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आदि शंकराचार्य का सर्वात्मवाद

आदि शंकराचार्य ने आध्यात्मिक साम्राज्य की स्थापना की थी. पीढ़ियां आयीं और गयीं. साम्राज्यों का उदय तथा पतन हुआ, परंतु शंकराचार्य का साम्राज्य आज भी विद्यमान है.

निरंकार सिंह

लेखक एवं पूर्व सहायक संपादक, हिंदी विश्वकोष

nirankarsi@gmail.com

आदि शंकराचार्य देश के सर्वकालिक महानतम व्यक्तियों में से एक हैं. वे श्रेष्ठ दार्शनिक, विद्वान, ऋषि, रहस्यवादी तथा धर्म सुधारक थे. वे कर्मयोगी, भक्तयोगी तथा ज्ञानयोगी थे. कर्म के आधार पर उन्होंने सांसारिक कार्यों में ख्याति अर्जित की. वे अनंत आस्था और श्रद्धा वाले व्यक्ति थे. उपनिषदों, वेदांत तथा भगवत गीता का उन्होंने गहन अध्ययन किया था. उनका दृष्टिकोण सर्वव्यापी था. यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि किस वर्ष में उनका जन्म हुआ था और उनकी मृत्यु हुई थी, पर मैक्स मूलर का विश्वास था- उनका जन्म केरल के कालंदी गांव में सन 788 में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जो इस वर्ष छह मई को है. तीन वर्ष की आयु में उनके पिता का निधन हो गया.

जब वे पांच वर्ष के हुए, तो उनका यज्ञोपवीत हुआ. इसके बाद वे गुरुकुल चले गये. वहां दो वर्ष की अवधि में उन्होंने वेद, वेदांत और वेदांगों की पढ़ाई पूरी कर ली. उनकी विद्वता और योग्यता की धूम चारों ओर फैल रही थी. उन्हें मालाबार के राजा अपने यहां राज पंडित बनाना चाहते थे, पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया. बाद में वे संन्यासी बन गये. घर से निकल वे नर्मदा नदी के तट पर पहुंचे. वहां स्वामी गोविंद भगवत्पाद से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली. कुछ ही समय में उन्होंने योग में सिद्धि प्राप्त कर ली और अद्वैतवाद का अध्ययन किया. गुरु ने आदेश दिया कि वे काशी जाकर वेदांत सूत्र का भाष्य लिखें.

आश्चर्यजनक है कि वैज्ञानिक जिन निष्कर्षों पर पहुंचे हैं, वे आदि शंकराचार्य की शिक्षा के कितने समीप है, मनुष्य की आत्मा केवल ध्यान तथा आत्म निरीक्षण के द्वारा तत्व ज्ञान प्राप्त कर सकती है, जिसे समझने के लिए शताब्दियों तक शोध कार्य करना पड़ेगा. सर जेम्स जींस, सर आर्थर एडिंगटन, अल्बर्ट आइंस्टीन तथा मैक्स प्लांक जैसे वैज्ञानिकों का मुख्य संदेश यह है कि यद्यपि ब्रह्मांड का अस्तित्व है, परंतु वह प्रकट रूप से वास्तविकता से भिन्न है. डॉ रामा स्वामी अय्यर का विश्वास है कि बीसवीं शताब्दी में प्रतिपादित सापेक्षता के सिद्धांत का प्राचीन भारत को 3000 वर्ष पूर्व ज्ञान प्राप्त हो चुका था. कई लेखकों ने कहा है कि उनकी मुख्य देन है- सभी धर्मों को परस्पर जोड़ना. भारत के प्रत्येक भाग में मठ स्थापित करने का उनका उद्देश्य यही था. हमारी आस्था, पंथ तथा संप्रदाय भिन्न हो सकते हैं, किंतु देश की संस्कृति एक रूप है. आदि शंकराचार्य ने न केवल विभिन्न मान्यताओं तथा आदर्शों का समन्वय किया बल्कि उनका शुद्धिकरण भी किया.

पूर्वी तथा पश्चिमी विचारकों ने उनके दर्शन के चार तत्व बताये हैं. उनका पहला संदेश था कि ‘तुम्हें शाश्वत और क्षणिक में अवश्य भेद करना चाहिए. ‘एक’ का अस्तित्व है, पर अनेक परिवर्तित होते रहते हैं. जो वस्तु गुजर जाती हो या बदल जाती हो, उसके साथ संबंध न रखें. शाश्वत के साथ जुड़ जाओ, क्योंकि वह परम ज्ञान है.’ यद्यपि वह पारिवारिक जीवन के विरुद्ध नहीं थे, पर उनका संदेश था कि ‘याद रखो कि जो कुछ तुम्हारे चारों ओर है, वह सब क्षणभंगुर है. इनके साथ अत्यधिक लगाव अनादि से हटा कर क्षणभंगुरता की ओर उन्मुख करता है.’ उनका संदेश था कि हम सभी को अपने कर्मों का फल पाने की अभिलाषा का त्याग करना सीखना चाहिए.

हम अपने कर्मों के पुरस्कार में कोई रुचि न रखें. उनका विश्वास था कि हर व्यक्ति को ऐसा जीवन व्यतीत करना चाहिए कि मृत्यु के बाद जब वह अपने पालनहार से मिले, तो उससे पहले ही उसकी तैयारी कर रखी हो. उनका अंतिम संदेश था- मोक्ष की चाह. जैसा सेंट ल्यूक ने अपने संदेश पत्र में कहा है कि अनंत और अनादि जीवन की लालसा. शंकराचार्य ने कहा था कि यह संसार तो तैयारी का स्थान है, एक ऐसा विद्यालय है जहां हम स्वयं को तैयार करते हैं, शिक्षित करते हैं, मोक्ष प्राप्ति के लिए.

आदि शंकराचार्य ने आध्यात्मिक साम्राज्य की स्थापना की थी. पीढ़ियां आयीं और गयीं. साम्राज्यों का उदय तथा पतन हुआ, परंतु शंकराचार्य का साम्राज्य आज भी विद्यमान है. काशी में उन्होंने मुमेरू मठ की स्थापना की. विज्ञान इसका शरीर है. सत्य और ज्ञान उसके दो पद हैं. इसका नाम शेषाम्नाय या ऊर्ध्वाम्ननाय भी है. जहां उनके प्रतिनिधि के रूप में वर्तमान शंकराचार्य स्वामी नरेंद्रानंद सरस्वती आज भी धर्मोपदेश देते हैं. भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक एकता को लाने में इन मठों का बहुत बड़ा योगदान है. बद्रीनाथ, द्वारकापुरी, जगन्नाथपुरी और मैसूर में आदि शंकराचार्य ने एक-एक मठ बनाकर एक-एक शिष्य वहां रख दिया, जो गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार आज भी चल रहे हैं.

इन मठों के शंकराचार्य भी अब अपने को जगतगुरु कहते हैं. आदि शंकराचार्य के कार्य की सीमा यहीं पर समाप्त नहीं होती. उन्होंने संस्कृत में अनेक ग्रंथ लिखे हैं. इन ग्रंथों में ब्रह्मसूत्र भाष्य, ईश, केन, मठ आदि लगभग 12 उपनिषदों का प्रमाणित भाष्य, गीता भाष्य, सर्ववेदांत- सिद्धांत संग्रह, विवेक चूड़ामणि, प्रबोध सुधाकर बहुत विख्यात हैं. ये सारे कार्य उन्होंने 32 वर्ष में ही पूरे कर डाले. इसके बाद उनकी जीवन लीला समाप्त हो गयी. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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