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अखिलेश यादव की तल्खी और विपक्षी एकता

आम चुनाव में भाजपा को मात देने के लिए गैर कांग्रेसी दलों को 150 सीटें जीतनी होंगी और कांग्रेस को भी 125-150 सीटें जीतनी पड़ेंगी. ऐसे में दोनों ही पक्षों को पता है कि चाहे जितनी भी खटपट हो, साथ-साथ रहना उनकी मजबूरी है.

पिछले दिनों समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांग्रेस को लेकर जो नाराजगी प्रकट की, वह दरअसल उस राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का एक उदाहरण है, जो विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन के घटक दलों के बीच चल रही है. इससे पहले भारत में जब भी गठबंधन बने हैं, तो उनमें किसी एक दल की भूमिका प्रमुख होती थी और अन्य दल सहयोगी पार्टियां होती थीं, लेकिन अभी विपक्षी दलों के गठबंधन में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसे दल शामिल हैं, जो अपने आप को कांग्रेस के बराबर समझते हैं. उन्हें लगता है कि कांग्रेस भी उनके ऊपर उसी तरह से निर्भर है, जितना कि वे कांग्रेस पर निर्भर हैं.

इसी प्रतिस्पर्धा की वजह से इन दलों के बीच एक अघोषित रस्साकशी चल रही है. अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवार होने को लेकर जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए. उनके इस रवैये की एक वजह यह भी है कि अक्सर राजनीतिक दल अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश करते हैं. ऐसे में भले ही जिन इलाकों में उनका प्रभाव कम हो, लेकिन ऐसे आक्रामक बयानों से पार्टी नेता वहां अपने सीमित समर्थकों को एक संदेश देना चाहते हैं. कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश के संदर्भ में व्यावहारिक समस्या भी है कि पिछले चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच नजदीकी मुकाबला हुआ था और बाद में 21 विधायकों के पाला बदलने की वजह से भाजपा की सरकार बन गयी. इसलिए इस बार कांग्रेस बहुत सतर्क है और उसे लगा कि अगर वह सपा को पांच-छह सीटें दे देती और उनके कुछ विधायक जीत जाते, तो उन्हें काबू में रखना चुनौती हो सकती थी.

विपक्षी दलों के गठबंधन में दरार को लेकर भाजपा जरूर हमले कर रही है, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये यूपीए या एनडीए जैसा गठबंधन नहीं है. अखिलेश यादव ने एक तरह से यह स्टैंड लेकर इस बात का इशारा दे दिया है कि जब लोकसभा के चुनाव होंगे, तो उत्तर प्रदेश में भी वह कांग्रेस के साथ भी उसी तरह का व्यवहार कर सकते हैं. विपक्षी गठबंधन में अघोषित रूप से अखिलेश यादव की सपा, ममता बनर्जी की टीएमसी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी एक अलग तरह का छोटा ग्रुप हैं. वैसे ही कांग्रेस, डीएमके, आरजेडी, एनसीपी, वाम दलों के अलग ग्रुप हैं, जो पुराने यूपीए में सहयोगी रह चुके हैं और उनके बीच एक समझ है, लेकिन आप के साथ कांग्रेस कभी नहीं रही. टीएमसी के साथ भी गठबंधन था, जो टूट गया और सपा के साथ भी तालमेल कामयाब नहीं रहा. ऐसे में इस छोटे ग्रुप की पार्टियां लॉबीइंग कर रही हैं.

इंडिया गठबंधन की 28 पार्टियों में अधिकतर के बीच कोई समानता नहीं है. इसलिए वे एक-दूसरे पर प्रहार कर फायदा उठाने की कोशिश कर रही हैं. विपक्षी दलों के एकजुट होने को लेकर भाजपा थोड़ी असहज है और इसलिए वह दबाव बनाने के लिए घटक दलों की नाराजगी की घटनाओं को तूल देने की कोशिश कर रही है, लेकिन राजनीतिक दलों में यह रस्साकशी स्वाभाविक बात है. स्वयं भाजपा को ऐसे अनुभव हुए हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि तेलंगाना में केसीआर की बीआरएस के साथ उनका गठबंधन होने वाला था, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया.

ऐसे ही तमिलनाडु में भाजपा ने एआइएडीएमके के साथ गठबंधन की कोशिश की, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी. भाजपा के इतिहास पर नजर डालें, तो कांग्रेस, वाम दलों और सपा को छोड़ वह देश के लगभग हर राजनीतिक दल के साथ तालमेल कर चुकी है. इस बार का चुनाव भाजपा के लिए एक अलग तरह की चुनौती है, क्योंकि 2014 और 2019 के चुनावों में उसके खिलाफ कोई गठबंधन नहीं बन सका था. इस बार तमाम विपक्षी दल बेबस होकर एकजुट हुए हैं. आम चुनाव में भाजपा को मात देने के लिए गैर कांग्रेसी दलों को 150 सीटें जीतनी होंगी और कांग्रेस को भी 125-150 सीटें जीतनी पड़ेंगी. ऐसे में दोनों ही पक्षों को पता है कि चाहे जितनी भी खटपट हो, साथ-साथ रहना उनकी मजबूरी है.

सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस के लिए अखिलेश यादव के साथ तल्खी जैसी स्थिति दूसरे दलों के साथ भी आ सकती है. यहां पर किसी एक ऐसे नेता के होने से फर्क पड़ सकता था, जो एक संयोजक या समन्वयक की भूमिका निभा सके या जिसकी बातों का सब सम्मान कर सकें. जैसे जनता पार्टी के समय जयप्रकाश नारायण थे, फिर बाद के चुनावों में हरकिशन सिंह सुरजीत और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं ने अहम भूमिका निभायी, जो तटस्थ भी थे और जिनके प्रति हर घटक दल में आदर का भाव था, लेकिन आज समस्या यह है कि जो नेता ऐसी मध्यस्थता या सुलह कराने वाली भूमिका निभा सकते हैं, उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है. जैसे नीतीश कुमार को खुद ही प्रधानमंत्री पद का एक दावेदार समझा जा रहा है. इसी प्रकार शरद पवार की राजनीतिक निष्ठा को लेकर भी लोग आश्वस्थ नहीं हो पा रहे हैं. इसी प्रकार सोनिया गांधी भी हैं, लेकिन वह राहुल गांधी की मां हैं और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष. ऐसे में विरोधी गठबंधन के सामने एक संयोजक की तलाश एक बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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