हाल में इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआइसी) के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की जो बैठक पाकिस्तान में हुई, इसे हम अलग-अलग बिंदुओं से देख सकते हैं. इसमें अहम मुद्दा अफगानिस्तान का मानवीय संकट था. इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी लगातार चिंता जतायी है. भारत ने भी अफगानिस्तान को जरूरी दवाएं और अनाज भेजा है. समूची दुनिया में यह राय बन रही है कि तालिबान सरकार को मान्यता देने के मुद्दे और अफगान जनता को मदद पहुंचाने के मामले को अलग-अलग कर देखा जाना चाहिए.
ओआइसी की बैठक में भी यही भावना व्यक्त की गयी. दूसरी बात, पाकिस्तान की कोशिश रही है कि तालिबान को व्यापक वैश्विक मान्यता मिले. बैठक में भी वह इस राय को बढ़ावा देना चाह रहा था, लेकिन सफलता नहीं मिली है. तालिबान शासन के अंतरिम विदेश मंत्री अमीर खान मुत्तकी भी सम्मेलन में शामिल हुए थे, लेकिन आधिकारिक साझा तस्वीर से उन्हें हटा दिया गया. ओआइसी देशों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों को लेकर प्रतिबद्धता का जो मामला है, उस पर तालिबान को खरा उतरना होगा. ये देश तालिबान सरकार को मान्यता देने में भी कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहते हैं.
यह सवाल अहम है कि अगर तालिबान को मान्यता दिलाने में पाकिस्तान की इतनी दिलचस्पी है, तो वह खुद ही आगे बढ़कर उसे मान्यता क्यों नहीं दे रहा है. अगर पाकिस्तान के हवाले से इस आयोजन को देखें, तो चार बातें सामने आती हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि आतंक के विरुद्ध युद्ध में पाकिस्तान का शामिल होना खुद अपने पर किया गया घाव है और उसे सही नहीं ठहराया जा सकता है.
आज यह बात कहना आसान है, लेकिन यह सभी को पता है कि तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ उस युद्ध में शामिल नहीं होना चाहते थे, पर उन्हें अमेरिकी धमकी के कारण झुकना पड़ा था. पाकिस्तान पर यह सवाल भी उठता रहा है कि क्या उसने आतंक के खिलाफ लड़ाई में पूरे मन से हिस्सा लिया था या नहीं. तालिबान की वापसी इस बात का सबूत है कि उस लड़ाई में पाकिस्तान का रवैया ढीला-ढाला रहा था तथा उसने तालिबानी नेतृत्व और लड़ाकों को अपने यहां सुरक्षित पनाह दी थी.
अफगानिस्तान की पख्तून समेत बड़ी आबादी के भीतर पाकिस्तान को लेकर हमेशा संदेह भी रहा है. वे पाकिस्तान को एक अच्छा पड़ोसी नहीं मानते हैं. बीते दो सालों में अफगान मीडिया में छपे आपको अनगिनत ऐसे लेख मिल जायेंगे, जिनमें कहा गया गया है कि पाकिस्तान दोहरी नीति पर चलता है और वह अफगानिस्तान में शांति व स्थिरता नहीं चाहता है. तालिबान के आने के बाद भी अफगानिस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ बड़े प्रदर्शन हुए हैं.
सवाल है कि तालिबान को लेकर पाकिस्तान की सोच वैचारिक है या रणनीतिक. मेरा मानना है कि यह रणनीतिक संबंध है, जिसे पाकिस्तान ने पहले भुनाया भी है. साल 2001 से पहले की उस घटना को याद किया जाना चाहिए, जिसमें एक भारतीय यात्री जहाज का अपहरण कर कंधार ले जाया गया था और उसे छोड़ने के बदले भारतीय जेलों में बंद पाकिस्तानी आतंकियों को रिहा कराया गया था.
यह रेखांकित करना अहम है कि पश्चिमी देशों में अफगानिस्तान के मानवीय संकट के कारण राय बदल रही है और वे तालिबान से संपर्क स्थापित करने की कोशिश में हैं. पाकिस्तान नहीं चाहता है कि वह इस प्रक्रिया में अलग-थलग पड़े और वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह संकेत देने की कोशिश में है कि अगर अफगानिस्तान को मदद करना है, तो पाकिस्तान सबसे बेहतर जरिया है. उल्लेखनीय है कि इस्लामाबाद में हुआ ओआइसी सम्मेलन अमेरिका के जाने के बाद अफगानिस्तान पर हुई सबसे बड़ी बैठक है. यह भी पाकिस्तान की ओर से एक संकेत है.
पर यह भी समझा जाना चाहिए कि बीते सालों में ओआइसी पर पाकिस्तान की पकड़ कमजोर हुई है, खासकर भारत में जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद. पाकिस्तान ने लगातार यह प्रयास किया है कि इस संगठन की ओर से भारत की आलोचना का कोई प्रस्ताव आये, परंतु कई मुस्लिम देशों ने इस मामले में दिलचस्पी नहीं दिखायी है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने ओआइसी को दरकिनार कर कश्मीर के बारे में अलग से मुस्लिम देशों का सम्मेलन बुलाने की धमकी दे दी थी. इस बैठक में भी पाकिस्तान की ओर से कश्मीर का मुद्दा उठाने की कोशिश हुई, पर उसका कोई असर नहीं हुआ. अब अफगानिस्तान मसले पर ऐसा लगता है कि पाकिस्तान पुराने रवैये पर लौटते हुए कश्मीर पर कोई साझा प्रस्ताव पारित कराने की जुगत में है.
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस बैठक में मानवाधिकार के सवाल को उलझाने की भी कोशिश की, पर उसका प्रतिकार ओआइसी के इस बयान के रूप में आ गया कि वे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भावनाओं के अनुरूप अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा मानवाधिकारों का सम्मान होते देखना चाहते हैं.
ओआइसी सम्मेलन को इस्लामिक देशों द्वारा अफगानिस्तान में मानवीय संकट के समाधान के एक प्रयास के रूप में ही देखा जाना चाहिए. इस आयोजन से पाकिस्तान को किसी प्रकार की कोई कूटनीतिक सफलता नहीं मिली है. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पाकिस्तान को अगर अफगानिस्तान की इतनी ही चिंता है, तो जब भारत मदद के तौर पर गेहूं भेज रहा था, तब पाकिस्तान ने उसमें अड़ंगा क्यों लगाया.
असल में पाकिस्तान के लिए यह मामला राजनीतिक है और इसे अफगानिस्तान की जनता भी जानती है. इस्लामिक देशों की यह बैठक अफगान जनता के लिए जरूर अहम है क्योंकि सम्मेलन में एक विशेष साझा कोष बनाकर सहायता देने पर सहमति बनी है. ओआइसी का मुख्य ध्यान मानवीय मदद पर रहा है, न कि राजनीतिक मसलों पर.
इस बैठक में इस्लामिक देशों के विदेश मंत्रियों और अधिकारियों के अलावा अमेरिका एवं यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि भी शामिल हुए. इन सभी के इस आयोजन में शामिल होने की वजह अफगानिस्तान को मदद देना है. यही कारण है कि पाकिस्तान की कोशिशों के बावजूद कश्मीर समेत किसी अन्य मुद्दे पर न तो कोई चर्चा हुई और न ही कोई साझा बयान आया.