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विवाह उम्र बढ़ाने की सराहनीय पहल

आज भी आखा तीज के मौके पर राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में बाल विवाह होते हैं. दुनिया बदल गयी, लेकिन हम बदलने को तैयार नहीं हैं.

केंद्र सरकार लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 18 से 21 साल करने पर विचार कर रही है. अभी शादी की न्यूनतम उम्र लड़कों के लिए 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल है. इसे समान करने पर विचार किया जा रहा है. सरकार लंबे समय से इस पर काम कर रही है और खबरें हैं कि जल्द ही इस विषय में फैसला लिया जा सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में इसका उल्लेख करते हुए कहा था कि लड़कियों की शादी की उम्र को लेकर समीक्षा की जा रही है.

इसके बाद जया जेटली की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की टास्क फोर्स का गठन किया गया. भारत में बाल विवाह की कुप्रथा गहरे से समायी हुई है. इसे रोकने के लिए जब आजादी के पहले उम्र में बदलाव किया गया था, तब भी इसका विरोध करनेवाले कम नहीं थे. इसे निजी मामलों में हस्तक्षेप और न जाने क्या क्या कहा गया था. उस वक्त कम उम्र में शादी रोकने के लिए कोई कानून नहीं था.

हरविलास सारदा एक शिक्षाविद, न्यायाधीश और समाज सुधारक थे. साल 1927 में उन्होंने बाल विवाह रोकने का प्रस्ताव पेश किया. इसमें लड़कों के लिए न्यूनतम उम्र 18 और लड़कियों के लिए 14 साल करने का प्रस्ताव था. साल 1929 में यह कानून बना और इसे उनके ही नाम पर सारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है. उस वक्त ऐसा कानून आना बहुत बड़ी बात थी.

इस कानून में 1978 में संशोधन कर लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र 21 साल और लड़कियों के लिए 18 साल कर दी गयी, मगर तब भी बाल विवाह नहीं रुका. फिर 2006 में बाल विवाह रोकथाम कानून लाया गया. इसमें बाल विवाह करानेवालों के खिलाफ दंड का भी प्रावधान हुआ. मौजूदा कानून में बाल विवाह पर दो साल जेल की सजा और एक लाख रुपये जुर्माने का प्रावधान है.

कड़ी सजा के प्रावधान के बावजूद बाल विवाह की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लोग कानून की परवाह नहीं करते. आज भी आखा तीज के मौके पर राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में बाल विवाह होते हैं. दुनिया बदल गयी, लेकिन हम बदलने को तैयार नहीं हैं. अगर आप गौर करें, तो पायेंगे कि शहरी लड़कियां 26 से 28 वर्ष की आयु में ही शादी करती नजर आ रही हैं. वे नौकरियां कर रही हैं और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं.

वे अपने जीवन के फैसले खुद कर रही हैं. होता यह आया है कि जब करियर बनाने का समय आता है, तब अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है. विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में महिलाओं की नौकरी छोड़ने की दर बहुत अधिक है. इसका एक बड़ा कारण शादी है. देखा गया है कि नौकरी छोड़ने के बाद ज्यादातर महिलाएं नौकरी पर नहीं लौटती हैं. एक सकारात्मक बात यह सामने आयी है कि दुनियाभर में विवाह की औसत उम्र कुछ बढ़ी है और बच्चों की जन्म दर कुछ कम हुई है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्थिति विपरीत है.

वहां कच्ची उम्र में ही लड़कियों की शादियां जारी हैं. नतीजतन लड़कियां जल्द मां बन जाती हैं और उसका खामियाजा उन्हें और उनके बच्चे, दोनों को उठाना पड़ता है.

यह भी गौरतलब है कि इस देश की एक बहुत बड़ी समस्या है शादी. बेटा हो या बेटी, मां-बाप शादी को लेकर बहुत परेशान रहते हैं. जहां सयाने बच्चे हैं, वहां लगातार इस पर चर्चा होती है. बच्चे अपने आप शादी कर लें, तो परेशानी और न करें, तो परेशानी. अंतरजातीय शादियां तो धीरे-धीरे स्वीकार्य हो चली हैं, लेकिन अंतरधर्मीय विवाह को लेकर अब भी बड़ी समस्या है.

भारतीय समाज में शादी एक बड़ा आयोजन है. समाज की इस समस्या को बॉलीवुड ने बहुत पहले ही पकड़ लिया था. कई बड़े फिल्म निर्माताओं की फिल्मों की कहानी केवल एक लाइन की है- लड़का व लड़की हैं और उनकी शादी करानी है. कभी लड़का-लड़की गरीब-अमीर हैं और एक पक्ष तैयार नहीं है, तो कभी लड़का-लड़की भारतीय व पाकिस्तानी हैं, तो कभी दोनों अलग-अलग राज्यों से हैं. बॉलीवुड की शादियों में विलेन बहुत बाधाएं उत्पन्न करता है, लेकिन अंत सुखद रहता है और शादी हो जाती है.

इसमें कोई शक नहीं है कि यह जीवन का अहम फैसला है और दो युवाओं का जीवन इससे जुड़ा हुआ होता है. समाज के नजरिये में बदलाव तो आया है, पर उसकी रफ्तार धीमी है. हाल में देश ने नम आंखों से अपने पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्‍टाफ को विदाई दी. जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी के पार्थिव शरीर को उनकी बेटियों- कृतिका और तारिणी- ने मुखाग्नि दी. बेटियों के कहने पर ही ऐसा किया गया.

जिस भारतीय समाज में आज भी लोग बेटे-बेटियों में फर्क करते हैं, उसमें यह निश्चिय ही एक अहम संदेश है कि दोनों बराबर हैं. मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के जोवा गांव की निवासी आइएएस तपस्या परिहार ने अपने एक साथी अधिकारी गर्वित गंगवार से शादी की है. तपस्या परिहार ने शादी में कन्यादान कराने से इनकार कर दिया. उन्होंने अपने पिता से कहा कि वे दान करने की चीज नहीं हैं, वे उनकी बेटी हैं और हमेशा रहेंगी. तपस्या परिहार एमपी कैडर और उनके पति गर्वित गंगवार तमिलनाडु कैडर के अधिकारी हैं.

महिला सशक्तीकरण के लिए कार्यरत संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएन वीमेन ने ‘महिलाओं की प्रगति 2019-2020 : बदलती दुनिया में परिवार’ विषय से एक रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें विश्व भर से आंकड़े एकत्र कर परिवारों की मौजूद परंपराओं, संस्कृति और मनोवृत्तियों का अध्ययन किया गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में महिलाओं के वजूद और अधिकारों को नकारने का चलन देखा जा रहा है. यह सब परिवार की संस्कृति और मूल्यों को बचाने के नाम पर किया जाता है.

हर पांच में से एक देश में लड़कियों को लड़कों के समान संपत्ति और विरासत के अधिकार नहीं हैं. लगभग 19 देशों में महिलाओं को पति का आदेश मानने की कानूनी बाध्यता है. विकासशील देशों में लगभग एक-तिहाई विवाहित महिलाओं को अपने स्वास्थ्य के बारे में खुद निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. परिस्थितियों में भारी बदलाव के बावजूद भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो मानते हैं कि बेटी को ज्यादा पढ़ा-लिखा देने से शादी में दिक्कत हो सकती है. ऐसे लोग भी बहुत हैं, जो करियर के बजाय शादी को ध्यान में रख कर शिक्षा दिलवाते हैं. इस मानसिकता में बदलाव की जरूरत है.

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