‘ठनका’ से निबटने की चुनौती

आकाशीय बिजली की शुरुआत बादलों के एक तूफान के रूप में एकत्र होने से होती है. बढ़ते तूफान के केंद्र में, बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े और पानी की ठंडी बूंदें आपस में टकराती हैं और इनके बीच विपरीत ध्रुवों के विद्युत कणों का प्रवाह होता है. वायु के अच्छा संवाहक नहीं होने से विद्युत आवेश में बाधाएं आती हैं.

By पंकज चतुर्वेदी | July 6, 2021 7:46 AM

आकाशीय बिजली की शुरुआत बादलों के एक तूफान के रूप में एकत्र होने से होती है. बढ़ते तूफान के केंद्र में, बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े और पानी की ठंडी बूंदें आपस में टकराती हैं और इनके बीच विपरीत ध्रुवों के विद्युत कणों का प्रवाह होता है. वायु के अच्छा संवाहक नहीं होने से विद्युत आवेश में बाधाएं आती हैं.

अतः बादल की ऋणावेशित निचली सतह को छूने का प्रयास करती धनावेशित तरंगें भूमि पर गिर जाती हैं. धरती बादलों के बीच की परत की तुलना में अपेक्षाकृत धनात्मक रूप से चार्ज होती है. इस तरह पैदा हुई बिजली का अनुमानित 20-25 प्रतिशत प्रवाह धरती की ओर हो जाता है. भारत में हर साल दो हजार लोग इस तरह बिजली गिरने से मारे जाते हैं, मवेशी और मकान आदि का भी नुकसान होता है.

मॉनसून की आमद होते ही बीते एक सप्ताह में पश्चिम बंगाल में बिजली गिरने से 27 लोगों की मौत हो गयी और 30 से अधिक घायल हुए हैं. झारखंड में आकाशीय तड़ित से दुमका और रामगढ़ में पांच लोग मारे गये. बिहार के गया में आकाशीय बिजली से पांच की मौत हुई है. अचानक इतने बड़े स्तर पर बिजली गिरना असामान्य घटना है. अमेरिका में हर साल बिजली गिरने से 30, ब्रिटेन में औसतन तीन लोगों की मृत्यु होती है. भारत में यह आंकड़ा औसतन दो हजार है. हमारे यहां आकाशीय बिजली के पूर्वानुमान और चेतावनी देने की व्यवस्था नहीं है. बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ में बिजली गिरने की घटनाएं ज्यादा होती हैं.

यदि तेज बरसात हो रही हो और बिजली कड़क रही हो तो ऐसे में पानी भरे खेत के बीच में, किसी पेड़ के नीचे, पहाड़ी स्थान पर जाने से बचना चाहिए. पहले लोग इमारतों के ऊपर एक त्रिशूल जैसी आकृति लगाते थे- जिसे तड़ित-चालक कहा जाता था. उस आकृति से एक धातु का मोटा तार या पट्टी जोड़ी जाती थी और उसे जमीन में गहरे गाड़ा जाता था ताकि उसके माध्यम से आकाशीय बिजली नीचे उतर जाये और इमारत को नुकसान न हो. इतने बड़े इलाके में एक साथ बिजली गिरने का असल कारण धरती का बदल रहा तापमान है. आषाढ़ में पहले भारी बरसात नहीं होती थी. अचानक भारी बारिश और फिर सावन-भादों का सूखा जाना- यही जलवायु परिवर्तन की त्रासदी है. इसी के मूल में बेरहम बिजली गिरने के कारक भी हैं. बिजली गिरना जलवायु परिवर्तन का दुष्परिणाम तो है ही, साथ ही अधिक बिजली गिरने से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को भी गति मिलती है. बिजली गिरने से नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है, जो घातक ग्रीनहाउस गैस है.

हालांकि, बिजली गिरने और उसके जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के शोध बहुत सीमित हुए हैं. इस दिशा में और गहराई से काम करने के लिए ग्लोबल क्लाइमेट ऑब्जर्विंग सिस्टम (जीसीओएस) के वैज्ञानिकों ने विश्व मौसम विज्ञान संगठन के साथ मिलकर एक विशेष शोध दल (टीटीएलओसीए) का गठन किया है. धरती के बदलते तापमान का सीधा असर वायुमंडल पर होता है, इससे भयंकर तूफान भी बनते हैं. जैसे-जैसे धरती गर्म हो रही है, बिजली की लपक उस ओर ज्यादा हो रही है. बिजली गिरने का सीधा संबंध बादलों के ऊपरी ट्रोपोस्फेरिक या क्षोभ-मंडल जलवाष्प और ट्रोपोस्फेरिक ओजोन परतों से हैं. दोनों ही खतरनाक ग्रीनहाउस गैसें हैं. भविष्य में यदि जलवायु में अधिक गर्माहट हुई, तो गरजदार तूफान कम लेकिन तेज आंधियां ज्यादा आयेंगी और हर एक डिग्री ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती तक बिजली की मार की मात्रा 10 प्रतिशत तक बढ़ सकती है.

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के वैज्ञानिकों ने एक शोध किया, जिसका आकलन था कि आकाशीय बिजली के लिए दो प्रमुख अवयवों की आवश्यकता होती है- तीनों अवस्था (तरल, ठोस और गैस) में पानी और बर्फ बनाने से रोकनेवाले घने बादल. वैज्ञानिकों ने 11 अलग-अलग जलवायु मॉडल पर प्रयोग किये और पाया कि भविष्य में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में गिरावट आने से रही और इसका सीधा परिणाम होगा कि आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएं बढ़ेंगी. हाल ही में जिन इलाकों में बिजली गिरी, उसमें बड़ा हिस्सा धान की खेती का है. धान के खेतों से ग्रीन हाउस गैस मीथेन का अधिक उत्सर्जन होता है. मौसम जितना गर्म होगा और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा, उतनी ही अधिक बिजली, अधिक ताकत से धरती पर गिरेगी. ‘जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’ नामक ऑनलाइन जर्नल के मई-2020 अंक में अल नीनो-ला नीना, हिंद महासागर डाय और दक्षिणी एन्यूलर मोड के जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव और उससे दक्षिणी गोलार्ध में बढ़ते तापमान के कुप्रभाव स्वरूप अधिक आकाशीय विद्युत-पात की संभावना पर प्रकाश डाला गया है.

मॉनसून में बिजली चमकना सामान्य बात है. बिजली तीन तरह की होती है- बादल के भीतर कड़कने वाली, बादल से बादल में कड़कने वाली और बादल से जमीन पर गिरनेवाली. बिजली उत्पन्न करनेवाले बादल आमतौर पर लगभग 10-12 किमी की ऊंचाई पर होते हैं, जिनका आधार पृथ्वी की सतह से लगभग एक-दो किमी ऊपर होता है. शीर्ष पर तापमान -35 डिग्री सेल्सियस से -45 डिग्री सेल्सियस तक होता है. स्पष्ट है कि जितना तापमान बढ़ेगा, बिजली भी उतनी ही बनेगी और गिरेगी. दुनिया के लिए यह चुनौती है कि कैसे ग्रीन हाउस गैसों पर नियंत्रण हो और जलवायु के अनियंत्रित परिवर्तन पर काबू किया जा सके, वरना समुद्री तूफान, बिजली गिरना, बादल फटना जैसी भयावह त्रासदियां हर साल बढ़ेंगी.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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