भारत को अपने निर्वाचन आयोग पर गर्व है, जो एक स्वतंत्र प्राधिकार के तौर पर संसद और विधानसभाओं के निष्पक्ष चुनाव के लिए जिम्मेदार है. इसकी छवि निरपेक्ष होने की है और यह सुनिश्चित करता है कि मतदाता बिना भय वोट डाल सकें तथा उम्मीदवारों को बराबरी का मौका मिले. वर्ष 1950 की 26 जनवरी को भारतीय गणतंत्र की स्थापना के एक दिन पहले चुनाव आयोग का जन्म हुआ था.
इस संस्था को जनप्रतिनिधि कानून, 1951 के प्रावधानों के अनुसार काम करना होता है. इस कानून में संशोधन का अधिकार केवल संसद को है. एक उल्लेखनीय संशोधन था चुनाव याचिकाओं को ट्रिब्यूनल से उच्च न्यायालयों को हस्तांतरित करना. इसी के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की याचिका की सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हुई थी, जहां 1975 के उनके निर्वाचन को रद्द कर दिया गया था.
लेकिन इस कानून में बड़े संशोधन बहुत समय से लंबित हैं, मसलन- विधि आयोग की कई सिफारिशें लागू नहीं हुई हैं. चुनाव आयोग ने भी प्रधानमंत्री और सरकार को कुछ अहम सुधारों को संसद में पारित कराने के लिए पत्र लिखा है. इनमें से सबसे अहम सुझाव अपराधी उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने से रोकना है. इस संबंध में मौजूदा प्रावधान बहुत कमजोर हैं और वे दागी लोगों को चुने जाने से रोकने में विफल रहे हैं.
संसद से कार्रवाई न होने के कारण कुछ खामियों को ठीक करने के लिए अक्सर सर्वोच्च न्यायालय को दखल देना पड़ता है. इसी तरह मतपत्र पर नोटा का विकल्प, सजा पाये प्रतिनिधियों को पद से तुरंत हटाने, उम्मीदवारों द्वारा अपना आपराधिक रिकॉर्ड बताने जैसे प्रावधान लागू हो सके हैं, ये सब सुधार जनहित याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से हो सके हैं.
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के तहत लाने की जन इच्छा अब भी अदालतों में लंबित है. यह भी एक जरूरी सुधार है. जब भी संसद ने कुछ करने की कोशिश की है, उसका इरादा संदिग्ध रहा है. इसका एक उदाहरण राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए लाया गया इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला है. यह कानून चंदा देने और लेने वालों की पहचान जानना असंभव बना देता है तथा इसमें पारदर्शिता कहीं नहीं होती.
एक हालिया उदाहरण पिछले महीने किया गया एक संशोधन है, जो आधार संख्या को चुनाव आयोग द्वारा जारी वोटर पहचान पत्र से जोड़ने के बारे में हैं. यह संशोधन 20 दिसंबर को लोकसभा में बिना किसी चर्चा के तथा अगले दिन राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित हो गया, जबकि गिनती की जोरदार मांग हो रही थी. उस कार्यवाही के वीडियो से इंगित होता है कि विधेयक का पुरजोर विरोध था. जो भी हो, कई कारणों से वोटर आइडी को आधार से जोड़ने का मामला समस्याग्रस्त है.
सबसे पहले यह संशोधन 2018 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोधाभासी लगता है, जिसमें साफ कहा गया है कि आधार सभी नागरिकों के लिए अनिवार्य नहीं है. इसे केवल कल्याण योजनाओं के लाभार्थियों के लिए सीमित उद्देश्य से ही जरूरी बनाया जा सकता है. यह एक अहम फैसला था, जो सर्वोच्च न्यायालय की दूसरी सबसे लंबी सुनवाई के बाद आया था. दूसरी बात यह है कि आधार पहचान का एक प्रमाण है, नागरिकता का नहीं.
इसे कभी भी नागरिक होने का प्रमाण और मताधिकार की योग्यता नहीं होना था. मतदाता सूची तैयार करना चुनाव आयोग की अहम जिम्मेदारी है और इसे उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर की किसी एजेंसी को नहीं दिया जा सकता है. आधार प्राधिकरण चुनाव आयोग के नियंत्रण में नहीं है. मतदाता सूची में बदलाव का अधिकार चुनाव पंजीकरण अधिकारी को है और इसके लिए शारीरिक सत्यापन जरूरी है.
इसे आधार जैसे किसी अन्य प्राधिकार को नहीं सौंपा जा सकता है. जब 2015 में प्रायोगिक तौर पर निर्वाचन आयोग ने मतदाता पहचान पत्र से आधार को जोड़ने का काम शुरू किया था, तब सुप्रीम कोर्ट ने इसे रोक दिया था, लेकिन तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में इस प्रायोगिक परियोजना ने कुछ नुकसान पहुंचा दिया था. फोटो वाले मतदाता पहचान पत्र को आधार संख्या से जोड़ने के इस कार्यक्रम के कारण लाखों की संख्या में मतदाता प्रभावित हुए थे.
मतदाताओं के नामों के दोहराव को रोकने के प्रयास में तेलंगाना में लगभग 30 लाख और आंध्र प्रदेश में लगभग 21 लाख मतदाताओं का नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया था. इस मामले पर बहुत आपत्ति जतायी गयी थी. इनमें से किसी भी मतदाता को न तो अपना पक्ष रखने का अवसर दिया गया और न ही उनका नाम हटाने की प्रक्रिया ठोस सत्यापन पर आधारित थी, जैसा कि निर्वाचन आयोग आम तौर पर करता रहा है.
तीसरी बात कि भले ही मौजूदा संशोधन में कहा गया है कि आधार से वोटर पहचान को जोड़ना स्वैच्छिक है, पर यह साफ नहीं है कि इसका मतलब क्या है. यह जोड़ने की प्रक्रिया पंजीकरण के समय होगी या मतदान करते समय ऐसा किया जायेगा? अगर बायोमेट्रिक तरीके से आधार संख्या का सत्यापन नहीं होगा, तो कैसे होगा? इसे स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया है.
क्या चुनाव अधिकारी वोटर रिकॉर्ड पर टिक मार्क भर लगा देगा या फिर वहां आधार संख्या लिखी जायेगी? अगर ऐसा होगा, तो आधार संख्या निजता की बुनियादी जरूरत का उल्लंघन करते हुए सार्वजनिक हो जायेगी. कानून में लिखा गया है कि चुनाव अधिकारी को आधार संख्या नहीं दिखाने का कोई ठोस कारण देना होगा. इसका मतलब है कि साफ-साफ मना करना मंजूर नहीं किया जायेगा.