कुछ समय पहले चंद्रभान प्रसाद ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि जब बाबासाहेब को मानने-समझनेवाले कम थे, तब उन्होंने दलित व आरक्षित समाज को कई अधिकार दिलाये तथा उनके लिए बहुत काम किये. लेकिन आज जब उनके अनुयायियों की संख्या करोड़ों में है और पहले उनके विरोधी रहे लोग भी उनके समर्थक हैं, फिर भी हाशिये के लोगों के अधिकार कमतर हो रहे हैं. यह चिंताजनक है.
मेरा मानना है कि उनकी प्रासंगिकता इसलिए भी आवश्यक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का हृास हो रहा है, नौकरियां घटती जा रही हैं, आरक्षण में कमी आ रही है, स्त्रियों के अधिकारों पर कुठाराघात हो रहा है. डॉ आंबेडकर जब सक्रिय हो रहे थे, वह गुलामी का दौर था. उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक गुलामी के दंश को झेला था. आर्थिक गुलामी भी थी ही.
मुझे लगता है कि आज एक बार फिर हम उसी दौर की ओर जा रहे हैं. राजनीति में धन-बल का प्रभाव बढ़ता जा रहा है. लोकतांत्रिक मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं. कॉरपोरेट एकाधिकार में बढ़ोतरी हो रही है. बाबासाहेब ने ब्राह्मणवाद को शिक्षा, शास्त्र एवं संपत्ति पर एकाधिकार की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया था. हम फिर ऐसी स्थिति की ओर अग्रसर हैं, जहां शिक्षा, शास्त्र एवं संपत्ति कुछ विशेष लोगों के हाथ में सिमट कर रह जायेगी.
औपनिवेशिक काल में और स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में बाबासाहेब सत्ता के साथ तार्किक आधार पर बहस-विमर्श कर बहुत सारी चीजें हासिल कर सके थे. वर्तमान दौर में वैसी बौद्धिक क्षमता को भी कमजोर किया जा रहा है. बुद्धिजीवी तबके को दुश्मन के तौर पर देखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है. बाबासाहेब के विचारों को औपनिवेशिक सत्ता भी सम्मान देती थी और संविधान सभा में उनके विरोधी भी आदरपूर्वक व्यवहार करते थे.
हमारी संसद और विधानसभाओं में चर्चा की जगह शोर-शराबा हावी हो गया है. बाबासाहेब को याद करते हुए इन खतरों का संज्ञान लिया जाना चाहिए. राष्ट्र निर्माण और भविष्य को बेहतर बनाने में युवाओं और छात्रों की अहम भूमिका है. इस समूह को बाबासाहेब को गंभीरता से पढ़ना चाहिए. वंचित पृष्ठभूमि से आकार उन्होंने गहन अध्ययन एवं चिंतन-मनन से ज्ञान अर्जित किया तथा उससे व्यापक कल्याण का प्रयास किया.
उनसे यह सीख ली जानी चाहिए कि समस्याओं को गंभीरता से समझकर उनके समाधान पर ध्यान देना चाहिए, न कि भावावेश में आकर स्थिति को बिगाड़ने की कोशिश करनी चाहिए. बाबासाहेब ने धर्म, जाति, स्त्री, मुद्रा, बांध परियोजना आदि कई विषयों पर विपुल साहित्य हमारे लिए लिख छोड़ा है. उनके दौर की अपेक्षा आज उस साहित्य को लेकर दलित बौद्धिक तबका परिपक्वता के साथ सक्रिय है, लेकिन आम दलित जन अभी भी उस साहित्य से बहुत हद तक दूर है.
उनका मूल लेखन अधिकांश अंग्रेजी में है. उसका जो हिंदी अनुवाद हुआ, वह बहुत ही सरकारी ढंग का है और उसमें कृत्रिमता है. कई बार उनके लिखे के अर्थ का अनर्थ भी होने लगता है. इस वजह से आम लोगों तक उनकी विचारधारा समुचित रूप से नहीं पहुंच पा रही है. कुछ विचार पहुंचे भी हैं, तो वे विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों की कोशिशों से हो पाया है, पर वह भी बहुत कम ही कहा जाना चाहिए.
लोगों के मन में बाबासाहेब की छवि एक युगपुरुष की है, जो संविधान निर्माता थे और जिन्होंने जीवन में कई समस्याओं का सामना किया और संघर्षों के बूते इस मुकाम पर पहुंचे. लेकिन यह समझ लोकगाथा और भजनों के रूप में ही है. बाबासाहेब के लेखन के जो उद्धरण हैं, वे सूत्र वाक्य हैं और उनमें गहरा अर्थ समाहित है.
इन्हें पूरी तरह समझने में दलित बौद्धिक भी पूरी तरह सफल नहीं हो सके हैं. यह सही है कि बाबासाहेब की लिखी किताबें बड़ी संख्या में खरीदी जा रही हैं. बहुत से लोग ऐसे मिल जायेंगे, जिनके पास पूरी रचनावली है, लेकिन यह सवाल भी बनता है कि उन किताबों को कितना पढ़ा जा रहा है.
दलित समाज के अलावा जो समाज है, उनमें बाबासाहेब को लेकर पूर्वाग्रहों के कारण उन्हें बहुत अधिक समझने के लिए प्रयत्नशील नहीं है. जो आभिजात्य बौद्धिक हैं, वे उन्हें पढ़ते और समझते हैं, लेकिन वे भी निष्पक्ष होकर मूल्यांकन कम ही कर पाते हैं. ऐसे सवर्ण बौद्धिक बहुत कम हैं, जो ईमानदारी से डॉ आंबेडकर को समझने व समझाने का प्रयास करते हैं.
बाबासाहेब को याद करने के सिलसिले में संविधान और समता पर भी चर्चा होनी चाहिए. जब लोकतांत्रिक मूल्य मजबूत होते हैं, तब सचमुच में सभी का साथ-साथ विकास होता है. लेकिन, जैसा कि हमने पहले कहा, आज राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में एकाधिकार बढ़ता जा रहा है, जिसमें दूसरों के प्रति घृणा का भाव है.
ऐसी स्थिति में वंचित समाज के लिए एक खतरा उत्पन्न होता है कि वह अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर पाता. आबादी में एक बड़ा हिस्सा इस वर्ग से है. अगर उसका विकास अवरुद्ध होगा, तो निश्चित रूप से इसका नकारात्मक प्रभाव राष्ट्रीय विकास एवं समृद्धि पर होगा. अगर एक स्वतंत्र देश में किसी भी कारण से लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ना लोकतंत्र के लिए चिंताजनक स्थिति है. डॉ आंबेडकर ने भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने में जो महत्वपूर्ण योगदान दिया है, वह खतरे में है. इस ओर हमें ध्यान देना चाहिए.