तलाकशुदा महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता जरूरी

सर्वोच्च न्यायालय के यह हालिया निर्णय सराहनीय है. इससे उन बेसहारा महिलाओं को कुछ राहत मिल सकती है, जो तलाक होने के बाद अपने या भाई पर बोझ बन जाती हैं. कई बार माता-पिता होते नहीं हैं और भाई खुद अपनी और अपने परिवार परेशानियों से घिरा होता है. ऐसे में उस महिला के लिए ठौर पाना बेहद मुश्किल हो जाता है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 15, 2024 7:05 AM

डॉ शीबा असलम फहमी

सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने फैसला दिया है कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत शादीशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है तथा यह प्रावधान सभी धर्मों की महिलाओं पर लागू होता है. यह फैसला एक याचिका की सुनवाई के बाद आया है. इसलिए यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि कोई नया प्रावधान लागू नहीं किया गया है. अदालत ने यह भी कहा है कि पूर्व पतियों द्वारा पूर्व पत्नियों को यह भत्ता देना कोई दान नहीं है, बल्कि शादीशुदा महिलाओं का बुनियादी अधिकार है.

शाहबानो मामला चला ही इस आधार पर था कि तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता का अधिकार है. दानियाल लतीफी और अन्य कुछ मामलों में भी इस अधिकार को रेखांकित किया जा चुका है. इस संदर्भ में एक विसंगति है कि अगर हिंदू पति-पत्नी का तलाक होता है, तो दोनों में जिसकी आय अधिक होगी, वह कम आय वाले व्यक्ति को भत्ता देगा. यह प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 में है. इसका अर्थ है कि अगर तलाकशुदा पति की आमदनी कम है, तो वह अधिक आय वाली पूर्व पत्नी से गुजारा भत्ता मांग सकता है. पर मुस्लिम पुरुष को यह अधिकार नहीं दिया गया है. यह विसंगति कानूनी बराबरी के सिद्धांत के विरुद्ध है.

बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के यह हालिया निर्णय सराहनीय है. इससे उन बेसहारा महिलाओं को कुछ राहत मिल सकती है, जो तलाक होने के बाद अपने माता-पिता या भाई पर बोझ बन जाती हैं. कई बार माता-पिता होते नहीं हैं और भाई खुद अपनी और अपने परिवार परेशानियों से घिरा होता है. जब वे भाई के परिवार के पास जाती हैं, तो वहां उन्हें एक अड़चन के रूप में देखा जाता है. ऐसे में उस महिला के लिए ठौर पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. इस लिहाज से मुस्लिम पुरुषों को भी इस फैसले से राहत मिली है अपनी बेटी या बहन के हवाले से.

पति तो केवल एक महिला का होता है, पर एक पुरुष कई महिलाओं का पिता या भाई हो सकता है. इस संबंध में यह कहना जरूरी है कि शादी बहुत सोच-समझ कर की जानी चाहिए और शादी टूटने की स्थिति के बारे में पहले ही विचार कर लिया जाए. गुजारा भत्ते का यह कानून हमें उस तरफ भी ले जा रहा है, इसलिए भी इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

यह प्रावधान किसी भी लिहाज से इस्लाम और उसकी स्थापनाओं के विरुद्ध नहीं है. इस्लाम लाजिमी तौर पर यह कहता है कि तीन महीने और तेरह दिन की जो इद्दत की अवधि है, उसमें पूर्व पति जितना चाहे, उतना दे सकता है. यह नहीं कहा गया है कि कम-से-कम देना है या केवल इसी अवधि के लिए देना है. पूर्व पति जीवन भर के लिए भी दे सकता है. पर जीवन भर के भत्ते के संबंध में इस्लाम में प्रावधान नहीं किया गया है क्योंकि इस्लाम दोनों- पुरुष और स्त्री- के पुनर्विवाह के अधिकार को मान्यता देता है.

और, जब महिला की दूसरी शादी हो जाती है, तो गुजारा भत्ता भी बंद हो जाता है.
कि पहले कहा गया है, शाहबानो मामला गुजारा भत्ते का ही था और निचली अदालत से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक भत्ते के अधिकार पर मुहर लगी थी. उसके बाद अनेक मुस्लिम संगठनों ने तत्कालीन सरकार पर दबाव डालकर उस फैसले को संसद में बदलकर तीन महीने और तेरह दिन के भत्ते की व्यवस्था को ही चलते रहने दिया था. लेकिन दानियाल लतीफी के मामले में फिर से सर्वोच्च न्यायालय ने गुजारा भत्ते के अधिकार पर मुहर लगा दी थी. गुजारा भत्ता के इस ताजा फैसले में न्यायाधीश की यह टिप्पणी भी बहुत महत्वपूर्ण है कि जो महिला गृहिणी है, घर संभालती है, बच्चों का पालन-पोषण करती है, उसके सशक्तीकरण के लिए पति को अपनी कमाई को उससे साझा करना चाहिए.

अदालत ने तो साझा एटीएम और खाते का भी सुझाव दिया है. दुनियाभर में नारीवादी आंदोलन में अरसे से यह बात कही जा रही है कि जो परिवार संभालने का काम रही है, इसके लिए उसे सजा नहीं दी जा सकती, उसका करियर यही है. इसके लिए उसे समुचित सम्मान मिलना चाहिए, जो आर्थिक लाभ के रूप में हो. इस सलाह का खूब स्वागत किया जाना चाहिए. यह सभी धर्मों की महिलाओं के लिए है. नारीवादी आंदोलन का हमेशा से कहना रहा है कि जिस दिन महिलाएं अपने श्रम का हिसाब मांगेंगी, उस दिन दुनिया की सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जायेगी.

यह भी समझा जाना चाहिए कि केवल कानूनी प्रावधानों और अदालती फैसलों से सामाजिक बदलाव नहीं आ सकता है. उसके लिए समाज को भी सक्रिय होना आवश्यक है और समुदायों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर होनी चाहिए. संगठित क्षेत्र में मुस्लिमों की उपस्थिति नगण्य है. मुस्लिम समुदाय के श्रम बल का बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में है और वहां भी वह अधिकतर निचले पायदान पर है. वहां कमाई भी कम है और उसका औपचारिक भुगतान नहीं होता है. ऐसे में समुचित गुजारा भत्ता दे पाना आसान नहीं होता. गुजारा भत्ता मिलने की व्यवस्था जरूर होनी चाहिए, इसके साथ-साथ विसंगतियों और समस्याओं का ठोस समाधान किया जाना चाहिए. तब सचमुच में सकारात्मक बदलाव आ सकेगा.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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