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पर्यावरण के मुद्दे पर औपनिवेशिक सोच

अमीर मुल्कों को अपनी इस औपनिवेशिक सोच से बाहर आना होगा कि वे दुनिया के शासक हैं और कुछ कर सकते हैं. नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग से ये अमीर मुल्क भी अछूते नहीं रहेंगे.

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण सम्मेलन ‘सीओपी-26’ ग्लासगो में संपन्न हुआ. पर्यावरण के महत्व को समझते हुए स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें भाग लिया. प्रधानमंत्री ने पांच बिंदुओं में पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्यक्त किया, जिसे पंचामृत का नाम दिया गया. उसमें 2030 तक गैर जीवाश्म ऊर्जा की क्षमता को 500 गीगावॉट तक बढ़ाना, अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के 50 प्रतिशत की आपूर्ति नवीनीकरण स्रोतों से पूर्ण करना, कार्बन उत्सर्जन को एक अरब टन तक घटाना, कार्बन सघनता को 45 प्रतिशत तक कम करना और 2070 तक देश को ‘कार्बन न्यूट्रल’ बनाना शामिल है.

पर्यावरण संकट मानवता के अस्तित्व से जुड़ा है. भारत में हिमालयी क्षेत्र उत्तराखंड के पहाड़ों पर बादलों के फटने, कहीं कम वर्षा और कहीं ज्यादा वर्षा, सूखा और बाढ़, धुएं के कारण अस्त-व्यस्त होता जीवन, आज देश के हर व्यक्ति को प्रभावित कर रहा है. बढ़ते समुद्र के स्तर के कारण छोटे द्वीपों पर जीवन संकट में है. पर्यावरण के कारण भी बड़ी मात्रा में विस्थापन बढ़ रहा है. समय रहते यदि नहीं चेते, तो आनेवाले कुछ दशकों में ही पृथ्वी रहने योग्य स्थान नहीं रहेगी.

इसी के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में पर्यावरण सम्मेलनों का आयोजन वर्ष 1994 से चल रहा है, जिसे ‘यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाइमेट चेंज’ भी कहा जाता है. ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के अनुसार, विभिन्न देशों ने अपनी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किये. अल्प विकसित एवं विकासशील देशों को कुछ समय के लिए इन गैसों के उत्सर्जन को घटाने की जिम्मेदारी से छूट भी दी थी.

पेरिस पर्यावरण सम्मेलन-2015 के बाद भारत ने गैसों के उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया था, लेकिन भारत ने यह भी स्पष्ट किया था कि विकसित देश भारत पर पर्यावरणीय असंतुलन या ग्लोबल वार्मिंग का ठीकरा फोड़ने की कोशिश न करें. आज दुनिया पिछले 100 वर्षों में जो हुआ, उसका परिणाम भुगत रही है. जहां मौसम परिवर्तन के लिए अमेरिका की जिम्मेदारी 40 प्रतिशत है, यूरोप की 10 प्रतिशत, चीन की 28 प्रतिशत है, वहीं भारत केवल तीन प्रतिशत के लिए ही जिम्मेदार है.

भारत ने तब भी यह कहा था कि चीन समेत अमीर मुल्कों की जिम्मेदारी अधिक है. कोपेनहेगन में गरीब मुल्कों को पर्यावरण संकट से निबटने के लिए 100 अरब डॉलर उपलब्ध कराने का वचन दिया था, लेकिन वह राशि कहीं दिखाई नहीं दे रही. जहां सीओपी-26 के अंतिम दस्तावेज में उस 100 अरब डॉलर की सहायता की बात को तो तूल ही नहीं दिया गया है, बल्कि भारत (और चीन) पर सारा दोष मढ़ने की कोशिश हो रही है.

