हाल तक कई अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों का मानना था कि दो-तीन दशकों में चीन ने जिस प्रकार स्वयं को अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बना लिया है, इसे समझकर विकासशील देशों को आगे बढ़ना चाहिए. भारत में भी कई अर्थशास्त्री ऐसी सलाह दे रहे थे. लेकिन कुछ समय से चीन में औद्योगिक गिरावट और अन्यान्य संकटों के समाचारों ने सबको झकझोर दिया है. कोरोना के बाद चीन में होनेवाले परिवर्तन का अध्ययन जरूरी हो गया है ताकि विश्व के देश उसकी वास्तविकता को समझकर अपने नजरिये को दुरुस्त करें.
पिछले दिनों चीन में औद्योगिक गिरावट के कई समाचार आये हैं. एक जमाने में चीन 30 से 50 प्रतिशत की दर से औद्योगिक विकास कर रहा था. अविश्वसनीय लगनेवाले पैमाने पर औद्योगिक संयंत्र लग रहे थे और उनके अपार उत्पादन दुनिया के बाजारों में खपाये जा रहे थे. उसके लिए सरकारी मदद से सामानों को सस्ता तो किया ही जा रहा था, अंडर इनवॉईसिंग, डंपिंग, घूसखोरी समेत तमाम प्रकार के अनुचित और गैरकानूनी हथकंडे अपनाये जा रहे थे. इन सबको अनदेखा कर दुनियाभर में नीति निर्माता औद्योगिक कार्यकुशलता का चीन को श्रेय दे रहे थे.
उनका तर्क था कि चीन से सस्ते आयातों से उपभोक्ताओं को सस्ते सामान मिल रहे हैं. रेलवे, बंदरगाह, सड़क, एयरपोर्ट, पुल, बिजली घर, औद्योगिक शोध एवं विकास केंद्र समेत इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन की अभूतपूर्व प्रगति ने दुनिया को चमत्कृत कर दिया था. लगभग सभी देशों में चीनी कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण में संलग्न थीं और चीनी सरकार आर्थिक मदद से उन देशों की नीतियों में भारी दखल भी दे रही थी. ऐसे में चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भी उफान ले रहा था. उसके दम पर चीनी सरकार यूरोपीय, अमेरिकी और एशियाई देशों में कंपनियां भी अधिग्रहित कर रही थी. इस आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक दबदबे से कई देश दबाव में आते जा रहे थे.
एक महाशक्ति के रूप में स्थापित हो रहा चीन आर्थिक संकट में आ सकता है, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. लेकिन संकेतों की मानें, तो चीन भीषण संकट में फंसता दिख रहा है. ऊर्जा संकट से चीन में कई फैक्ट्रियां या तो बंद हैं या आंशिक रूप से चल रही हैं. यह समस्या 20 प्रांतों में है. गोल्डमैन सैक और नोमुरा जैसी एजेंसियों ने चीन की वृद्धि के अनुमान को काफी घटा दिया है. गौरतलब है कि चीन की दूसरी सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी एवरग्रांड की 300 अरब डॉलर से भी ज्यादा देनदारियों के कारण चीन की प्रॉपर्टी मार्केट की ही नहीं, वित्तीय व्यवस्थाओं में लोगों के विश्वास में भी भारी कमी आयी है. टेलीविजन पर चीन की कई अधूरी गगनचुंबी इमारतों को धराशायी करने की हालिया तस्वीरों ने तो दुनिया को चौंका दिया है. भारी मात्रा में ऐसे निर्माण के कारण रियल एस्टेट बाजार का बुलबुला न फट जाये, शायद इसलिए चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने इन इमारतों को ध्वस्त कर दिया है.
उधर चीन की योजना थी कि अब वह विभिन्न देशों को अपनी आक्रामक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना का शिकार बनायेगा. उसने धूमधाम से बेल्ट-रोड योजना की शुरुआत कर दी और 65 देशों को उसमें शामिल कर दिया. लेकिन, नापाक इरादों के कारण वह बदनाम हो चुका है. उसने लगभग 20 देशों को कर्ज जाल में फंसाकर उनके सामरिक महत्व की परियोजनाओं को हथियाना शुरू कर दिया. श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह उसकी बदनीयती का उदाहरण बना. विश्व जिस स्वास्थ्य और आर्थिक संकट से गुजरा है, उसके मूल में कहीं न कहीं चीन है. चीन ने जैसे पहले बेल्ट-रोड परियोजना और फिर महामारी से मुनाफाखोरी कर दुनिया का शोषण करने का प्रयास किया है. दुनिया को यह भी समझ आ रहा है कि भूमंडलीकरण की आड़ में जैसे औद्योगिक वस्तुओं के लिए चीन पर निर्भरता बढ़ी, उसने उनकी अर्थव्यवस्थाओं को ध्वस्त किया है और उससे गरीबी और बेरोजगारी भी बढ़ी है. भारत, अमेरिका, यूरोप समेत कई देश आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं. कई देशों द्वारा चीन से आयात घटाने के प्रयास शुरू हुए हैं, जिससे उसके औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ रहा है. बेल्ट-रोड समझौते रद्द होने के कारण चीन की इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियां संकट में हैं. उसकी वित्तीय संस्थाएं भी संकट में आती जा रही हैं और लोगों की वित्तीय बचत डूबने लगी है.
चीन पहले समुद्र में अपनी सामरिक शक्ति के प्रदर्शन से भारत सहित कई मुल्कों को डराने का प्रयास कर रहा था. उसके मद्देनजर भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के समूह ‘क्वाड’ के तत्वाधान में सैन्य अभ्यासों ने चीन को चुनौती दी हुई है. भारत ने नवंबर, 2019 को पिछले लगभग एक दशक से चल रहे आरसीईपी समझौते से बाहर आकर चीन के विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर दिया है. संकटों में घिरे चीन के शासक अपनी ओर से ऊपरी दृढ़ता दिखाकर दुनिया को भरमाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन समझना होगा कि भारत सहित तमाम मुल्कों के लिए यह एक बड़ा अवसर भी है कि वे अपने देशों में औद्योगिक प्रगति को गति दें और सस्ती, लेकिन घटिया, चीनी साजो-सामान का मोह त्यागकर आत्मनिर्भरता के मार्ग पर अग्रसर हों. चीनी कंपनियों को किसी भी प्रकार के ठेके न दिये जायें. जिन मुल्कों ने बेल्ट-रोड परियोजना पर हस्ताक्षर किया है, वे इस परियोजना से बाहर आकर अपने-अपने देशों को चीनी कर्ज जाल से मुक्ति दिलायें.