भारत बड़े वित्तीय घाटे से जूझ रहा है. इसकी आशंका दो कारणों से थी- कोरोना महामारी के चलते व्यापक खर्च और कर राजस्व में गिरावट. पिछले साल वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में इस घाटे का आकलन सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 3.5 प्रतिशत किया था, पर वास्तविक घाटा 9.3 प्रतिशत रहा. रुपये में यह आकलन से 10 लाख करोड़ अधिक रहा. इस कमी की भरपाई नये उधार से होनी है.
चालू वित्त वर्ष (2021-22) के बजट में घाटे का आकलन 6.8 प्रतिशत यानी 15 लाख करोड़ है. इसका भी अधिकांश नये कर्ज से पूरा किया जाना है. सरकार की योजना 12 लाख करोड़ रुपये उधार लेने की है, जो देश के परिवारों के कुल वित्तीय बचत के तीन-चौथाई हिस्से से भी अधिक है. नये उधार केंद्र सरकार के कर्ज में जुड़ते जा रहे हैं, जो अभी जीडीपी का 60 प्रतिशत है.
यह 14 वर्षों में सर्वाधिक है. वित्तीय उत्तरदायित्व पर एनके सिंह की अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की थी कि कर्ज का अनुपात जीडीपी का 40 फीसदी होना चाहिए. इसलिए मौजूदा हिसाब खतरनाक है और शायद इसे संभालना मुश्किल होगा. यह भी उल्लेखनीय है कि आज का उधार असल में भविष्य की अजन्मी पीढ़ियों पर एक कर है. आज जितनी लापरवाही से खर्च होगा, कल वित्तीय दायरा उतना ही कम होगा. इस स्थिति से बचने के लिए वृद्धि दर को बहुत अधिक बढ़ाना होगा.
इस पृष्ठभूमि में सरकार को राजस्व जुटाने या शासन करने, सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुख्य दायित्वों का त्याग किये बिना खर्च कम करने के अन्य रास्तों के बारे में गंभीरता से सोचना है. यह सच है कि कोष की उपलब्धता की दृष्टि से घाटे की स्थिति चिंताजनक है, लेकिन अगर हिसाब के नजरिये से देखें, तो मामला बेहतर है. सरकार के पास ऐसे खर्च की जिम्मेदारी है, जिसके लिए धन नहीं है, पर उसके पास ऐसी परिसंपत्तियां भी हैं, जिनका ‘मौद्रीकरण’ किया जा सकता है.
निश्चित रूप से हम ताजमहल या गेटवे ऑफ इंडिया को बेचने की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन उन परिसंपत्तियों का विनिवेश करने के बारे में दार्शनिक पहलू से बात हो सकती है, जिन्हें निजी क्षेत्र बेहतर ढंग से संचालित कर सकता है और सरकार की तुलना में अधिक मूल्य पैदा कर सकता है. दूरसंचार या केबल टीवी में क्रांति ने दिखाया है कि किसी क्षेत्र को निजीकरण किन ऊंचाइयों तक ले जा सकता है, जो दशकों तक राज्य के एकाधिकार में पिछड़ा रहा था, लेकिन लगातार आती सरकारों को ‘निजीकरण’ के वर्जित शब्द के उच्चारण में भी कठिनाई होती थी.
उस लक्ष्मण रेखा को इस वर्ष के बजट भाषण में लांघा गया. क्या यह आकांक्षा साकार हो सकेगी? इस संबंध में अतीत उत्साहजनक नहीं है. बीते सात वर्षों में निजीकरण (या विनिवेश) के लक्ष्य से उपलब्धि बहुत दूर रही है. मसलन, पिछले साल का लक्ष्य 2.1 लाख करोड़ रुपये था, पर उसका 10 प्रतिशत भी हासिल न हो सका. जिन वर्षों में लक्ष्य पूरा भी हुआ, तो ऐसा एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा दूसरे उपक्रम के शेयर खरीदने से हो सका, जो ऐसा था कि बायीं जेब से पैसा दायीं जेब में रखा जाए. याद रहे, सत्ताधारी दल ने न्यूनतम सरकार व अधिकतम शासन का वादा किया था.