ग्लासगो पर्यावरण सम्मेलन के अंतिम दस्तावेज में अमीर मुल्कों ने कोयले के उपयोग को समाप्त करने की शर्त को शामिल कर दिया और भारत ने जब उसके लिए मना किया, तो भारत को बेजा ही बदनाम करने की कोशिश शुरू हो गयी है कि वह पर्यावरण सुधार के रास्ते में रोड़ा बन रहा है.

पश्चिम का मीडिया भारत द्वारा अंतिम दस्तावेज की शर्त नहीं मानने के कारण उसे पर्यावरण संकट का खलनायक बनाने की कोशिश कर रहा है. वास्तविकता यह है कि ऐतिहासिक रूप से पर्यावरण संकट के लिए अमेरिका, यूरोप और चीन आदि मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं. भारत का कहना है कि केवल कोयला ही नहीं, बल्कि अन्य जीवाश्म ईंधन, जैसे पेट्रोलियम और गैस भी उतने ही जिम्मेदार है. चूंकि अमेरिका और यूरोप को उन्हें इस्तेमाल करने में फायदा है, उनके द्वारा उत्सर्जन को कम करने का कोई जिक्र भी अंतिम दस्तावेज में नहीं किया गया है, जो कि सर्वथा अनुचित है.

आज जब विकसित देश पर्यावरण संधि में भारत को रोड़ा बता रहे हैं, उन्हें अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा कि वर्तमान पर्यावरण संकट का कारण उन देशों का अनियंत्रित उपभोग है. यह इस बात से परिलक्षित होता है कि केवल अमेरिका और यूरोप जहां दुनिया की कुल आबादी का मात्र 14 प्रतिशत ही हैं, पिछले 100 वर्षों के ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी हैं. यही नहीं, आज भी भारत में प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन मात्र 1.77 मीट्रिक टन है, जबकि अमेरिका में यह 14.24 मिट्रिक टन और इंग्लैंड में 4.85 मीट्रिक टन है, चीन में भी प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 7.41 मीट्रिक टन है, जो भारत से कहीं अधिक है.

विकसित देशों में अत्यधिक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का मुख्य कारण अनियंत्रित उपभोग है, जो उनकी जीवनशैली के कारण है. वर्तमान पर्यावरण संकट विकसित देशों में जीवनशैली को न बदलने की जिद के कारण है. इन देशों के लोगों और उनके नेतृत्व को विचार करना होगा कि वर्तमान पर्यावरण संकट से पार पाने के लिए उन्हें अपने उपभोग पर नियंत्रण करना होगा. चाहे वह विषय विश्व के तापमान का हो, औद्योगिकीकरण से पूर्व के तापमान से 1.5 डिग्री से ज्यादा न बढ़ने देने की मंशा हो अथवा धुएं में कमी की बात हो, उसके लिए उपभोग पर नियंत्रण ही एकमात्र उपाय है.

इसके अलावा, भारत एवं अन्य विकासशील देशों और अल्पविकसित देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग को कम करने हेतु जो प्रयास करने पड़ेंगे, उसके लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग की जरूरत होगी. यह प्रौद्योगिकी विकसित देशों के पास ही उपलब्ध है, जिसे साझा करने के लिए वे भारी-भरकम कीमत चाहते हैं.

उधर विकासशील एवं अल्पविकसित देशों को नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि का उपयोग बढ़ाना होगा, जिसके लिए उन्हें और अधिक निवेश तथा प्रौद्योगिकी की जरूरत होगी. समय की मांग है कि यदि धरती को जीवन योग्य रखना है, तो विकसित देशों को अपने संसाधनों और प्रौद्योगिकी को उसके लिए उपलब्ध कराना होगा. अमीर मुल्कों को अपनी इस औपनिवेशिक सोच से बाहर आना होगा कि वे दुनिया के शासक हैं और कुछ भी कर सकते हैं. नहीं भूलना चाहिए कि ग्लोबल वार्मिंग से ये अमीर मुल्क भी अछूते नहीं रहेंगे.

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