जम्मू-कश्मीर की हालिया घटनाओं को आतंकवादी घटनाओं में बढ़ोतरी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. हादसे होते हैं, पर उनके आधार पर कहा जाने लगता है कि आतंकी घटनाएं बढ़ रही हैं, ऐसा नहीं है. आंकड़ों के आधार पर वार्षिक रुझानों पर नजर डालने की जरूरत है. इस वर्ष 24 जून तक ऐसी 47 घटनाएं हुई हैं, जिनमें मौतें हुई हैं- 15 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए, 10 नागरिकों की मौत हुई और 66 आतंकियों को मार गिराया गया. साल 2020 में 140 घटनाओं में 321 लोग मारे गये थे, जबकि 2019 में 135 घटनाओं में 283 मौतें हुई थीं. इन मौतों में सबसे अधिक संख्या आतंकियों की है.
पिछले साल 232, तो 2019 में 163 आतंकी मारे गये थे. यह जो माहौल बनाने की कोशिश हो रही है कि आतंकवाद बढ़ रहा है, इसका भी एक राजनीतिक मतलब है. बहरहाल, हादसे हो रहे हैं और आतंक को बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं. जहां तक कुछ दिन पहले जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री की बैठक का सवाल है, तो उससे राज्य में बदलाव का कोई संकेत नहीं दिखता है. केंद्र सरकार ने बीते दो साल में जम्मू-कश्मीर को लेकर जो नीतिगत पहलें की है, उनका भी कोई अब तक कोई ठोस नतीजा सामने आना बाकी है. चाहे वह 370 का मामला हो या वहां के नेताओं को गिरफ्तार करना और फिर रिहा करना.
बीते दिनों जो अहम घटना हुई है, वह सैन्य ठिकाने पर हमले के लिए ड्रोन के इस्तेमाल की है. उससे कोई खास नुकसान नहीं हुआ है, पर अगर कोई नयी बात जम्मू-कश्मीर के हालात में हुई है, तो वह ड्रोन का इस्तेमाल है. इससे इंगित होता है कि स्थिति एक नयी दिशा की ओर जा रही है या जा सकती है, लेकिन यह सोचना ठीक नहीं है कि राज्य में आतंकवाद बढ़ता जा रहा है. ड्रोन का इस्तेमाल दुनिया के अनेक इलाकों, जैसे- सीरिया, इराक, अफगानिस्तान आदि में आतंकवादी संगठन बीते पांच सालों से ड्रोन के जरिये हमले करते आ रहे हैं. उससे पहले पश्चिमी देश ड्रोन का उपयोग कर रहे थे.
यह एक हथियार है, एक तकनीक है, जिसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है. सवाल यह है कि आज हम क्यों ड्रोन के खतरे पर जाग रहे हैं. यह तो पांच साल पहले हमें समझ लेना चाहिए था कि यह हथियार देर-सबेर आतंकियों के हाथ लगेगा और उसके खिलाफ हमें जरूरी तैयारी करनी है, लेकिन हम तब सोकर उठते हैं, जब समस्या सामने आ चुकी होती है.
हमें अपनी रणनीतिक तैयारियों की प्रक्रिया पर आत्ममंथन करना चाहिए. रणनीतिक स्तर पर सुरक्षाबल जवाब नहीं दे सकते हैं. यह काम राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही को करना होता है. उन्हें ही निर्णय लेने होते हैं. इन दोनों तबकों में इस दिशा में पहल की कमी दिखती है. बार-बार राष्ट्रीय हित की बात करना अपनी जगह ठीक है, पर सवाल तो यह है कि राष्ट्रीय हित के लिए क्या किया जा रहा है.
अभी राज्य में गतिरोध की स्थिति है. फिलहाल जो करना है, वह सुरक्षाबलों को करना है. आतंकवाद को बहुत हद तक काबू में लाया गया है. यह स्थिति 2011-12 से ही है, जब आतंक पर लगभग नियंत्रण पा लिया गया था. तब कश्मीर के लोगों को साथ लेकर राजनीतिक समाधान की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता था. वह मौका अब नहीं है. अभी मुख्य रूप से आतंक के विरुद्ध कार्रवाई ही जारी रहेगी. बैठकें तो बहुत हो चुकी हैं.
इन कवायदों से मसले का हल नहीं निकलेगा और न ही पाकिस्तान से बात करने से कोई रास्ता निकलेगा, जिसकी फिर सुगबुगाहट शुरू हुई है. यह भी कहा जा रहा है कि विदेश से दबाव आ रहा है. अगर हम विदेशी दबाव में नीतियां बदल रहे हैं, तो फिर कहने के लिए क्या बच जाता है! यह स्पष्ट रूप से रणनीतिक दृष्टि का अभाव है.
कश्मीर और दक्षिण एशिया में स्थिरता के संदर्भ में अफगान शांति प्रक्रिया की चर्चा के हवाले में यह समझा जाना चाहिए कि उस प्रक्रिया में भारत की कोई भूमिका नहीं है. हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए. अफगानिस्तान में बदलती स्थितियों का भारत पर, खासकर कश्मीर में, क्या असर होगा, उसका अनुमान लगाना संभव नहीं है. अगर वहां गृहयुद्ध की स्थिति बनती है, तब तो बहुत अधिक असर इस तरफ नहीं होगा, क्योंकि सभी उसमें उलझे हुए होंगे. यह जरूर हो सकता है कि वहां ऐसे दावे हों कि इस्लाम ने अमेरिका को पराजित कर दिया.
इस्लामी कट्टरपंथी और अतिवादी यह प्रचार करने की कोशिश कर सकते हैं. वे यह दावा कर सकते हैं कि अगर वे अमेरिका को हरा सकते हैं, तो भारत को हराना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसे प्रचार से संभव है कि कुछ लोग भ्रम में पड़कर आतंकी समूहों से जुड़े और आतंकियों की भर्ती कुछ बढ़ जाये. दूसरा असर यह हो सकता है कि अगर तालिबान तकरीबन हावी हो जाता है अफगानिस्तान पर, तब पाकिस्तान के भेजे लड़ाके मुक्त हो जायेंगे.
पाकिस्तान उन आतंकियों को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है. वैसी स्थिति में कश्मीर और देश के अन्य हिस्सों में आतंकवाद के बढ़ने का खतरा पैदा हो जायेगा. पाकिस्तान यह सोच सकता है कि उनका तो अमेरिका तक कुछ नहीं बिगाड़ पाया, तो वह काबू से बाहर जा सकता है. अभी पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय दबाव से डरता है, पर अफगानिस्तान में बदलाव से उसका यह डर कम हो जायेगा. हालांकि वित्तीय दबाव उस पर तब भी रहेगा क्योंकि पाकिस्तान लगभग एक असफल राष्ट्र की स्थिति में है.
इस दबाव का प्रभाव रहेगा, पर कई तरीकों से यह होगा कि ऊपर से इस बात को नहीं स्वीकारते हुए चुपके-चुपके आतंकियों की घुसपैठ की वह कोशिश करेगा. ऐसे में हमारे लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं, लेकिन यह तभी होगा, जब तालिबान अफगानिस्तान पर हावी हो जायेगा.