गंभीर वित्तीय कमी को देखते हुए पाइपलाइन एक महत्वाकांक्षी विचार है. इसका लक्ष्य परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्र को स्थानांतरित (बेचना नहीं) करना है और नीलामी से भुगतान हासिल करना है. बजट भाषण में घोषित इस विचार का विवरण 23 अगस्त को प्रस्तुत किया गया, जिसमें 14 क्षेत्रों की परिसंपत्तियों को दिया जाना है. बहुत सी परिसंपत्तियां सीधे तौर पर सरकार की नहीं हैं, बल्कि विभिन्न उपक्रमों की हैं. जो राजस्व अर्जित होगा, वह केवल वित्तीय घाटे की भरपाई में नहीं जायेगा, बल्कि उपक्रमों को भी मिलेगा. अगले चार वर्षों में सरकार का आकलन छह ट्रिलियन रुपये हासिल करने का है, जिसमें से 0.88 प्रतिशत इसी साल अर्जित होगा.
निजीकरण के रिकॉर्ड को देखते हुए ये आंकड़े बहुत महत्वाकांक्षी और अवास्तविक हैं. यह भी कि अलग-अलग क्षेत्रों का जोखिम भी अलग-अलग है. सबसे अच्छी स्थिति टोल राजमार्गों की है, जिनसे पहले से ही हाईवे अथॉरिटी कमा रही है. नयी योजना में भी टोल का निर्धारण सरकार करेगी. तब क्या होगा, जब टोल हटाने के लिए राजनीतिक आंदोलन होगा? यह नोएडा टोल ब्रिज के मामले में हो चुका है, जो 2016 में टोल मुक्त हो गया.
ऐसा मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे के साथ भी हुआ है, जो सफल मौद्रीकरण का उदाहरण है, पर उसमें अनेक बाधाएं आती रही हैं. महामारी जैसी स्थिति में अगर लॉकडाउन हो जाए, तो ट्रैफिक शून्य होने पर जोखिम कौन उठायेगा? दीर्घकालिक ठेकों के अचानक खारिज करने के भी जोखिम हैं. इसका एक उदाहरण आंध्र प्रदेश है, जहां पिछली सरकार के बिजली खरीद के अनुबंधों को वर्तमान सरकार ने समाप्त कर दिया था.
ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिनके बारे में मौद्रीकरण पाइपलाइन के तहत होनेवाले समझौतों में स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिए. सैद्धांतिक तौर पर निजी क्षेत्र को लंबे समय तक टोल वसूलने का एकाधिकार होगा और इसके बदले उसे एकमुश्त भुगतान करना होगा. यह सवाल भी अहम है कि सेवा की गुणवत्ता किसे सुनिश्चित की जायेगी. कोई भी निजी उद्यमी राजनीतिक उथल-पुथल का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा. इस जोखिम से गुजरना आसान नहीं है.
तो क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि केवल ‘करीबी कारोबारी’ ही बोली लगायेंगे, क्योंकि वे ‘जोखिम को संभालने’ में बेहतर हैं या फिर कोई भीतरी लेन-देन भी संभावित है? ये वे अनिश्चितताएं हैं, जो राष्ट्रीय मौद्रीकरण पाइपलाइन में अवरोध हैं. ऐसे कारकों की वजह से आलोचक निश्चित रूप से सरकार पर परिसंपत्तियों (पुश्तैनी जेवर) को सस्ते में बेचने का या केवल अपने करीबी कारोबारियों को देने का आरोप लगायेंगे.
एक अहम सवाल यह है कि निजी कंपनियां इस परिसंपत्तियों से कमाई कैसे करेंगी. यदि छह ट्रिलियन में से अधिकांश बोली लगानेवालों से हासिल किया जाना है, तो यह धन बैंकों से उधार लेना होगा. क्या बैंक संबंधित जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं? और फंसे हुए कर्ज का जोखिम कौन उठायेगा? क्या यह करदाताओं के माथे पर पड़ेगा? राष्ट्रीय मौद्रीकरण सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की सहभागिता से संबंधित नयी पहल है. इसकी सफलता उन कारकों पर निर्भर है, जो इसके विस्तार में निहित हैं. और, संभावित निजी एकाधिकारों द्वारा सार्वजनिक परिसंपत्तियों को हथियाने का खतरा भी वास्तविक है और इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए.