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तालिबान को पाकिस्तान की शह

तालिबान के पास पाकिस्तान से भी हथियार आता रहा है और पाकिस्तान के रास्ते अवैध हथियार बाजारों से भी उन्हें आपूर्ति मिलती रही है.

अफगानिस्तान में हालात बहुत गंभीर हैं और महसूस यही हो रहा है कि तालिबान हावी है और बढ़ जा रहा है. ताजा खबर यह है कि तालिबानियों ने मजार-ए-शरीफ की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है और वहां के स्थानीय ताकतवर नेता अता मोहम्मद नूर ने तालिबान के साथ समर्पण का समझौता कर लिया है. माना जाता था कि नूर अपनी ताकत के साथ तालिबान के साथ डटे रहेंगे, लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है.

यह वही मंजर पेश कर रहा है, जैसा डॉ नजीबुल्लाह के समय हुआ था. उस समय उनके खासमखास रशीद दोस्तम उनका साथ छोड़ कर मुजाहिद्दीन के साथ हो गये थे और चंद हफ्तों के भीतर नजीब को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा था. वैसे हालात फिर पैदा हो सकते हैं. उस समय और आज में एक अंतर यह है कि दुनिया से कुछ-न-कुछ समर्थन अशरफ गनी की सरकार के साथ है और तालिबान को बहुत अधिक हिमायत अभी हासिल नहीं है.

कुछ देश हैं, जैसे- चीन, रूस, ईरान, खास तौर पर पाकिस्तान- उनकी थोड़ी-बहुत हिमायत कर रहे हैं, पर इनमें से रूस, चीन और ईरान के तालिबान को लेकर शंकाएं हैं. वहीं,अमेरिका और पश्चिमी देश उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं और अब भी सेनाओं को वापस बुलाने के बावजूद एक स्तर पर अफगान सरकार का समर्थन कर ही रहे हैं.

अब जो लड़ाई की स्थिति है, उसमें अफगान सरकार और सेना सिकुड़ती हुई नजर आती है. किसी भी लड़ाई में ऐसी कोई जीत उन्हें नहीं मिली है, जिसके आधार पर कहा जाए कि तालिबान की बढ़त थम रही है. जिन बातों ने सभी को अचरज में डाल दिया है, उसमें एक है तेज गति से तालिबान का बढ़त बनाना और दूसरी है उसकी रणनीति. दक्षिण अफगानिस्तान में तो तालिबान की ताकत पहले से थी, पर जिस तरह से उसने उत्तर और पश्चिम में अपने कदम बढ़ाये हैं और बढ़ा रहे हैं, इसने काफी आश्चर्यचकित किया है.

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह जंग बीस साल से चल रही है. तालिबान के साजो-सामान और हथियार की आमद का सवाल तब भी बनता था. हमें यह भी देखना चाहिए कि उनके पास साजो-सामान हैं क्या? उनके पास क्लाशिनिकोव राइफल हैं, रॉकेट लांचर हैं और कुछ बारूद हैं, जिससे वे विस्फोटक बनाते हैं.

अब जो सूचनाएं आ रही हैं, उनके अनुसार, उन्होंने युद्ध की जरूरत के हिसाब से कुछ चीजें तैयार की हैं, जिसे बैटलफील्ड इनोवेशन कहा जाता है, लेकिन उनके पास कोई तोपखाना नहीं है, जैसा आम तौर पर सामान्य सेनाओं के पास होता है. उन्होंने कुछ ऐसे हथियार बनाये हैं, जिससे दूर तक मार की जा सकती है, जिसे आप एक तरह की तोप कह सकते हैं. वे ड्रोन का इस्तेमाल भी कर रहे हैं.

उनके हथियार एक तो उनके अपने हैं और दूसरी बात यह है कि उनके साथ बड़ी संख्या में पाकिस्तानी लड़ाके भी हैं, जिनके पास हथियार हैं. उनके पास पाकिस्तान से भी हथियार आता रहा है और पाकिस्तान के रास्ते से अवैध हथियार बाजारों से भी उन्हें आपूर्ति मिलती रही है. अवैध हथियारों की मंडी से तस्करी बहुत पुराना धंधा है. उनके साथ मध्य एशिया, चीन, रूस, खाड़ी देशों, अरब आदि के भी लड़ाके हैं.

इन समूहों के अपने हथियारबंद दस्ते हैं और वे लड़ाई में शामिल रहे हैं. हमें यह भी याद करना चाहिए कि चंद साल पहले तक पाकिस्तान से होते हुए जो नाटो सेनाओं के काफिले जाते थे, उन्हें लूट लिया जाता था. तब ऐसी खबरें भी आती थीं कि बहुत सारे कंटेनर बीच से ही गायब हो गये. अमेरिका ने इन मसलों पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया और ऐसा माना जाता है कि उसमें से बहुत सारा असलहा तालिबानियों के हाथ लगा है. वे सभी हमले पाकिस्तान की अनुमति के बिना हो ही नहीं सकते थे.

तालिबान के हथियारों का बड़ा स्रोत उन इलाकों की अफगान सेनाएं और पुलिस के हथियार हैं, जहां तालिबान ने कब्जा किया है. जिन टुकड़ियों ने इनके सामने समर्पण किया है, उनके असलहे भी इन्हें मिले हैं. लेकिन फिर हमें उस सवाल पर लौटना होगा कि ये हथियार किस प्रकार के थे. इनमें हमवी जैसी गाड़ियां तो थीं, पर अधिकतर हथियार तो राइफलें, लांचर आदि ही हैं.

साथ में कुछ नाइट विजन चश्मे आदि मिले हैं. हमारे पास ऐसी कोई सूचना अभी तक नहीं है कि तालिबानियों के पास कोई बड़े लड़ाकू हथियार हों. अब चूंकि वे बहुत बड़े इलाके पर काबिज हो गये हैं, तो शायद बड़े हथियार भी उन्हें हाथ लगें, लेकिन यह भी है कि अफगान सेना के पास भी टैंक आदि बड़ी तादाद में नहीं रहे हैं. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो जरूर तालिबानियों का पलड़ा भारी है और अफगान सेना पर बहुत अधिक दबाव है.

मनोबल टूटने से भी समर्पण होते हैं. अफगान सेना में बहुत वर्षों से आंतरिक समस्याएं भी रही हैं. हम देख रहे हैं कि जहां उन्हें मदद की जरूरत पड़ रही है, वहां साधन नहीं पहुंच पा रहे हैं. इस कारण भी उन्हें हथियार डालने पड़ रहे हैं. तो, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि तालिबान बहुत ताकतवर सेना है.

तालिबान की बढ़त के उनको कई फायदे हो सकते हैं. अब उनके पास छोटा-मोटा तोपखाना भी हो सकता है. जहां-जहां वे काबिज हो रहे हैं, वहां अफगान सेना की बख्तरबंद गाड़ियां भी उनके हाथ लगेंगी. उन इलाकों के गोदाम और फैक्टरियों आदि का भी सैनिक इस्तेमाल तालिबानी कर सकते हैं. ऐसे में उनके पास साजो-सामान की मात्रा बढ़ती ही जायेगी. सीमावर्ती इलाकों के कब्जे में होने से बाहर से तस्करी के जरिये हथियार मंगाना भी अब पहले से कहीं अधिक आसान हो जायेगा.

अगर वे पूरे देश पर काबिज हो जाते हैं, तो उन्हें टैंक भी मिलेंगे, लड़ाकू जहाज और हेलीकॉप्टर भी तथा दूर-संचार के संसाधन भी. तब उनकी ताकत कहीं अधिक बढ़ चुकी होगी. जो हालात दिख रहे हैं, उसमें शांति या समाधान की कोई गुंजाइश नहीं दिखती. जो भी होगा, शायद वह अब जंग से ही होगा. ऐसे माहौल में बातचीत कौन करेगा और किस चीज के आधार पर करेगा? बातचीत अगर होगी भी, तो हथियार डालने के बारे में होगी.

पहले भी बिना मतलब की बातें हो रही थीं कि सत्ता में हिस्सेदारी के आधार पर या संयुक्त सरकार बनाने पर शांति बहाल की जा सकती है. पर, उसका क्या हुआ? अब तो यही लगता है कि या तो अफगान सरकार हथियार डाल दे या लड़ाई जारी रखे क्योंकि तालिबान तो जंग लड़ता ही रहेगा. (बातचीत पर आधारित).

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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