16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

एक और संविधान संशोधन जरूरी

91वां संशोधन बहुत अच्छी पहल नहीं है. अब 92वें संशोधन की आवश्यकता है, जो मंत्रियों के कामकाज को स्पष्ट कर दे.

मोहन गुरुस्वामी, अर्थशास्त्री

mohanguru@gmail.com

सात जुलाई, 2004 को संविधान का 91वां संशोधन प्रभावी हुआ था. इसका अर्थ यह था कि उस दिन से केंद्र और राज्यों में मंत्रिपरिषद का आकार लोकसभा या विधानसभा की सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती. इस संशोधन के पीछे का तर्क बिल्कुल स्वाभाविक है. खर्च मसला नहीं था, क्योंकि सरकार के कुल खर्च में मंत्रियों पर होनेवाला खर्च बहुत थोड़ा है. असली समस्या यह है कि मंत्रियों की असीमित संख्या से सरकार का अस्थिर होना आसान हो गया था. दुर्भाग्य से यह समझ ठीक से नहीं बन सकी है कि बहुत सारे रसोइयों से रसोई तबाह हो जाती है.

संविधान के कामकाज की समीक्षा करनेवाली राष्ट्रीय समिति ने भी इस मसले पर ठीक से विचार नहीं किया था. इसी समिति ने मंत्रियों की संख्या को प्रतिनिधि सदन की संख्या का 10 प्रतिशत तक सीमित करने का सुझाव दिया था. इस सुझाव में भी बदलाव कर सीमा को 15 प्रतिशत कर दिया गया, क्योंकि ऐसा लगता है कि हमारे पास मंत्री बन कर जनसेवा करने को तत्पर लोगों की बड़ी संख्या है. खैर, सीमा तय करने की जो भी वजह रही हो, सुशासन संबंधी विचारों या प्रबंधन के सिद्धांतों का इससे नाममात्र का लेना-देना रहा है.

हमारी लोकसभा में 545 सांसद हैं, इसका मतलब यह है कि नयी दिल्ली में मंत्रियों की संख्या 81 तक हो सकती है. कुल 787 सांसद हैं. इस आंकड़े से प्रति नौ सांसदों में लगभग एक सांसद मंत्री बनने की उम्मीद रख सकता है. राज्यों में कुल 4020 विधायक हैं. विधान पार्षदों समेत 4487 सदस्यों के लिए लगभग 600 मंत्री पदों की संभावना बनती है. उत्तर प्रदेश के पास 403 विधायकों के साथ सबसे बड़ी विधानसभा है, जबकि दूसरी तरफ सिक्किम के पास केवल 32 विधायक हैं यानी वहां पांच मंत्री ही हो सकते हैं.

यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि जिन व्यक्तियों ने इस संशोधन के लिए अपना दिमाग लगाया था, उन्होंने सरकार को एक ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में नहीं देखा, जिसे समझदारी से साझा किया जाना चाहिए. सरकार कोई फलों की टोकरी नहीं होती, जिसे बांटा जाना होता है. कोई भी कामकाजी संगठन ऐसे आधार पर नहीं बनाया जा सकता है. हालांकि तुलना करना शायद ही पूरी तरह से ठीक होता है, पर आप किसी की सोच को समझ सकते हैं, जो किसी कंपनी के अधिकारियों की संख्या का निर्धारण उसके कामगारों या शेयरधारकों के हिसाब से करे.

प्रबंधन की संरचना और अधिकारियों निर्धारण या काम का बंटवारा काम के अनुरूप तकनीकी या प्रबंधकीय विशेषज्ञता के अनुसार होता है. इसीलिए बड़ी कंपनियों में अलग-अलग पदों पर अलग-अलग लोग नियुक्त होते हैं. छोटी कंपनियों में एक या दो लोग कई जिम्मेदारियां निभाते हैं. मुख्य बात यह है कि प्रबंधन संरचना काम और जवाबदेही के अनुरूप होती है. निश्चित रूप से सरकार का प्रबंधन बहुत जटिल होता है और उसमें बड़ी से बड़ी कंपनी, चाहे उसका प्रबंधन कितना भी पेशेवर तरीके से किया जाता हो, की तुलना में अनिश्चित स्तर पर जिम्मेदारियां होती हैं.

