अपनों से ज्यादा गैरों पर भरोसा
लोकसभा चुनाव में टिकट पाने के लिए उछल-कूद मची है. पूरे देश में यह हो रहा है. झारखंड भी अछूता नहीं है. यहां कम से कम पांच विधायक दल बदल चुके हैं. भाजपा और तृणमूल कांग्रेस, दो ऐसे दल हैं जहां दलबदलुओं को सबसे ज्यादा शरण मिली है. सबसे ज्यादा घाटा अगर किसी दल को […]
लोकसभा चुनाव में टिकट पाने के लिए उछल-कूद मची है. पूरे देश में यह हो रहा है. झारखंड भी अछूता नहीं है. यहां कम से कम पांच विधायक दल बदल चुके हैं. भाजपा और तृणमूल कांग्रेस, दो ऐसे दल हैं जहां दलबदलुओं को सबसे ज्यादा शरण मिली है. सबसे ज्यादा घाटा अगर किसी दल को हो रहा है तो वह है झामुमो. उसके सांसद कामेश्वर बैठा तृणमूल में चले गये हैं.
वहीं दो विधायक हेमलाल मुरमू और विद्युत वरण महतो भाजपा के टिकट पर मैदान में उतर रहे हैं. ये दोनों झामुमो के पुराने नेता रहे हैं. सवाल यह है कि क्या राजनीतिक दलों के पास अपने समर्पित और जीतने योग्य नेता नहीं हैं कि उन्हें दूसरे दलों के नेताओं पर भरोसा करना पड़ रहा है. अगर नहीं है तो यह इन दलों की कमजोरी है जिन्होंने नेता तैयार नहीं किया. झामुमो ने थामस हांसदा के पुत्र विजय हांसदा को कांग्रेस से तोड़ लिया और अपने दल में शामिल कर प्रत्याशी बना दिया. क्या झ़ामुमो अपने दल के नेता को टिकट नहीं दे सकता था.
उस पर भरोसा नहीं था? यही हाल है भाजपा का है. जमशेदपुर सीट को लेकर भाजपा और झामुमो को अपने पुराने नेताओं पर भरोसा नहीं रहा. भाजपा के पास जमशेदपुर में अजरुन मुंडा, रघुवर दास, सरयू राय, आभा महतो जैसे नेता थे, लेकिन टिकट दिया विद्युत महतो को. झामुमो से लाकर. इसी प्रकार, झामुमो में नेताओं की कमी नहीं थी. लेकिन पार्टी ने टिकट दिया टाटा स्टील के पूर्व अधिकारी निरूप मोहंती को. साफ है कि भाजपा व झामुमो को ‘अपनों’ की तुलना में ‘बाहरियों’ पर अधिक भरोसा दिखा.
इससे समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है. कई बार इसका खमियाजा दलों को भुगतना पड़ता है. नाराजगी ङोलनी पड़ती है. पार्टी के ये निर्णय सही हैं या गलत, यह तो चुनाव परिणाम के बाद ही सामने आयेगा, लेकिन इससे राजनीति की गुणवत्ता पर असर पड़ता है. जिसे चुनाव लड़ना है, लड़े. हर किसी को हक है. लेकिन चुपके से दल छोड़ कर या अंतिम समय में किसी दल में शामिल होने से गलत संदेश जाता है. बेहतर होता कि ये नेता कुछ माह पहले ही दल छोड़ देते. दरअसल कुछ नेता लहर देख कर दल बदलते हैं. उसी के आधार पर निर्णय लेते हैं. यह स्वार्थ की पराकाष्ठा है. अब जनता ही चुनाव में ऐसे नेताओं के बारे में फैसला करे.