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स्वास्थ्य सेवा में सुधार की जरूरत

मृत्यु एक समय में जीवन का हिस्सा थी और उसे अनिवार्य की तरह स्वीकार किया जाता था. आज उससे एक शत्रु की तरह किसी भी कीमत पर लड़ा जाता है.

कोई यह आरोप नहीं लगा सकता है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पूरी तरह से खराब है. इसने कुछ चमत्कार भी किये हैं. दो पीढ़ी पहले बच्चे कीट संक्रमणों और खुजलियों के साथ बड़े होते थे. साथ ही, वे अधिक खतरनाक चेचक और पोलियो से भी ग्रस्त होते थे, जो उनका जीवन बदल देते थे.

अब ये सब लगभग या पूरी तरह से अतीत की स्वास्थ्य समस्याएं हो चुकी हैं. जीवन प्रत्याशा बढ़ी है. मधुमेह और उक्त रक्तचाप अब पहले की तरह जानलेवा नहीं रहे. करीब तीन दशक पहले समय से पहचान हो जाने और प्रारंभ में ही उपचार मिलने के बावजूद एक-तिहाई कैंसर रोगी पांच साल तक ही जीवित रह पाते थे. आज आधे से कैंसर पीड़ित दस साल या उससे अधिक समय तक जीवित रह सकते हैं.

आधुनिक दवाओं ने हम में से अधिकतर को स्वस्थ रखा है, लेकिन ये दवाएं आधुनिक ‘स्वास्थ्य सेवा’ के नकारात्मकों प्रभावों को दूर करने में असफल रही हैं. आज स्वास्थ्य सेवा की चार प्रमुख समस्याओं में सबसे पहली परेशानी है दर्द और दुख के उपचार से विमुख रहना. आज हमारे देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली दर्द और लगातार दुख सहने का उपचार नहीं करती है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की बायो-एथिक्स इकाई का कहना है कि रोगी के दुख का निवारण करना स्वास्थ्य सेवा प्रदाता का मौलिक कर्तव्य है.

उसके अनुसार, इस नियम का कोई भी अपवाद नहीं हो सकता है. लेकिन चार प्रतिशत से भी कम लोग दर्द से बुनियादी राहत तक पहुंच पाते हैं, इससे संबंधित शेष पहलुओं की तो बात ही छोड़ दें. दूसरी समस्या है कि जो लोग आधुनिक स्वास्थ्य प्रणाली में पीछे छोड़ दिये गये हैं, उन्हें सबसे अधिक इसकी आवश्यकता है. इनमें दिव्यांग लोग हैं. वे हैं, जो सांस्कृतिक या भौगोलिक रूप से हाशिये पर है. बुजुर्ग या लैंगिक भेदभाव के शिकार लोग हैं, खासकर गरीब, जो समुचित स्वास्थ्य सेवा हासिल करने की स्थिति में नहीं हैं.

तीसरी समस्या है कि मरणासन्न लोगों की ठीक से देखभाल नहीं की जाती है और उन्हें सघन चिकित्सा इकाई में बंदी की तरह मरने के लिए विवश किया जाता है और उनके पास साथ देने के लिए केवल दुख-दर्द होते हैं. मृत्य एक समय में जीवन का हिस्सा थी- उसका स्वागत नहीं था, पर उसे अनिवार्य की तरह स्वीकार किया जाता था. आज उससे एक शत्रु की तरह किसी भी कीमत पर लड़ा जाता है. इस युद्ध की हर घड़ी विषाद लाती है और मरने की दुखदायी प्रक्रिया दिनों, सप्ताहों और महीनों तक बढ़ जाती है.

और चौथी समस्या, जो सबसे अहम है कि उपचार का बढ़ता भयावह खर्च हमारी चार प्रतिशत जनसंख्या को हर साल गरीबी रेखा से नीचे धकेल देता है. उपचार के खर्च का कम-से-कम 63 प्रतिशत हिस्सा रोगी की जेब से जाता है. इस खर्च को न तो सरकारी सहायता प्राप्त है और न ही यह किसी बीमा द्वारा संरक्षित है. ऐसे सामाजिक विध्वंस की सूची में विश्व बैंक ने भारत को सबसे बदतर 12 देशों में रखा है. संक्षेप में, प्रणाली एक ओर स्वास्थ्य सेवा देती है, तो दूसरी ओर यह स्वास्थ्य का गला घोंटती है.

यह तस्वीर चिंताजनक है. इस नुकसान की भरपाई एक-दो वर्षों में नहीं की जा सकती है. यह हाथी के बच्चे को घर में पालने जैसा मामला है. हाथी बढ़ता जायेगा और घर के लोगों को उसके इर्द-गिर्द रहना सीखना होगा, लेकिन उसे बाहर निकालने की आवश्यकता होगी, भले ही इसके लिए दरवाजा तोड़ना पड़े या एक समय ऐसा आयेगा, जब वह हाथी पूरा घर तबाह कर देगा. भारतीय स्वास्थ्य सेवा के मामले में हम ऐसे मोड़ पर आ चुके हैं, जब हाथी को दरवाजा तोड़कर बाहर निकालना होगा. या, क्या हम घर के ढह जाने की प्रतीक्षा करेंगे?

सौभाग्य से, इनके समाधान सस्ते हैं और मुश्किल भी नहीं हैं, बस स्वास्थ्य प्रणाली को दुख कम करने के अपने कर्तव्य को स्वीकार करना होगा. यह कर्तव्य स्वास्थ्यकर्मियों को बीमारी के उपचार के साथ दुख-दर्द का उपचार करना भी सीखना होगा. पश्चिम यूरोप के देशों तथा युगांडा और केन्या जैसे कम आय के सब-सहारा अफ्रीकी देशों में ऐसा ही किया जाता है. एक बात स्वास्थ्य प्रणाली इस उत्तरदायित्व को स्वीकार कर ले तथा आवश्यक दवाओं तक पहुंच से संबंधित नियमन व प्रक्रियाओं की अनावश्यक बाधाओं को दूर कर ले, तो समाधान आसान है.

अच्छी खबर यह है कि भारत ने पहले ही इस दिशा में पहल कर दी है. साल 2014 में नशीले पदार्थों से जुड़े कानून को आसान बनाया गया है, जो दर्द निवारक दवाओं तक पहुंच को रोकता था. साल 2019 के बाद से हर मेडिकल छात्र को दर्द का प्रबंधन और पैलिटिव केयर अनिवार्यत: सीखना है. साल 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत डेढ़ लाख स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण केंद्रों में स्वास्थ्यकर्मियों को इस संबंध में प्रशिक्षित किया जा रहा है.

लेकिन इसमें एक मुश्किल भी है. केंद्र और राज्य सरकारों का स्वास्थ्य के मद में आवंटन अभी भी सकल घरेलू उत्पादन का लगभग 1.6 प्रतिशत के बेहद कम स्तर पर है. अधिकतर देश औसतन कम-से-कम पांच प्रतिशत खर्च करते हैं. हम में से बहुतों ने अपने दादा-नाना से यह कीमती सीख ली है कि स्वास्थ्य संपत्ति से भी अधिक महत्वपूर्ण है. इस सीख को बहुत पहले भुला दिया गया है. यह जरूरी है कि लोग गंभीर होते स्वास्थ्य मुद्दों के प्रति जागरूक हों.

तीन साल पहले 120 देशों के 2000 प्रतिनिधियों ने प्राथमिक स्वास्थ्य के एक वैश्विक सम्मेलन में इस पर प्रतिबद्धता जतायी थी कि हर व्यक्ति का यह मौलिक अधिकार है कि वह किसी भेदभाव के स्वास्थ्य के उच्च स्तर का आनंद उठाये. यह चार दशक पूर्व के पहले वैश्विक सम्मेलन के संकल्प का ही दोहराव था. भारत भी इस संकल्प का भागीदार है, पर हमारे यहां इस संबंध में बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

जो गंभीर रूप से बीमार हैं और दुख सह रहे हैं, उनके पास आज कोई आवाज नहीं है. उनकी परेशानी को सुना जाना चाहिए. उक्त वैश्विक सम्मेलन, जिसका भारत भी एक हस्ताक्षरकर्ता है, की घोषणा में कहा गया है कि सबके लिए स्वास्थ्य तभी हो सकता है, जब सबके साथ स्वास्थ्य होगा. स्वास्थ्य-संबंधी गंभीर परेशानियों का उपचार करना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. इसके लिए बस समझौतों और नीतियों के प्रति संकल्प चाहिए, जिन पर हमने हस्ताक्षर किया है. भारत को अपनी प्रतिबद्धता का पालन करना चाहिए.

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