यूक्रेन के संप्रभु क्षेत्र पर रूसी हमला यूरोप के लिए बेहद बुरी खबर है. इससे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की उस आस्था के लिए संकट पैदा हो सकता है, जिसे ‘यूरोप परियोजना’ की संज्ञा दी जाती है. कई दशकों से जारी इस परियोजना के तहत यह मान्यता है कि भाषा एवं जातीयता के आधार पर बने अलग-अलग देश अतीत के हिंसक संघर्षों के बावजूद पड़ोसी की तरह शांति से रह सकते हैं. छह दशक से अधिक समय तक ऐसा लगता रहा कि यह समझ कारगर है, हालांकि कभी-कभी कुछ हिंसा भी होती रही.
इस शांति काल को बोस्निया के जातीय जनसंहार और उसके बाद नाटो सेना द्वारा कोसोवो में भारी बमबारी से झटका लगा. फिर भी हाल तक ऐसा माना जाता रहा कि दो दर्जन से अधिक देशों के मिश्रित महादेश- यूरोप- का अस्तित्व इस बात का सबूत है कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है.
बर्लिन की दीवार बनने के तीन दशक बाद पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हुआ. यूरो को साझा मुद्रा के रूप में 19 देशों की स्वीकृति सद्भाव से रहने की आकांक्षा का प्रमाण है. छब्बीस देशों के शेंजेन समझौते का मतलब था कि कोई सीमा नियंत्रण नहीं होगा और लोगों का निर्बाध आवागमन होगा. मैस्ट्रिच संधि ने स्वैच्छिक वित्तीय अनुशासन और पूंजी के स्वतंत्र आवागमन को सुनिश्चित किया, जिस पर यूरोपीय संघ की 12 बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने हस्ताक्षर किया.
यूरोपीय संघ से ब्रिटेन का अलगाव बड़ा और अप्रत्याशित झटका था, पर इससे भी यूरोप परियोजना में आस्था पर असर नहीं हुआ. युद्ध को लेकर आशंकित यूरोप ऐसा कोई युद्ध नहीं चाहता था, जिसे संवाद व कूटनीति से टाला न जा सके. यूरोप परियोजना दुनियाभर के लिए आशा की किरण की तरह भी है, जो उन्हें बताती है कि शांतिपूर्ण सहअस्तित्व संभव है और युद्ध के बिना भी असहमतियों का समाधान हो सकता है.
वर्ष 2014 में रूस ने क्रीमिया के स्वायत्त गणराज्य को अपने में मिला लिया. रूस और संयुक्त राष्ट्र के कई सदस्य देश क्रीमिया को रूसी संघ का हिस्सा मानते हैं, पर यूक्रेन का दावा है कि क्रीमिया उसका क्षेत्र है. आस्था संरचना में एक घाव अभी हरा है. यूक्रेन पर वर्तमान हमला उस संरचना में घातक दरार पैदा कर सकता है. इसकी मरम्मत तो हो जायेगी, पर दाग बने रहेंगे और दिखते रहेंगे. यूरोप असहाय दिख रहा है और रूस को नहीं रोक सकता.
रूस के साथ उसके व्यापारिक संबंध हैं, पर वह यूक्रेन की संप्रभुता पर हमले का समर्थन भी नहीं कर सकता. पहले दिन के हमलों के बाद ही रूस ने संकेत दे दिया था कि वह बातचीत व समझौते के लिए तैयार है, पर वे बाद में इससे मुकर भी सकते हैं. संयुक्त राष्ट्र विश्व समुदाय को एकजुट कर रूस पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में है, लेकिन किसी प्रस्ताव के पारित होने की आशा नहीं है.
रूस स्वयं अपने विरुद्ध तो मतदान नहीं कर सकता है और चीन भी रूसी कार्रवाई की निंदा करने से परहेज करता रहेगा. भारत के सामने दोहरी चुनौती है- कूटनीतिक और आर्थिक. कूटनीति के स्तर पर रूस की कठोर निंदा करने के लिए उस पर अमेरिका और उसके सहयोगियों का दबाव है, लेकिन रूस के साथ भारत के ऐतिहासिक, सैन्य और कूटनीतिक संबंध हैं, जो आज भी भरोसेमंद सैन्य साजो-सामान और प्रशिक्षण मुहैया कराता है. रूस से अत्याधुनिक एस-400 मिसाइल सिस्टम की खरीद की भारतीय योजना से अमेरिका नाराज है और इस दिशा में प्रगति होने पर वह भारत के विरुद्ध कार्रवाई करने की धमकी दे सकता है.
