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खामियों से भरा है अमेरिकी सिस्टम

काले लोगों के जीवन में आमूल-चूल बदलाव नहीं होता है क्योंकि वे गरीब हैं और वे गरीब इलाकों में रहते हैं. उनका जीवन बदलने में कई पीढ़ियां लग जा रही हैं.

जे सुशील, अमेरिका में स्वतंत्र शोधार्थी

jey.sushil@gmail.com

अमेरिका के जाने माने पब्लिक फिलॉसफर कॉर्नेल वेस्ट ने पिछले दिनों एक बहुत जरूरी बात कही, जिसके आलोक में जॉर्ज फ्लायड की हत्या के विरुद्ध अमेरिका में चल रहे प्रदर्शनों को देखा जा सकता है.

प्रोफेसर वेस्ट अफ्रीकी मूल के अमेरिकी दार्शनिक हैं, जो येल यूनिवर्सिटी और प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में पढ़ा चुके हैं और इस समय हार्वर्ड में पढ़ा रहे हैं. उन्होंने अपने इंटरव्यू में कहा है कि जो हम देख रहे हैं, वह बताता है कि अमेरिका नाम का सामाजिक प्रयोग फेल हो चुका है. यह एक ऐसा राष्ट्र है, जो अपने नागरिकों को ही मार रहा है. वे कहते हैं कि भले ही लोग सड़कों पर दिख रहे हों इसके विरोध में, लेकिन दुखद यह है कि सिस्टम खुद को बदल नहीं रहा है. वे आगे रेखांकित करते हैं कि ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ नाम का पूरा अभियान ऐसे समय में शुरू होता है, जब बराक ओबामा राष्ट्रपति थे.

उनके कहने को अगर विस्तार दिया जाये, तो इसे हम कैसे समझें. कॉर्नेल वेस्ट इस नीति की आलोचना भी करते हैं कि अगर काले लोग पुलिस विभाग में और अन्य जिम्मेदार पदों पर बिठाये जायेंगे, तो यह हिंसा रूक जायेगी और काले लोगों का जीवन बेहतर हो जायेगा. इस संदर्भ में वे उदाहरण देते हैं कि पिछले कुछ सालों में कई काले लोग बड़े पदों पर पहुंचे हैं. यहां तक कि राष्ट्रपति भी बने, लेकिन फिर भी स्थितियों में बदलाव नहीं आया क्योंकि मुद्दा व्यक्ति से बड़ा है. मुद्दा सिस्टम है, एक ऐसा सिस्टम, जो अमेरिका की सैन्य ताकत, पूंजीवाद और भेदभाव पर तैयार हुआ है.

अगर हम इस बात की तुलना भारत से करें और इस पूरी बात को इस तरह समझने की कोशिश करें कि आरक्षण के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग सरकार में, सिस्टम में आये, लेकिन फिर भी क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के जीवन में व्यापक और बुनियादी बदलाव हुए तथा अगर नहीं हुए, तो क्यों नहीं हुए.

प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक विज्ञानी एमएन श्रीनिवास के जातियों के संस्कृतीकरण के उदाहरण को अगर हम अमेरिका के काले लोगों पर भी लागू करने की कोशिश करें, तो बात वही बनती है कि जो सिस्टम में आकर अपना जीवन बेहतर कर लेता है यानी कि गरीबी से ऊपर उठ कर थोड़ा बेहतर हो जाता है, तो फिर वह अपने बारे में ही सोचता है. वह उस समाज के बारे में नहीं सोचता है, जहां से वह आया है. और, यह एक बड़ा कारण बन जाता है कि सिस्टम में लगातार उपेक्षित तबके के लोगों की भागेदारी सुनिश्चित होने के बावजूद उस समाज की स्थिति में व्यापक बदलाव नहीं हो पाता है.

दार्शनिकों के अपने-अपने तय सिद्धांत होते हैं. अमेरिका में कई लोग प्रोफेसर कॉर्नेल वेस्ट की बातों से इत्तफाक रखते हैं और कई लोग इन बातों को सही नहीं भी मानते हैं. लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि अमेरिकी पूंजीवाद, नव-उदारवाद और सैन्यवाद ने अमेरिकी समाज को नैतिक रूप से वैसी ऊंची जमीन नहीं मुहैया करायी है, जो उसके पास अमेरिकी क्रांति, लोकतांत्रिक शासन, गुलामी को खत्म करने की लड़ाई और साठ के दशक में सिविल राइट मूवमेंट से मिली थी.

नब्बे के दशक के वैश्वीकरण के बाद जिस तरह से पूंजी का जोर बढ़ा और पिछले कई दशकों में पूंजीवाद जिस तरह से चरम पर गया है, ऐसे में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ी खाई में पिसनेवाले गरीब लोग ही रहे हैं. वरना क्या कारण हो सकता है कि कोरोना से मरनेवालों में काले लोगों की तादाद आबादी में उनकी हिस्सेदारी से बहुत ज्यादा है. इसकी वजह यह है कि वे गरीब हैं.

उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार की तरफ से बहुत अधिक नहीं किया जाता है. स्वास्थ्य सेवाएं कितनी मंहगी और निजी हाथों मे किस तरह से खेल रही हैं, अमेरिका में यह अब किसी से छुपा हुआ नहीं है. उच्च शिक्षा यानी ग्रैजुएशन करने में अमेरिका में लाखों डॉलर लगते हैं. प्राइमरी स्कूल से लेकर बारहवीं तक की शिक्षा भले ही मुफ्त हो, लेकिन स्कूली सिस्टम भी अमीरों और गरीबों के बीच बंटा हुआ है.

अमेरिका में स्कूल फ्री तो हैं, लेकिन उसका खर्च सरकार नहीं देती है. तो फिर यह खर्च आता कहां से है? जो स्कूल जहां है, उस इलाके के घरों से जो प्रापर्टी टैक्स मिलता है, उसका एक हिस्सा सरकारी स्कूलों को दिया जाता है और उसी से स्कूल चलते हैं. अब समझिए कि जो अमीर लोग हैं, वे तो किसी अमीर इलाके में ही रहेंगे, तो जाहिर है कि वे टैक्स भी ज्यादा देंगे क्योंकि उनके घर बड़े होंगे. वे टैक्स ज्यादा देंगे तो स्कूल को टैक्स का पैसा भी अधिक मिलेगा, तो वहां अच्छे टीचर आयेंगे.

मतलब यह कि वहां पढ़ाई अच्छी होगी. फिर अच्छे स्कूल के कारण इलाके में किराया मंहगा हो जायेगा यानी कि वह इलाका हमेशा के लिए मंहगा हो जायेगा. यह एक तरह का सिस्टम बना हुआ है, जो ऊपर से बहुत अच्छा और स्पष्ट भले दिखता हो, लेकिन थोड़ी सी परत खुरेचे जाने पर साफ पता चलता है कि यह सिस्टम उन लोगों के पक्ष में है, जिनके पास पैसे हैं.

यह एक बड़ा कारण है कि काले लोगों के जीवन में आमूल-चूल बदलाव नहीं होता है क्योंकि वे गरीब हैं और वे गरीब इलाकों में रहते हैं. उनका जीवन बदलने में कई पीढ़ियां लग जा रही हैं. वे गरीब हैं, तो उनका रहन-सहन कठिन है. जाहिर है कि उनमें अपराधी हैं, नशेड़ी हैं और कई गलत काम करनेवाले भी हैं. उनके स्कूल खराब है. उनके पास स्वास्थ्य के लिए इंश्योरेंस नहीं है. तो ऐसे सिस्टम में उनके पास आगे बढ़ने के कितने अवसर मिल सकेंगे?

और, इन तमाम अभावों के बाद भेदभाव करनेवाली पुलिस है और एक ऐसा सामाजिक और शासकीय सिस्टम है, जो उन्हें उनके रंग के कारण ही गलत मानता है तथा उनके प्रति कई दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों से भरा हुआ है. प्रोफेसर कॉर्नेल वेस्ट गलत नहीं कह रहे हैं कि अमेरिका का सिस्टम सड़ चुका है और यह जरूरी है कि इस सिस्टम और इसे आधार देनेवाली इस सोच को बदला जाये, वरना हालात और खराब ही होते चले जायेंगे.

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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