पलायन की पीड़ा और छठ की याद
नौकरी, सुख, धन, स्वास्थ्य, जो कुछ भी कमी है, सब छठी मैया से ही मांगते हैं, वही देती हैं. एक यही ऐसा पर्व है, जिसमें भक्त सीधे अपने भगवान से मांगता है. भक्त और भगवान के बीच कोई नहीं होता. छठी मैया सबकी सुनती हैं.
हम बिहारी दुनिया के किसी कोने में रहें, लेकिन जैसे ही ‘उ जे केरवा जे फरले घवद से, ओपर सुगा मेड़राय…’ गीत कानों में घुलता है, आंखों से झर-झर आंसू बहने लगते हैं. ये आंसू हमारे 12-15 साल तक के बच्चों को अजीब लगते हैं. वे सोचने लगते हैं कि बादशाह, हनी सिंह के जमाने में इस गाने में ऐसा क्या है, जिसे सुनते ही पापा आंसुओं को नहीं रोक पाते हैं. हमारे लिए छठ केवल पर्व भर नहीं है. यह हमारी आत्मा और संस्कार से जुड़ा है.
छठ में घर जाना उस पूरे जीवन को एक बार फिर से जी लेने जैसा है, जिससे दूर निकल आये हैं. हर साल ‘पूजा स्पेशल’ ट्रेनों की व्यवस्था की जाती है, लेकिन यात्रियों की संख्या अधिक होने के कारण सबको टिकट नहीं मिल पाता. दीपावली के छह दिन के बाद छठ होता है.
एक आम बिहारी छठ में सशरीर घर जाए या न जाए, यादों में जरूर जाता है. छठ में बेटे के घर आने के भी कई संदर्भ हैं. यदि बेटा कुंवारा है, तो छठ के बाद उसकी शादी कर देनी है. परना के दिन से वर-वधू की खोज शुरू हो जाती है. बेटा यदि कमा कर लायेगा, तो छप्पर बनवाना है, गाय खरीदनी है, चापाकल गड़वाना है, कर्ज चुकाना है आदि. बेटा आयेगा, तो नये कपड़े, रजाई आदि खरीदेंगे. एक मां का सबसे बड़ा सुख यही है कि उसका बेटा उसकी आंखों के सामने रहे.
दरअसल, वह छठी मैया के नाम पर अपने लिए बेटे को घर बुला रही होती है. छठ में घर जाने पर बचपन के सभी संगी-साथी से भी तो मिलना है. छठ में बेटी भी मायके आयेगी. मां से, सहेलियों से ढेर सारी बातें करेगी. हम बिहारियों के साथ घर को लेकर भी अजीब संवेदना है. हम ‘घर’ उसी को कहते हैं, जो विरासत में मिला है या जहां मां छठ करती है. उस घर को छोड़कर शहर आये, तो शहर वाले ‘घर’ को ‘डेरा’ कहते हैं. जब दिल्ली आये और मकान लिया, उसे क्या कहें, आज तक समझ नहीं पाया. कभी रूम कहते हैं, तो कभी फ्लैट, तो कभी अपार्टमेंट. अभी तक इस ‘मकान’ को नाम न दे पाये. इस मकान में मां-बाबूजी के लिए जगह ही नहीं है.
