मछुआरों के हित खतरे में
यदि विश्व व्यापार संगठन में मत्स्ययन समझौता हो जाता है, तो उससे विकासशील और अल्प विकसित देशों में छोटे मछुआरों की जीविका पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है.
कुछ समय से विश्व व्यापार संगठन में चल रहे वार्ताओं के एक दौर में कथित रूप से अविकसित तरीके से, गैर-रिपोर्टेड और अनियमित मछली पकड़ने पर अंकुश लगाने हेतु सब्सिडी समाप्त करने पर समझौता होना है. हालांकि इस वार्ता को संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों का हिस्सा बताया जा रहा है, लेकिन यदि यह समझौता हो जाता है, तो उससे भारत और अन्य विकासशील और अल्प विकसित देशों में छोटे मछुआरों की जीविका पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है.
यह सही है कि समुद्र में मत्स्ययन बढ़ता ही जा रहा है, जिससे भविष्य में समुद्र में मछली की उपलब्धता ही समाप्त हो सकती है. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की सोच उचित है, पर बड़ा सवाल यह है कि समुद्र से अधिक मात्रा में मछली पकड़ने के लिए जिम्मेदार कौन है? कम से कम भारत या अन्य विकासशील देशों के अत्यधिक कम मत्स्ययन की क्षमता रखनेवाले छोटे मछुआरे तो इसके लिए कतई दोषी नहीं हैं.
मछली पकड़ने का कार्य दो प्रकार से किया जाता है. एक, छोटे मछुआरों द्वारा, जो अपनी नाव में जाकर मछली पकड़ते हैं और दूसरे, बड़ी कंपनियों के ट्रॉलरों एवं बड़े जहाजों के द्वारा. पिछले कुछ दशकों से बड़ी कंपनियों द्वारा मशीनी तरीके से मछली पकड़ने का काम काफी बढ़ गया है. भारत में छोटे मछुआरे वर्षा ऋतु में मछली नहीं पकड़ते, क्योंकि वह मछलियों के प्रजनन का काल होता है, लेकिन बड़े ट्रॉलर ऐसा नहीं करते.
यदि छोटे मछुआरों को अनियमित माना जायेगा, तो सरकारों द्वारा दी जानेवाली सहायता तो समाप्त हो जायेगी, पर बड़े ट्रॉलर और जहाज मछली पकड़ने के हकदार बने रहेंगे और वे सरकारी सहायता भी ले सकेंगे. तब छोटे मछुआरों की जीविका प्रभावित होगी, जबकि बड़ी कंपनियों को लाभ होगा, लेकिन खेद का विषय यह है कि विश्व व्यापार संगठन में बड़े और अमीर मुल्कों एवं कॉरपोरेट के दबाव में समझौता करने की कवायद जारी है.
गौरतलब है कि 1990 के दशक के प्रारंभ में भारत में बड़े ट्रॉलरों को लाइसेंस दिये जाने के बाद उनके द्वारा अत्यधिक मात्रा में मत्स्ययन करने के कारण समुद्र से मछली की उपलब्धता ही समाप्त हो रही थी, जिससे छोटे मछुआरों की जीविका पर प्रतिकूल असर पड़ने लगा था. उस समय स्वदेशी जागरण मंच और थॉमस कोचिरी के नेतृत्व समेत कई बड़े आंदोलन हुए थे तथा तत्कालीन सरकार को ट्रॉलरों के लाइसेंसों का नवीनीकरण रोकना पड़ा था.
बाद में फिर से ट्रॉलरों को अनुमति मिलने लगी. एक बार फिर पर्यावरणविदों द्वारा ट्रॉलरों को प्रतिबंधित करने की मांग जोर पकड़ने लगी है. भारत सरकार की एक समिति ट्रॉलरों को विनियमित करने की दिशा में कार्य कर रही है. पर्यावरणविदों का कहना है कि इन ट्रॉलरों पर क्रमिक प्रतिबंध ही मत्स्ययन के अतिरेक का सही समाधान है. केरल और ओडिशा सहित कई राज्यों में परंपरागत मछुआरों की मांग पर माॅनसून (वर्षा ऋतु) में ट्रॉलरों पर प्रतिबंध लगाया जाता रहा है, ताकि मछलियों का प्रजनन प्रभावित न हो.
कहा जा रहा है कि मत्स्ययन सब्सिडी पर समझौते से मछली की उपलब्धता एवं समुद्री संसाधनों की सुरक्षा सुनिश्चत की जा सकेगी. इस संबंध में नियम बनाने की कवायद 2001 से ही चल रही है, लेकिन दिलचस्प यह है कि जिस दोहा विकास चक्र के तहत यह कवायद शुरू हुई, उसके शेष सभी प्रावधान विकसित देशों ने सिरे से नकार दिया है. तो प्रश्न उठता है कि मत्स्ययन सब्सिडी समाप्त करने की ही कवायद क्यों चल रही है?
यह सही है कि आज 34 प्रतिशत अतिरिक्त मत्स्ययन हो रहा है, जबकि 1974 में यह मात्र 10 प्रतिशत ही था. आज दुनिया में लगभग चार करोड़ लोग मत्स्ययन व्यवसाय पर निर्भर हैं, इसलिए उनके जीवन की सुरक्षा समुद्री संसाधनों की सुरक्षा के साथ जुड़ी हुई है. भारत समेत विकासशील देशों का मानना है कि मत्स्ययन पर सब्सिडी समाप्त होने से उनके छोटे मछुआरों की जीविका और उनके अधिकार संकट में पड़ सकते हैं.
ऐसे छोटे मुल्कों, जिनके मिशन जेनेवा में नहीं हैं, के विचारों को इस दस्तावेज में ठीक से समाहित नहीं किया जा सका है. इससे भी विकासशील देशों में रोष है. हाल ही में जब विश्व व्यापार संगठन की महानिदेशिका भारत आयी थीं, तो भारत ने साफ-साफ शब्दों में अपनी आपत्ति दर्ज करायी थी तथा कहा था कि इस संदर्भ में भारत के सुझावों को शामिल किये जाने से ही यह समझौता संतुलित हो सकता है. भारत की मांग है कि विकसित देश अपने प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं से परे किये जानेवाले मत्स्ययन पर सब्सिडी देना बंद करें. वे देश यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं.
भारत चाहता है कि उसके गरीब एवं छोटे मछुआरों के हितों की सुरक्षा हेतु सब्सिडी देने का प्रावधान जारी रहना चाहिए. भारत में कोई गैरकानूनी मत्स्ययन नहीं होता. भारत का कहना है कि विश्व व्यापार संगठन के निर्माण के समय से विकसित देशों को खास रियायतें मिलीं और उनके द्वारा दी जानेवाली कृषि सब्सिडी बिना रोक-टोक चलती रही, जबकि विकासशील देशों के अधिकारों को सीमित कर दिया गया. मत्स्ययन सब्सिडी पर समझौते में उस गलती को दोहराया नहीं जाना चाहिए.
आज समय की मांग है कि भारत और अन्य विकासशील एवं अल्पविकसित देश विकसित देशों की दादागिरी का डट कर सामना करें, ताकि कोई असंतुलित एवं तर्कहीन समझौता न हो सके और हम छोटे एवं गरीब मछुआरों की हितों की सुरक्षा कर सकें.