विधानसभा चुनाव नतीजों के निहितार्थ
इन चुनावों का संदेश साफ है कि जनता में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता कायम है. लोकसभा चुनाव से पहले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की जो स्थिति है, वह उसके लिए शुभ संकेत नहीं है.
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने लगातार जीत का दोहरा शतक लगा दिया है. राज्य में इससे पहले किसी पार्टी ने लगातार दोबारा इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं की है. उत्तर प्रदेश में जाति और विकास का जो मॉडल भाजपा ने पेश किया था, वह सफल रहा. किसी भी चुनावी जीत में कई मुद्दों का योगदान होता है. उत्तर प्रदेश का यह चुनाव व्यक्ति केंद्रित था.
इसके केंद्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी थे, तो उनका मुकाबला समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से था. इस चुनाव में अन्य पार्टियां सहायक की भूमिका निभा रही थीं. व्यक्ति केंद्रित इस चुनाव में नरेंद्र मोदी-योगी सब पर भारी पड़े और उनकी बातों और वादों को जनता ने ज्यादा प्रमाणिक माना और अखिलेश की बातों को नकार दिया.
माना जा रहा था कि किसान आंदोलन को लेकर लोगों में भाजपा के खिलाफ भारी गुस्सा है और वे इसका इजहार चुनाव में करेंगे. यह सही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की नाराजगी का असर नतीजों पर नजर आया, लेकिन यह नाराजगी नतीजों को व्यापक रूप से प्रभावित नहीं कर सकी. यह बात भी साफ हो गयी कि जनता का प्रधानमंत्री मोदी और योगी पर भरोसा कायम है.
इस चुनाव ने सपा नेता अखिलेश को पूरी तरह से स्थापित कर दिया है. उनकी सभाओं में भारी भीड़ जुटी. उन्होंने इस बार मजबूत गठबंधन तैयार किया और वे भाजपा को कड़ी चुनौती देते नजर आये. मुलायम सिंह अब यूपी की राजनीति में नेपथ्य में चले गये हैं. इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी का पिछड़ना एक अहम बात है. जो पार्टी एक दौर में सियासी दौड़ में सबसे आगे रहती थी, वह चुनावी दौड़ में फिसड्डी नजर आ रही है. मायावती भी नेपथ्य में चली गयी हैं.
कांग्रेस के लिए हार कोई नयी बात नहीं है. पार्टी कुछ समय से लगातार चुनाव हार रही है. उनके लिए हार अब कोई बड़ा झटका नहीं है. किसी दौर में उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के मजबूत नेता रहे हैं, जिनमें से कई ने केंद्र में भी अहम जिम्मेदारी संभाली है, लेकिन आज नेता ऊहापोह की स्थिति में हैं. जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जैसे युवा नेता भाजपा में चले गये हैं. यह स्थिति केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर भी नेता उलझन में हैं.
कांग्रेस नेतृत्व कोई स्पष्ट दिशा, सोच और भविष्य का खाका पेश नहीं कर पा रही है. कहने का आशय यह है कि ऊपर से नीचे तक नेतृत्वहीनता का असर दिख रहा है. इस बार उत्तर प्रदेश में पार्टी की बागडोर खुद प्रियंका गांधी ने संभाली थी. वे नये तेवर में नजर आ रही थीं. बावजूद इसके हालत और खराब हो गयी. हां, यह सही है कि प्रियंका की मेहनत ने कांग्रेस की मूर्छा को जरूर तोड़ा है, लेकिन कांग्रेस लोगों से जुड़ नहीं पा रही है. राज्य सरकारों को लेकर लोगों की जो स्वाभाविक नाराजगी होती है, उसे भी वह अपने पक्ष में नहीं कर पायी.
कांग्रेस ने पंजाब में सत्ता खोयी और उत्तराखंड में चुनौती न दे सकी. केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने पंजाब में बड़ी जीत हासिल की और कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया है. आम आदमी पार्टी ने तो पंजाब में सभी दलों का सूपड़ा साफ कर दिया. पिछले कुछ समय से पंजाब कांग्रेस में आपसी सिर फुटव्वल की खबरें खूब सामने आ रही थीं. तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्नी और पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच खींचतान किसी से छुपी हुई नहीं थी.
कांग्रेस से निकले पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह कांग्रेस के खिलाफ अलग मोर्चा खोले हुए थे, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व हस्तक्षेप कर कोई समाधान नहीं निकाल पाया. जैसा कि कांग्रेसी भी कहते हैं कि उन्हें विरोधियों की जरूरत नहीं होती, उनकी पार्टी के लोग ही इस कमी को पूरा कर देते हैं. उत्तराखंड के नतीजे भी चौंकाने वाले रहे. वहां एक बार भाजपा तो अगली बार कांग्रेस की सत्ता का क्रम चलता है.
वहां कांग्रेस के हरीश रावत लोकप्रिय नेता हैं, बावजूद इसके पार्टी हार गयी. गोवा जैसे छोटे राज्य में खूब राजनीतिक उठापटक देखने को मिलती है. वहां भाजपा में भी समस्याएं थीं. सरकार के कामकाज को लेकर लोगों की जो स्वाभाविक नाराजगी थी, उसे भी कांग्रेस अपने पक्ष में नहीं कर पायी और भाजपा सत्ता वापसी करने में सफल रही. मणिपुर में भाजपा की जीत से साफ है कि पूर्वोत्तर राज्यों में भी पार्टी अपने पांव पसार रही है.
इन पांच विधानसभा चुनावों में हार ने कांग्रेस को बेहद कमजोर कर दिया है. किसी भी लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी होता है. उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. कांग्रेस की एक दिक्कत और है कि विचारधारात्मक और प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर पार्टी का क्या रुख है, पार्टी नेताओं को यह स्पष्ट नहीं है. सबकी अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग है. पार्टी की हालत ऐसी है कि आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों को तो छोड़िए, वह अपना भविष्य तक तय करने की स्थिति में नहीं है.
वर्ष 1885 में स्थापित कांग्रेस पार्टी आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है. राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था और उसके बाद सोनिया गांधी ने अंतरिम तौर से फिर नेतृत्व संभाला था. उसके बाद से कांग्रेस के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है. चुनाव नतीजों से एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि लगातार प्रयासों के बावजूद राहुल गांधी को जनता कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.
एक और संदेश साफ है कि वंशवाद की राजनीति का दौर उतार पर है, इसे जितनी जल्दी कांग्रेस स्वीकार कर लेगी, उतना उसके लिए बेहतर होगा, लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद नहीं रहेगा. दरअसल, समस्या यह भी है कि कांग्रेस को बिना नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के काम करने की आदत नहीं रही है और यही वजह है कि पार्टी की यह स्थिति है.
दूसरी ओर भाजपा को देखें. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह जैसे ही गृह मंत्री बने, तत्काल जेपी नड्डा ने कार्यकारी अध्यक्ष का पद संभाल लिया. बहरहाल, इन चुनावों का संदेश साफ है कि जनता में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता कायम है. लोकसभा चुनावों में अब करीब दो साल बचे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यह जीत आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक मजबूत आधार प्रदान करेगी और इसी बुनियाद पर 2024 में भाजपा फिर से जीतने की कोशिश करेगी. लोकसभा चुनाव से पहले मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की जो स्थिति है, वह उसके लिए शुभ संकेत नहीं है.