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चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति

चीन ने कानूनी पहल कर अपने कब्जे को और अपने दावों को एक वैधानिक आवरण देने की कोशिश की है, जो भारत की दृष्टि से बिल्कुल अवैध प्रयास है.

सभी पड़ोसी देशों में चीन के साथ हमारी सीमा लगभग साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी है. यह सीमा दशकों से विवादित भी रही है. चीन इन विवादों को सुलझाने की जगह अपने क्षेत्रीय विस्तार और आक्रामकता की नीति में विश्वास रखता है. उसने अपनी सीमाओं के स्थायित्व के बारे में कुछ दिन पहले जो नया कानून बनाया है, उसे इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए. इसे समझने के लिए हमें वर्तमान परिस्थितियों पर नजर डालनी पड़ेगी.

उसके पास न केवल हथियाई हुई हमारी जमीन है, बल्कि पाकिस्तान ने 1963 के समझौते के तहत उसे पाक अधिकृत कश्मीर का एक हिस्सा दिया है. यह सब अवैध कब्जे हैं. भारत सीमा पर और इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता का पक्षधर रहा है, इसलिए प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी और पीवी नरसिम्हा राव ने चीन के दौरे किये तथा कई स्तरों की बातचीत के बाद दोनों देशों के बीच समझौते हुए, जिनमें आपसी भरोसा बढ़ाने की कोशिशों का प्रावधान है तथा सीमा विभाजन को स्पष्ट करने का निर्णय लिया गया था.

उस समय भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया था, लेकिन चीन की ओर से इसका ठीक से पालन नहीं हुआ और उनकी ओर से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की लगातार कोशिशें होती रही हैं. बीते सत्रह माह से लद्दाख में जो हो रहा है, वह दुनिया के सामने है. ऐसी हरकत कुछ साल पहले दोकलाम में हुई थी.

पिछले कुछ समय से चीन अपनी बेल्ट-रोड परियोजना को बढ़ा रहा है. इसका एक अहम हिस्सा है चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा. कश्मीर का जो हिस्सा पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है, उसे भी वे इस आर्थिक गलियारे से जोड़ना चाहते हैं. संप्रभुता के आधार पर भारत इसका विरोध करता रहा है. जब जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 में बदलाव हुआ, तब पाकिस्तान और चीन ने उस पर आपत्ति जतायी थी.

अब जो सीमा से जुड़ा कानून चीन ने पारित किया है, उसका मतलब यही है कि जो विवादित क्षेत्र हैं, जिनके ऊपर भारत-चीन की समितियां बनी हुई हैं, उन्हें चीन अपने स्वामित्व में लाने की घोषणा कर रहा है. इस कानून में चीन की एकता और अखंडता की बात कही गयी. यह कानून पूरी तरह से चीन की एकतरफा कार्रवाई है. हम हमेशा से कहते रहे हैं कि एक स्पष्ट नक्शा बनाया जाना चाहिए. यह कहानी 1959 से ही शुरू हुई है.

तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन के दावों को नहीं माना था. बाद में शांति और स्थिरता के लिए भारत ने चीन के साथ एक समझ बनाने की कोशिश की. उसके तहत यह तय हुआ कि परिपक्व देश और पड़ोसी होने के नाते हम बातचीत करते रहेंगे, लेकिन जब गलवान की घटना हुई, तब हमने उनके घुसपैठ को देखा और चार दशक बाद संघर्ष की स्थिति पैदा हो गयी. यह मसला कई चरणों की बातचीत के बावजूद सुलझ नहीं सका है.