सब पूछते हैं ‘छठ’ में घर जा रहे हो’, तो मन उसी घर में पहुंच जाता है, जिसे छोड़ कर आ गये थे. रोटी की खोज सब कुछ छुड़ा देती है. भिखारी ठाकुर का ‘बिदेसिया’ बन जाता है आदमी, लेकिन भिखारी ठाकुर को केवल प्यारी सुंदरी का दुख दिखाई देता है, उसके माता-पिता का नहीं. बेटे के वियोग का दुख कहां किसी साहित्यकार को दिखता है. आदिकवि वाल्मीकि ने पिता दशरथ का वियोग देखा था. तुलसीदास दशरथ को पुत्र राम के वियोग में तड़पते हुए दिखाते हैं. दशरथ अपने मंत्री सुमंत से कहते हैं- सो सुत बिछुरत गये न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना।।
खैर, शारदा सिन्हा का छठ गीत कानों में घुला और मन उसी घर के आंगन में दौड़ कर पहुंच गया. वहां दीपावली के बाद परिवार के सदस्यों की व्यस्तताएं बढ़ गयी हैं. सब छठ की तैयारियों में लगे हैं. यह पर्व सामूहिकता, सामाजिकता और संयुक्त परिवार की अवधारणा को बल देता है. यह पर्व अकेले नहीं कर सकते. होगा ही नहीं. माई को बड़की माई की मदद लेनी होगी. बड़की माई दादी को खोजेगी ही. एक का काम दूसरे के बिना नहीं चल सकता. बाबूजी बड़का बाबूजी से पूछेंगे ही कि केला कहां सस्ता मिल रहा है?
नारियल, संतरा, तेल, घी, गुड़, सुथनी, दउरा, सुपली अकेले कहां खरीद पायेंगे? बड़का बाबू जी को भी बाबू जी की मदद चाहिए ही. रोज कुछ-कुछ खरीदना है, तभी छठ के दिन तक पूरी व्यवस्था हो पायेगी. इधर बाबूजी साइकिल से निकले और उधर मां को याद आया कि एक ही झोला लेकर बाजार चले गये. सब्जी वाला झोला तो लेकर गये ही नहीं. किसी बच्चे को दूसरा झोला लेकर दौड़ाया गया. दउरा, सुपली, मिट्टी के हाथी, घोड़े, बर्तन आदि के लिए समाज की मदद लेने में संकोच कैसा? मिट्टी का चूल्हा बगल वाली चाची बनायेंगी, तो मेरा भी बना देंगी. मेरा बेटा उनके लिए भी मिट्टी ले आयेगा. सब मिल कर एक-दूसरे के घर जायेंगे और गीत गा आयेंगे.
छठ के अलावा ऐसा कोई त्योहार नहीं, जिसकी तैयारी में बच्चे भी बड़े मनोयोग से भिड़े होते हैं. छठ घाट बनाने की जिम्मेदारी बच्चों और युवाओं पर ही होती है. यह प्रकृति के प्रति मनुष्य के प्रेम का भी पर्याय है. नदी के किनारे जमा साल भर का कूड़ा सभी मिल कर कुछ घंटों में साफ कर चमका देते हैं. केले का थम, रंगीन कागज आदि से घाट को सजा कर ऐसे निहारते हैं, जैसे कोई अपना महल निहारता है. गेहूं सुखाने और कौवे से उसे बचाने की जिम्मेदारी तो बच्चे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं. ‘खरना’ का प्रसाद और ठेकुआ तो दौड़-दौड़ कर बांटते हैं. छठ के समय जगा इनके अंदर का आज्ञाकारी भाव सालों भर रह जाता, तो कितना अच्छा होता!
कहते हैं कि महिलाएं छठ बेटे के जन्म की खुशी में करती हैं, लेकिन छठ करने वाले पुरुषों की संख्या भी कम नहीं है. बिहार के अधिकांश लड़के छठी मैया के ही तो दिये हुए हैं. मांगने वाले बेटी भी मांगते हैं. तभी तो घाट पर यह गीत भी छठव्रती महिलाएं खूब गाती हैं- रुनुकी झुनुकी बेटी मांगिले, घोड़वा चढ़न के दामाद हे छठी मैया…’ कुल मिला कर संतान की कामना छठी मैया से की जाती है और पूरा होने पर व्रत करते हैं. हालांकि नौकरी, सुख, धन, स्वास्थ्य जो कुछ भी कमी है, सब छठी मैया से ही तो मांगते हैं, वही देती हैं. एक यही ऐसा पर्व है, जिसमें भक्त सीधे अपने भगवान से मांगता है. भक्त और भगवान के बीच कोई नहीं होता. छठी मैया सबकी सुनती हैं.