किसी की नजर में हिंदी के अभिमानमेरु, तो किसी और की नजर में पाणिनि. किसी के लिए ‘लड़ाकू व अक्खड़’ तो किसी के लिए ‘उद्भट विद्वान और महायोद्धा’, साथ ही सच्चे, खरे, खुद्दार, जुझारू, निर्भीक व स्वाभिमानी व्याकरणाचार्य. अपने गंवईपन में मगन रहकर किसी भी ‘बड़ी’ भाषा से आतंक में आये बिना अपनी बुनियादी समझ व ठोस वैज्ञानिक आधार पर ‘ठेठ हिंदी के ठाठ’ पर गर्व से भरे और हिंदी के ‘दुनिया की सबसे वैज्ञानिक भाषा’ होने के अपने दावे को लेकर किसी को भी चुनौती देने से पीछे न हटने वाले.
हिंदी जगत ने अपने पहले वैज्ञानिक वैयाकरण, और दूसरे शब्दों में कहें, तो अप्रतिम शब्दानुशासक आचार्य किशोरीदास वाजपेयी को जितने विशेषणों से विभूषित कर रखा है, शायद ही कभी किसी और को किया हो. यह बात और है कि इधर उसकी लगातार बढ़ रही विस्मरण की प्रवृत्ति अब इन आचार्य को भी बख्शने को तैयार नहीं है. इस कारण वह न ठीक से उनकी स्मृतियों की रक्षा कर पा रही है, न ही उन शब्दानुशासनों की, जिन्हें वे उसके लिए जरूरी बता गये थे.
नि:संदेह, आज वे हमारे बीच होते तो यह देखकर बहुत दुखी होते कि जिस हिंदी के शुभ की चिंता में वे उसे कठिन बताकर या सरल बनाने की जरूरत जताकर उसकी राह रोकने पर आमादा महानुभावों से यह कहकर पंगा ले लेते थे कि हिंदी तो स्वतः सरल है, उसे और सरल कैसे बनाया जा सकता है. उसी को सरल बनाने के नाम पर कई महानुभाव उसे हिंगलिश या हिंग्रेजी आदि जाने क्या-क्या बनाये दे रहे हैं.
आचार्य द्वारा की गयी हिंदी की सबसे बड़ी सेवा यह है कि वे जब तक इस संसार में रहे, उसको स्वतंत्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखा. न वैयाकरण के रूप में और न ही आलोचक, लेखक, कवि या साहित्यकार के रूप में. यह उद्घोषणा करने वाले वे पहले वैयाकरण थे कि हिंदी संस्कृत से अनुप्राणित अवश्य है,
किंतु उससे अलग अपनी ‘सार्वभौम सत्ता’ रखती और अपने नियम-कायदों से चलती है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन की प्रेरणा से ‘हिंदी शब्दानुशासन’ जैसा ग्रंथ लिखकर उन्होंने हिंदी को व्याकरणसम्मत, व्यवस्थित, स्थिर और मानकीकृत करने में तो बड़ी भूमिका निभायी ही, बहुविध परिष्कृत कर उसे समय के साथ चलने व भविष्य की चुनौतियों से पार पाने लायक भी बनाया.
जीवन का बड़ा हिस्सा भीषण गरीबी, अभावों, उपेक्षाओं व अपमानों के बीच काटकर भी उन्होंने हिंदी और देश के लिए अपने अभियान को कतई रुकने या झुकने नहीं दिया था. वर्ष 1898, 15 दिसंबर को उत्तर प्रदेश के कानपुर के रामनगर नामक गांव में उनका जन्म हुआ, तो माता-पिता ने उनका नाम गोविंद प्रसाद रखा था. गोविंद प्रसाद से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी बनने तक की उनकी जीवन यात्रा बेहद ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरी.
उनका किशोरावस्था तक का जीवन मवेशी चराने और मेहनत-मजदूरी करने जैसे कामों में ही बीत गया. यह स्थिति तब बदली, जब 12 वर्ष का होते-होते उन्होंने प्लेग से माता-पिता को खो दिया और चाचा के संवेदनहीन बरताव से त्रस्त होकर उनके पास से भाग निकले और साधुओं की एक टोली के साथ मथुरा चले गये. वहां जब टोली के साथ ही रहने की इच्छा जतायी, तो साधुओं ने खूब पढ़ने-लिखने की शर्त रख दी. उन्होंने इस मौके का भरपूर लाभ उठाया, जिससे आगे की कथा उनके गोविंद प्रसाद से आचार्य किशोरीदास वाजपेयी में बदलने की कथा में बदल गयी.
उनका मानना था कि विदेशी भाषाओं के जो शब्द हिंदी में आकर घुल-मिल गये हैं, वे तो उसमें रहेंगे ही, परंतु और नये शब्दों के लिए उसे विदेशी भाषाओं की ओर तभी देखना चाहिए, जब संस्कृत या प्रादेशिक भाषाओं से यह जरूरत पूरी करना कतई संभव न हो. दुर्भाग्य से, अब इसके उलट हिंदी में भारतीय भाषाओं के शब्द कम आ रहे हैं ओर विदेशी भाषाओं, खासकर अंग्रेजी के ज्यादा. आचार्य ने अपने बहुपठित ग्रंथ ‘हिंदी शब्दानुशासन’ में हिंदी को समयसापेक्ष यानी देशकाल के अनुरूप बनाने के लिए कई सुझाव दिये है.
अंत में, ‘संस्कृति का अर्थ’ में उनके पूछे इस सवाल के जिक्र के बिना बात अधूरी रहेगी- अस्पृश्य वह जो नीच हो, दुराचारी हो, रिश्वतखोर हो, चोरबाजारिया हो, शराबी हो, घिनौना हो, संक्रामक रोग से पीड़ित हो, अन्यथा कोई अस्पृश्य कैसे? क्या इसके बाद भी यह बताने की जरूरत रह जाती है कि वे किस तरह के देश और समाज का सपना देखते थे?