समावेशी विकास पर हो जोर
उत्पादक रोजगार में बड़ा विस्तार समावेशी विकास की मूलभूत शर्तों में है, लेकिन देश में महामारी से पहले ही 45 सालों की सबसे अधिक बेरोजगारी दर थी, जो बीते दो सालों में और बढ़ी है.
सत्ता में आने के साथ वर्तमान सरकार ने समावेशी विकास का भरोसा दिलाया था, जहां सभी वर्गों के लोग विकास प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं और सबको समान रूप से फायदा होता है. ऐसा तब होता है, जब भारत जैसी गरीब अर्थव्यवस्था में आबादी के निचले 40 फीसदी हिस्से की आय में वृद्धि शीर्ष के 10 फीसदी लोगों से अधिक हो, लेकिन हालिया प्रकाशित ऑक्सफैम विषमता रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2015 से निचली 40 फीसदी आबादी की कीमत पर शीर्ष के एक फीसदी लोगों के पास अधिक आय जाती रही है.
शीर्षस्थ एक फीसदी के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 42.5 फीसदी है, जबकि निचली 50 फीसदी आबादी के पास महज 2.8 प्रतिशत हिस्सा ही है. देश के सबसे धनी 100 अरबपतियों की संपत्ति 775 अरब डॉलर है और उनका रहन-सहन सबसे गरीब 55.50 करोड़ (आबादी का 40 फीसदी) से बिल्कुल अलग है. साल 2020 में 5.90 करोड़ लोग बेहद गरीब थे, जिनकी संख्या 2021 में बढ़ कर 13.40 करोड़ हो गयी, जबकि अरबपतियों की संख्या में भी 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. स्पष्ट है कि आबादी का निचला तीस से चालीस फीसदी हिस्सा हाशिये पर है और वंचित है.
उत्पादक रोजगार में बड़ा विस्तार समावेशी विकास की मूलभूत शर्तों में है, लेकिन देश में महामारी से पहले ही 45 सालों की सबसे अधिक बेरोजगारी दर थी, जो बीते दो सालों में और बढ़ी है. बजट में इस समस्या का कोई समाधान नहीं दिया गया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार, प्रधानमंत्री गति शक्ति कार्यक्रम में पूंजी खर्च बढ़ाने से आगामी पांच सालों में 60 लाख रोजगार सृजित होंगे. इससे बेरोजगारों की बड़ी संख्या कम करने में खास मदद नहीं मिलेगी.
इंफ्रास्ट्रक्चर विकास ठीक है, पर इससे सही रोजगार सृजन में समय लगता है. गति शक्ति कार्यक्रम में भागीदारी के लिए अपेक्षित राज्यों के पास संसाधनों और क्षमता की कमी है. ग्रामीण लोगों के लिए मनरेगा एक तरह की जीवन रेखा साबित हुई है. अब मनरेगा के आवंटन में 25 फीसदी की कटौती कर दी गयी है. इस कार्यक्रम के तहत 20 हजार करोड़ रुपये की मजदूरी बाकी है.
ऐसे में आगामी सालों में ग्रामीण रोजगार प्रभावित होगा. शहरों में भी रोजगार गारंटी योजना न होने से बेरोजगारी बढ़ेगी. बजट में खाद्य अनुदान में 28 फीसदी तथा फर्टिलाइजर और पेट्रोलियम सब्सिडी में 11-11 फीसदी कमी की गयी है. ग्रामीण विकास के बजट में 0.3 प्रतिशत की कटौती हुई है, जबकि कृषि बजट में महज 2.5 फीसदी वृद्धि की गयी है. मुद्रास्फीति के मद्देनजर, बढ़त के बावजूद इस मद में कमी हो सकती है.
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों के लिए भी बजट में कुछ खास नहीं दिया गया है. पिछले साल अर्थव्यवस्था में कुल उपभोग खर्च में पांच फीसदी की गिरावट आयी. नगदी हस्तांतरण के अभाव और अपर्याप्त रोजगार के कारण उपभोग बढ़ने की संभावना नहीं है, खासकर मुद्रास्फीति के उच्च स्तर में, जिसका कोई स्पष्ट समाधान सरकार के पास नहीं है. आगामी सालों में मांग में कमी जारी रह सकती है, जिससे एक ओर निजी निवेश बाधित होगा, तो दूसरी ओर आबादी के निचले हिस्से के लिए मुश्किलें बढ़ती रहेंगी.
स्वास्थ्य में आवंटन में मात्र एक प्रतिशत की वृद्धि की गयी है, जो मुद्रास्फीति के हिसाब से ऋणात्मक हो सकता है. शिक्षा का बजट आवंटन 11 फीसदी बढ़ा है, जो वास्तविक रूप से कम हो सकता है. आश्चर्य की बात है कि सरकार शिक्षा में दो साल के नुकसान के बाद स्कूली शिक्षा के लिए 200 टीवी चैनल स्थापित करना चाहती है, वह भी तब जब स्कूल धीरे-धीरे खुलने लगे हैं.
यह बहुत देर से उठाया गया कदम है. सरकार आसानी से स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार सृजन, कृषि निवेश और छोटे-मझोले उद्यमों के लिए खर्च बढ़ा सकती थी. साथ ही, नगद हस्तांतरण से गरीबों के उपभोग में वृद्धि कर सकती थी. इन सबसे समावेशी विकास को बड़ी गति मिलती. यह सब धनिकों पर कर लगाकर किया जा सकता था. लेकिन बजट में कराधान से संबंधित कोई बदलाव नहीं किया गया है.
अभी संपत्ति कर शून्य है, आयकर दरें भी पिछले साल के स्तर पर हैं तथा अन्य करों में भी कोई बड़ा बदलाव नहीं किया गया है. कर राजस्व में बढ़ोतरी अर्थव्यवस्था में उछाल की वजह से है. कर और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात भारत में कम है. यह 2017-18 में 10.7 फीसदी था, जो 2020-21 में घटकर 9.9 प्रतिशत हो गया. इस जीडीपी के स्तर पर यह शायद दुनिया में सबसे कम अनुपातों में से है. इसे बढ़ाने की बड़ी संभावनाएं हैं.
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि आबादी के निचले 30-40 फीसदी हिस्से के लिए सरकार की प्रतिबद्धता बहुत सीमित प्रतीत होती है. सरकार का मुख्य ध्यान विभिन्न प्रकार की उचित-अनुचित सुविधाएं देकर शीर्षस्थ धनिकों और कॉरपोरेट सेक्टर को अधिक धनी बनाने पर लगा हुआ है. सरकार अभी भी सकल घरेलू उत्पादन की उच्च वृद्धि दर हासिल करने को अपना बड़ा लक्ष्य मानती है, लेकिन उसे इस विकास की संरचना की परवाह नहीं है. यह पूंजीवाद नहीं है और न ही यह बाजार के अनुकूल विकास करने की राह है. यह एक विकृत नव-उदारवादी विकास का रास्ता है, जो एक विकृत राजनीतिक आर्थिकी से पैदा होता है.