जब भारत को सैन्य आपूर्ति और तकनीक देने की बात आती है, तो अमेरिका एक या दो पीढ़ी पुराने हथियार व तकनीक देने की पेशकश करता है, जो जल्दी ही अनुपयोगी हो सकते हैं. दूसरी ओर, अमेरिका ने ही नागरिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर कर भारत को परमाणु भेदभाव से उबारा था. उसके बाद दोनों देशों में सामरिक संवाद का व्यापक विस्तार हुआ तथा हाल में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया एवं भारत का चतुष्क (क्वाड) बना.
द्विपक्षीय व्यापार में भी लगातार प्रगति हो रही है. अमेरिका उन बहुत थोड़े देशों में हैं, जिनके साथ हमारा व्यापारिक लाभ है. इसकी बड़ी वजह सॉफ्टवेयर क्षेत्र में निर्यात है, लेकिन यह ध्यान भी रखना चाहिए कि बहुत सारा सॉफ्टवेयर निर्यात उन अमेरिकी कंपनियों द्वारा किया जाता है, जो भारत में स्थापित हैं.
अमेरिका के साथ निश्चित ही भारतीयों का एक सांस्कृतिक लगाव है और अब बहुत से भारतीय अमेरिकी वहां राजनीतिक और कॉरपोरेट नेता के रूप में सामने हैं. इसलिए भारत को यूक्रेन पर रूसी आक्रामकता के मामले में संतुलन साध कर चलना है. वह न तो निर्देशात्मक हो सकता है, न ही निंदा कर सकता है, लेकिन अपने सिद्धांतों को व्यक्त अवश्य कर सकता है कि ऐसी कार्रवाई अस्वीकार्य क्यों है.
अमेरिका के लिए इसे समर्थन दिखाना है, पर उसकी ओर बहुत झुकाव नहीं दिखाना चाहिए. उल्लेखनीय है कि गलवान में चीनी आक्रामकता के समय अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने बढ़-चढ़कर भारत का समर्थन नहीं किया था.
भारत के लिए दूसरी गंभीर चुनौती आर्थिक है. अगर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती हैं और उनका स्तर सौ डॉलर प्रति बैरल से अधिक बना रहता है, तो इसके चार असर होंगे. पहला, चालू खाता घाटे की स्थिति और बिगड़ेगी, दूसरा, मुद्रा विनिमय दर पर दबाव बढ़ेगा़ तीसरा, घरेलू मुद्रास्फीति बढ़ सकती है और चौथा, वित्तीय घाटा बहुत बढ़ सकता है, क्योंकि फर्टिलाइजर, रसोई गैस आदि चीजों के दाम सब्सिडी तेल के दाम पर निर्भर करता है.
इसके साथ निवेशकों की चिंता व बेचैनी, विदेशी निवेशकों द्वारा धन निकालना, फिर शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव और समूचे कारोबारी माहौल पर असर को जोड़ा जाना चाहिए. अर्थव्यवस्था और बाजार पर यूक्रेन का साया लंबा हो सकता है. जीवन बीमा निगम के आनेवाले शेयरों पर भी जोखिम हो सकता है. इन सभी का सामना आर्थिक नीति से आसानी से नहीं किया जा सकता है.
तेल के वैश्विक मूल्यों और विदेशी आयात पर निर्भर विकासशील देश होने के नाते भारत को इन असरों को किसी तरह सहना होगा. घरेलू अर्थव्यवस्था में गति आयी है और महामारी के बाद सुधार संतोषजनक है. केंद्रीय बजट में पूंजीगत खर्च बढ़ाने के संकेत हैं. इन सबके बावजूद यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यूक्रेन की लड़ाई का भारत की आर्थिक गतिशीलता पर नकारात्मक प्रभाव हो सकता है.