16.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सरौली सी मीठी आवाज

लता जी के गीतों में एक सतत और सकारात्मक परिवर्तन नजर आता है, जैसे एक काल-बिंदु पर गाया जा रहा गीत पिछले सभी गीतों का योगफल हो. तभी बिस्मिल्लाह खान और बड़े गुलाम अली खान सरीखे कहते रहे कि लता कभी बेसुरी नहीं होती.

वर्ष 1947 में जब भारतीय इतिहास नये मोड़ पर था, तब फिल्म संगीत के सुर भी बदल रहे थे. केएल सहगल की मृत्यु, नूरजहां का पाकिस्तान जाना और शमशाद बेगम की आवाज का मद्धिम पड़ना- जैसे एक सूर्य का अस्त हो रहा हो, एक नये सवेरे के लिए. अंग्रेजों के जाने के बाद जो उन्मुक्त ध्वनि प्रवाहित हुई, उसकी वाहक बनीं लता मंगेशकर. यह खुले गले की आवाज परंपरा से हट कर थी, जैसे बेड़ियां टूट गयीं हो.

यतींद्र मिश्र अपनी पुस्तक ‘लता सुर गाथा’ में लिखते हैं कि ‘हवा में उड़ता जाये मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात, 1949) गीत फिल्म संगीत को नये क्षितिज की ओर उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाजों की घूंघट में पल रहा था. कहा जा सकता है कि संगीत को ‘सुगम’ लता जी की आवाज ने ही बनाया. सुगम का अर्थ यहां आसान नहीं, उसके लचीलेपन और फलक के विस्तृत होने का है. खुले शब्दों में कहें, तो जितनी शक्ल लता जी की आवाज की दी जा सकती थी, उतनी शमशाद बेगम, जोहराबाई अंबालेवाली या सुरैया की आवाज को भी देना कठिन था.

पहले गायिका की आवाज के हिसाब से सिचुएशन बनाये जाते थे, अब किसी भी सिचुएशन पर लता जी के स्वर को सेट किया जा सकता था. शायद ही कोई रस हो, कोई कथानक हो, कोई पात्र हो, कोई कालखंड हो, या कोई संगीतकार हो, जहां तक लता जी की आवाज न पहुंची हो.

और यह सार्वभौमिकता यूं ही नहीं आयी. उनके पहले सफल गीत ‘आयेगा आने वाला’ (महल, 1949) को ही सुनकर जद्दनबाई ने दाद दी थी कि उर्दू में ‘बगैर’ का ऐसा उच्चारण हर किसी का नहीं होता, जबकि वे मराठी हैं. और यही बात उनके भोजपुरी गीत ‘जा जा रे सुगना जा रे’ (लागी नहीं छूटे रामा, 1963) के लिए भी कही जा सकती है.

उनकी आवाज जल की तरह पात्र का आकार ले लेती थी. शायद यही वजह रही कि जहां अभिनेताओं में हर किसी के लिए अलग गायक थे, वहीं अभिनेत्रियों की गायिका लता ही रहीं. यह श्रोताओं को भी अटपटा नहीं लगा क्योंकि वे पात्र के अनुसार सूक्ष्म स्तर पर अपना स्वरमान और अंदाज भी बदल लेती थीं, जैसे उनके प्रिय क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर पिच के हिसाब से अपने पैर और खेलने का ढंग बदलते रहे.

ऐसी आवाज को लोग ईश्वर-प्रदत्त या अलौकिक कहते रहे हैं, जो अपनी जगह ठीक भी है, लेकिन दूसरी लता मंगेशकर का आना तब तक असंभव है, जब तक कि उनकी तैयारी को न समझा जाये. लता जी के गीतों में एक सतत और सकारात्मक परिवर्तन नजर आता है, जैसे एक काल-बिंदु पर गाया जा रहा गीत पिछले सभी गीतों का योगफल हो. तभी बिस्मिल्लाह खान और बड़े गुलाम अली खान सरीखे कहते रहे कि लता कभी बेसुरी नहीं होती.

हिंदुस्तानी संगीत में रियाज की परंपरा रही है, लेकिन फिल्मी संगीत में ऐसी कोई गुरु-शिष्य परंपरा तो रही नहीं. और, लता जी इतनी कम उम्र में इस क्षेत्र में आ गयीं कि वह किसी गुरु के साथ लंबे समय तक जुड़ी भी न रह सकीं. तो यह कैसे मुमकिन हुआ? संभवत: इसके तीन आयाम होंगे- प्रयोगधर्मिता, अनुशासन और आजीवन सीखने की इच्छा.

अपने पिता की गोद में उन्होंने जीवन का पहला राग पूरिया धनश्री सीखा, फिल्मों में आने के बाद भी बंबई के भिंडी बाजार घराने के उस्ताद अमान अली खान से गंडा बंधवा कर राग हंसध्वनि में ‘लागी लगन सखी पति संग’ सीखा, अनिल विश्वास से ताल और लय की बारीकियां सीखीं, तो संगीतकार रोशन से शास्त्रीय संगीत की महीन बातें. मीरा के भजन भी गाये और ‘दर्द से मेरा दामन भर दे’ जैसी गजल भी.

उनका गाया असमिया गीत ‘जानाकोरे राति’ सुन कर आप असम पहुंच जाते हैं, वहीं इलैयाराजा के गीत ‘वलइयोसइ’ (सत्या, 1988) सुन कर चेन्नई. इसमें अलौकिकता से इतर वैज्ञानिकता भी है कि उन्होंने स्वयं को सर्वग्राह्य बनाया और ऐसा ही प्रयास फनकारों और अध्येताओं को करना चाहिए. अनुशासन की डोर से बंधे भी रहें और अपनी सोच में उन्मुक्त भी.

गुलजार साहब के एक संस्मरण में एक गीत का वाक्य आता है ‘सरौली सी मीठी लागे’. लता जी को सरौली का अर्थ नहीं मालूम था. उन्हें जब बताया कि यह एक आम है, तो वह पूछ बैठीं कि यह आम कितना मीठा होता है? दरअसल, उस गीत के लिए उन्हें अपनी आवाज में भी उतनी ही मिठास लानी थी, जितनी उस सरौली आम में थी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें