ में ऐसे सवाल पूछे जाते रहे हैं.

पुरानी पनडुब्बियों में विस्फोट हो या खास प्रकार के लड़ाकू हवाई जहाजों का बारंबार अचानक दुर्घटनाग्रस्त होना भी इसी तरह के संदेह पैदा करते हैं. एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्यों आजादी के 67 साल बाद भी दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी वैज्ञानिक-तकनीकी शक्ति समझा जानेवाला भारत अपनी सामरिक हिफाजत की सामग्री का खुद निर्माण करने में असमर्थ है? डीआरडीओ अपनी उपलब्धियों का विज्ञापन करता है तो इसका उपयोग करनेवाले- वायुसेना, स्थलसेना और नौसेना इन आविष्कारों की गुणवत्ता पर सवाल खड़े करते हैं. आलोचकों का कहना है कि ऐसा बाहर से आयात को तर्कसंगत और अनिवार्य बनाने के लिए किया जाता है. प्रक्षेपास्त्रों के अपवाद को छोड़ बाकी लाव-लश्कर के लिए रक्षा सौदों का ही आसरा है. सामरिक विषय सर्वत्र संवेदनशील समङो जाते हैं, पर इनके बारे में बिना बारीक जानकारियों या ब्योरों की साङोदारी की मांग उठाये भी रक्षा बजट के आकार, विदेशी खरीद पर निर्भरता के जोखिम के बारे में पारदर्शी बहस हर जनतंत्र में जारी रहती है. भारतीय सरकारें कब तक इस जवाबदेही से कतराती रहेंगी?

हमारी राय में यह दूसरी रिपोर्ट मैक्सवेल की ठिठोली से कहीं अधिक गंभीर विचार-विमर्श की चुनौती पेश करती है.

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