इस पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि चीन की मंशा अधिक-से-अधिक जमीन कब्जा करने की है. सीमा क्षेत्र में वह लगातार अपना इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित कर रहा है, पर वह यह भी समझ गया है कि भारत की प्रतिक्रिया भी उसकी हरकतों के हिसाब से होगी. अगर वे 50 हजार सैनिक जुटायेंगे, तो हमारे भी उतने सैनिक वहां बहाल होंगे. हमारा भी इंफ्रास्ट्रक्चर बन रहा है. ऐसे में चीन ने आंतरिक रूप से एक कानूनी पहल की है कि वह अपने कब्जे को और अपने दावों को एक वैधानिक आवरण दे दे, जो भारत की दृष्टि से बिल्कुल अवैध प्रयास है.

भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सटीक बात कही है कि चीन के नये सीमा कानून से अब तक के समझौतों और सहमतियों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. मेरा मानना है कि चीन इस कानून की आड़ में भारत के साथ फिर से कोई नयी समस्या खड़ा करना चाहता है.

इस संदर्भ में हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि चीनी सेना ही इन सभी मसलों का संचालन कर रही है. इस कानून से भी उसे अधिक विशेषाधिकार प्राप्त होंगे. चीनी सत्ता पर काबिज कम्यूनिस्ट पार्टी और सेना के बीच में गहरी नजदीकी है तथा उसे कई अधिकार मिले हुए हैं. सीमावर्ती क्षेत्रों में पहले से ही चीन ने बहुत निर्माण कार्य किया है. इस कानून के बाद अब सेना और अधिक बंकर और बस्तियां बनायेगी. निश्चित रूप से भारत के लिए यह एक चुनौती है और उससे निबटने की कोशिश करनी होगी.

इस कानून को नामंजूर कर भारत ने सही कदम उठाया है. हमारी ओर से कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों की चौकसी होती है, पर अब इसका दायरा बढ़ाना होगा, क्योंकि चीन हर जगह अपनी दखल बढ़ाने की कोशिश करेगा. इसलिए भारत को पूरी तरह मुस्तैद रहना पड़ेगा. साथ में यह भी जरूरी है कि सीमा से संबंधित मसलों पर बातचीत भी जारी रहनी चाहिए, ताकि सीमा विभाजन को स्पष्ट किया जा सके. मेरा मानना है कि सेना को चौकस रहना होगा तथा सैटेलाइट के जरिये पूरी सीमा की निगरानी होनी चाहिए. इन प्रयासों के साथ अन्य मित्र देशों से भी हमें चर्चा करनी चाहिए और उन्हें चीन के रवैये के बारे में आगाह करना चाहिए तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी इस मामले को उठाना चाहिए.

उल्लेखनीय है कि चीन का सीमा और समुद्री विवाद 23 देशों के साथ है. इससे इंगित होता है कि चीन अपने वर्चस्व और विस्तार के लिए किस हद तक आक्रामक रुख अपनाये हुए है. इसी हरकत की वजह से क्वाड, ऑकस आदि जैसे समूहों का गठन हो रहा है, ताकि उसकी आक्रामकता पर अंकुश लग सके. साउथ और ईस्ट चाइना सी समेत हिंद-प्रशांत क्षेत्र को चीन अपनी मिल्कियत मान बैठा है. उसका यही रवैया हमारी सीमा पर है, लेकिन उसकी मर्जी से चीजें नहीं चल सकती हैं.

द्विपक्षीय समझौतों के साथ अनेक अंतरराष्ट्रीय कायदे-कानून भी हैं, जिन्हें चीन नजरअंदाज नहीं कर सकता है. दरअसल, वह पूरी दुनिया में अपने प्रति नाराजगी पैदा करता जा रहा है. सीमा विवाद लड़ाई से हल नहीं किये जा सकते. भारत और बांग्लादेश ने शांतिपूर्ण तरीके से अपने विवाद सुलझा लिये हैं, लेकिन चीन का हाल यह है कि फिलीपींस के एक द्वीप पर कब्जे को जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने खारिज किया, तो उसने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया. साफ है कि वह अपनी बड़ी ताकत का रौब दिखाना चाह रहा है. समूची दुनिया को इस बात का गंभीरता से संज्ञान लेना चाहिए तथा समाधान के प्रयास करने चाहिए.

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