लेकिन राज्य के प्रबंधन को 39 कामकाजी जिम्मेदारियों में बांटना, जैसा कि मौजूदा समय में हो रहा है, उस गंभीरता और जटिलता को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ा कर देखना होगा. यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई वाहन कंपनी गाड़ियां बनाती हो और बेचती हो तथा इसमें गियर बॉक्स बनानेवाला पेंट या पुर्जे की जिम्मेदारी संभालनेवाले के स्तर पर रखा जाए. यही बहुत खराब स्थिति नहीं थी कि उत्पादन, विपणन या वित्त के प्रमुख को भी उसी स्तर पर रख दिया जाए. फिर भी इसी तरह से मंत्रिपरिषद को संगठित किया जा रहा है. ग्रामीण विकास या पंचायती राज के लिए उसी तरह से मंत्री हैं, जैसे कि सिंचाई या खाद मंत्री हैं, जो कृषि मंत्री के साथ बराबरी से बैठते हैं.

हम यह बात बखूबी जानते हैं कि हर तरह की खेती-किसानी ग्रामीण मामला है तथा ग्रामीण परिवेश में सब कुछ कृषि के इर्द-गिर्द ही घूमता है. इसलिए दोनों विभागों को अलग-अलग बांटना अजीब ही है. इसके अलावा कृषि पानी, खाद, खाद्य वितरण, खाद्य प्रसंस्करण, कृषि व ग्रामीण उद्योगों से भी संबंधित है. इस प्रकार, एक व्यक्ति को हमारे किसानों और ग्रामीण आबादी की बेहतरी का जिम्मा देने की जगह हमारे पास नौ अलग-अलग विभाग हैं, जिन्हें नौ मंत्री संभालते हैं. अक्सर वे एक-दूसरे के उद्देश्य से अलग काम करते हैं. अगर सभी मंत्री साथ चलना भी चाह रहे हों, तो भी यह लगभग असंभव है कि नौकरशाही के ढांचे को उसी गति से काम करने के लिए तैयार किया जाए.

ऐसे में अगर ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ा हुआ है, तो इसके लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है. पंडित जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में खाद्य और कृषि के लिए एक ही मंत्री था. इस मंत्री के पास खेती संबंधित एक ही विभाग नहीं था- सिंचाई. गुलजारीलाल नंदा के पास योजना, सिंचाई एवं ऊर्जा विभाग था, लेकिन उन दिनों अतिरिक्त बिजली पनबिजली परियोजनाओं से ही मुख्य रूप से मिल सकती थी. इसलिए सिंचाई को खाद्य एवं कृषि मंत्रालय से अलग रखना समझ में आता है. इसी तरह यातायात और रेलवे एक ही मंत्रालय हुआ करता था, जो अब पांच विभागों में बांटा जा चुका है. उनमें कुछ तो बहुत ही छोटे हैं. नागरिक उड्डयन मंत्रालय के पास अब बहुत कुछ बचा नहीं है. इसकी कंपनियों के पास प्रबंधक हैं. चूंकि इस मंत्रालय को न के बराबर नीति बनानी है, तो वह कंपनियों के प्रबंधन में लगा रहता है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की भी क्या आवश्यकता है, जब आकाशवाणी और दूरदर्शन से अधिक इसका कोई अर्थ नहीं है?

अब तक यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि 91वां संशोधन सरकार को प्रभावी बनाने के मुद्दे पर ध्यान न देने के कारण बहुत अच्छी पहल नहीं है. अब हमें 92वें संशोधन की आवश्यकता है, जो संविधान के अनुच्छेद 74(1) में थोड़ा बदलाव कर उसमें मंत्रियों के कामकाज और जवाबदेही को स्पष्ट कर दे. अनुच्छेद 75(1) के अनुसार, प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं. इसे यथावत रखते हुए हमें अनुच्छेद 75(5) पर नये सिरे से पुनर्विचार करना चाहिए तथा इस पर विचार-विमर्श करना चाहिए कि क्या मंत्री बनने के लिए संसद के किसी सदन, विधान सभा या विधान परिषद की सदस्यता अनिवार्य होने के प्रावधान को हटाया जा सकता है. हम प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को पेशेवर नेताओं तक ही सीमित रहने के बजाय पेशेवर और अनुभवी लोगों को मंत्री के रूप में नियुक्त करने के प्रोत्साहित कर सकते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें