शोषणमुक्त समाज व्यवस्था चाहते थे विनोबा

आचार्य विनोबा भावे को अब उनके जन्म व निर्वाण दिवस पर भी अवपादस्वरूप ही याद किया जाता है. उन्होंने न सिर्फ भारत, बल्कि समूचे संसार में अहिंसक और शोषणमुक्त समाज व्यवस्था का सपना देखा था

By कृष्ण प्रताप | November 15, 2022 7:58 AM

आचार्य विनोबा भावे को अब उनके जन्म व निर्वाण दिवस पर भी अवपादस्वरूप ही याद किया जाता है. उन्होंने न सिर्फ भारत, बल्कि समूचे संसार में अहिंसक और शोषणमुक्त समाज व्यवस्था का सपना देखा था, उसे साकार करने के लिए ‘जय जगत’ का नारा दिया और यावतजीवन उसकी प्रतिष्ठा के प्रति समर्पित रहे थे. इसलिए उनके नाम के साथ विचारक, समाज-सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी, राष्ट्रीय शिक्षक और महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी जैसे विशेषण भी जोड़े जाते थे.

देश सेवा के लिहाज से देखें, तो उनकी कम से कम तीन सेवाएं अनमोल हैं. पहली सेवा स्वतंत्रता सेनानी के रूप में की, दूसरी भूदान आंदोलन चलाकर और तीसरी गांधी जी के ‘सर्वोदय’ व ‘स्वराज’ की अनूठी व्याख्याएं कर. महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गांव गागोदे में 11 सितंबर, 1895 को जन्मे विनोबा का माता-पिता का दिया नाम था- विनायक, जो परंपरा के अनुसार पिता नरहरि भावे के नाम से जुड़कर विनायक नरहरि भावे हो गया था.

बाद में महात्मा गांधी ने उन्हें विनोबा नाम दिया. स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनकी जेल यात्राओं का सिलसिला नागपुर के ऐतिहासिक झंडा सत्याग्रह से शुरू हुआ. वर्ष 1937 में लंदन गोलमेज कांफ्रेंस से देश को कुछ हासिल नहीं हुआ, तो अंग्रेजों की तीखी आलोचना कर वे दूसरी बार जेल गये. साल 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के वक्त खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे महात्मा के साथ रणनीति बनाने में लगे रहे थे.

आजादी के बाद विनोबा ने ‘भूदान’ नाम से भूमि सुधार आंदोलन आरंभ किया और देशभर में पदयात्राएं कीं. आंदोलन का लक्ष्य था- भूपतियों के कब्जे वाली पांच करोड़ एकड़ भूमि उनसे सदिच्छापूर्वक दान लेकर भूमिहीनों को वितरित करना. वर्ष 1953 में जयप्रकाश नारायण भी राजनीति छोड़कर उनसे आ जुड़े. पर यह आंदोलन अच्छी शुरुआत के बावजूद मंजिल नहीं पा सका.

उन्हें दुख था कि आजादी के बाद के देश के कर्णधारों ने जनता की शक्ति को जगाते हुए राजसत्ता के विलोप की ओर बढ़ने की महात्मा गांधी की जरूरी सलाह नहीं मानी और सत्ता संस्था को प्रमुख हो जाने दिया. विनोबा के पिता वैज्ञानिक और मां आध्यात्मिक अभिरुचि की थीं. मां ने उनके मन में संन्यास, वैराग्य व अध्यात्म की प्रेरणा भरी, तो प्राणिमात्र के कल्याण की भावना, जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण एवं सर्वधर्म समभाव व सह-अस्तित्व जैसे मंत्र भी दिये.

पिता से उन्हें गणितीय सूझ-बूझ, तर्क सामर्थ्य व वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि मिला. इक्कीस साल की उम्र में उन्होंने अपनी मां के कहने पर ‘गीताई’ नाम से गीता का मराठी अनुवाद आरंभ किया था. वर्ष 1915 में हाई स्कूल के बाद पिता ने उनसे फ्रेंच पढ़ने को कहा, जबकि मां ने संस्कृत. उन्होंने दोनों का मन रखने के लिए औपचारिक तौर पर फ्रेंच और निजी तौर पर संस्कृत का अध्ययन किया. मार्च, 1916 में इंटर की परीक्षा देने मुंबई की ट्रेन में सवार हुए.

पर वे बीच में ही उतर कर संन्यास की साध में हिमालय की ओर चल पड़े. काशी में एक जलसे में गांधी जी को देखकर उनका इरादा बदल गया. बाद में गांधी जी का आमंत्रण पाकर वे अहमदाबाद स्थित उनके आश्रम गये, जहां सात जून, 1916 को उनकी उनसे पहली वार्ता हुई. इस वार्ता के बाद गांधी जी की टिप्पणी थी कि अधिकतर लोग यहां कुछ लेने आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने आया है.

गांधी जी के निर्देश पर आठ अप्रैल, 1923 को विनोबा वर्धा गये और ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया. जब उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, तो डाक्टरों ने उन्हें किसी पहाड़ी स्थान पर जाने की सलाह दी. साल 1937 में वे पवनार आश्रम गये. विनोबा लंबे वक्त तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में ही जाने गये. कई लोग कहते हैं कि इस ‘समर्पित शिष्यत्व’ के कारण ही आगे चलकर उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व व विचारों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव नहीं हो पाया.

वे बीसियों भाषाओं के ज्ञाता थे और देवनागरी को विश्वलिपि के रूप में देखना चाहते थे. उन्होंने 15 नवंबर, 1982 को अंतिम सांस ली. उन्हें 1958 में उन्हें पहला रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया था तथा 1983 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया.

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