मेडिकल कॉलेजों की बढ़े संख्या

सरकार की यह जिम्मेदारी है कि फीस को लेकर नियमन करे, पर उसके साथ यह भी देखना होगा कि संस्थान अपना खर्च निकाल सकें.

By डॉ रोहन | March 4, 2022 9:53 AM

यूक्रेन संकट में वहां पढ़ रहे भारतीय छात्रों के सामने जो परेशानी आयी है, उससे हमारा ध्यान चिकित्सा शिक्षा की चुनौतियों की ओर गया है. हमारे छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन, चीन, रूस, फिलीपींस, किर्गिस्तान, जॉर्जिया, बांग्लादेश, कजाखस्तान, पोलैंड, आर्मेनिया जैसे देशों में जाना पड़ता है. इन देशों में एक लाख से अधिक भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं.

उनके इन देशों की ओर रुख करने की सबसे बड़ी वजह यह है कि हमारे यहां सरकारी संस्थानों में बहुत कम सीटें उपलब्ध हैं. जब इन संस्थानों में जगह नहीं मिलती, तो छात्रों के पास निजी शिक्षण संस्थानों का विकल्प होता है. इन संस्थानों को सरकार की ओर से कोई वित्तीय सहायता नहीं मिलती है. नेशनल मेडिकल कमीशन के आने के बाद निजी संस्थानों में कैपिटेशन फीस की प्रणाली तो समाप्त हो गयी, लेकिन एक मेडिकल कॉलेज को चलाने में बड़ी मात्रा में धन खर्च होता है.

इस धन को संस्थान छात्रों से ही शुल्क के रूप में लेते हैं क्योंकि उन्हें सरकारी सहायता नहीं मिलती है. विदेशों में सरकार निजी संस्थानों को भी मदद देती है, ताकि फीस अधिक न हो सके. इस कारण विभिन्न देशों में भारतीय छात्र पढ़ने जाते हैं. यह भी ध्यान देने की बात है कि दुनियाभर में 152 देशों में मेडिकल शिक्षा उपलब्ध है, तो आखिर हमारे अधिकतर छात्र यूक्रेन, चीन, रूस, फिलीपींस, किर्गिस्तान, जॉर्जिया, बांग्लादेश, कजाखस्तान, पोलैंड, आर्मेनिया जैसे देशों में ही क्यों जाते हैं.

इसका कारण है कि करियर काउंसलरों का एक आपराधिक गठजोड़ बन चुका है. अमूमन छोटे शहरों से आनेवाले छात्रों को ये लोग सपना दिखाते हैं कि हम आपको दुनिया दिखायेंगे, एमबीबीएस की डिग्री दिलायेंगे और इस पर खर्च भी कम होगा. यह भी कहा जाता है कि इन देशों में पढ़ाई अच्छी है और तमाम सुविधाएं भी उपलब्ध हैं. उनका दावा होता है कि इस कारण आप देश वापस आकर आसानी से विदेशी मेडिकल ग्रेजुएट एक्जाम पास कर लेंगे. इसके साथ भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों में बहुत अधिक फीस होने का हवाला भी होता है.

स्वाभाविक रूप से इन कारकों से छात्र और उनके अभिभावक आकर्षित होते हैं, पर जब वे वहां पहुंचते हैं, तो उन्हें वास्तविकता का पता चलता है. हमारे देश में निजी मेडिकल कॉलेज खोलने और चलाने को लेकर नियम-कानून हैं. नियंत्रण, निगरानी और निरीक्षण की व्यवस्था है ताकि समुचित गुणवत्ता सुनिश्चित की जा सके. निजी कॉलेजों पर नेशनल मेडिकल कमीशन की निगाह लगातार बनी रहती है. ऊपर उल्लिखित कई देशों में ऐसी स्थिति नहीं है.

अच्छी गुणवत्ता के कारण भारत में पढ़े डॉक्टरों की विदेशों में मांग है. मेरे कई मित्र अमेरिका और यूरोपीय देशों में अच्छा काम कर रहे हैं. जिन देशों में हमारे अधिकतर छात्र जाते हैं, वहां ऐसी गुणवत्ता नहीं है. वहां के कॉलेजों में न तो ढंग के उपकरण हैं, न ही शिक्षक और न ही अस्पताल हैं. वहां के संस्थानों पर भारत सरकार का कोई नियंत्रण भी नहीं है.

जो लोग छात्रों का एडमिशन कराते हैं, उन्हें वहां बैठे एजेंटों के माध्यम से उन कॉलेजों से प्रति छात्र कुछ लाख रुपये भी मिलते हैं. इन करियर काउंसलरों के संबंध कोचिंग संस्थानों से भी होते हैं, जहां इन्हें छात्रों की पृष्ठभूमि की जानकारी मिल जाती है और उस आधार पर वे उनसे संपर्क करते हैं. इस प्रकार, यह करोड़ों रुपये सालाना का अलग ही कारोबार बन गया है.

जो छात्र एक बार चले जाते हैं, उनके पास पाठ्यक्रम पूरा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि वे लाखों रुपये दे चुके होते हैं. जहां तक भारत में निजी संस्थानों में बहुत अधिक फीस का मसला है, इसका ठोस उपाय यही है कि हम सीट बढ़ायें और नये संस्थान खोलें. जिस चीज की मांग बहुत अधिक हो, पर आपूर्ति नहीं हो सके, उसका महंगा होना स्वाभाविक है.

सरकार की यह जिम्मेदारी है कि फीस को लेकर नियमन करे, पर उसके साथ यह भी देखना होगा कि संस्थान अपना खर्च निकाल सकें. एक मेडिकल कॉलेज औसतन छह-सात करोड़ रुपये डॉक्टरों के वेतन पर खर्च करता है. अगर निजी कॉलेजों को वित्तीय या अन्य प्रकार की सहायता नहीं मिलेगी, तो फीस कम कर पाना संभव नहीं होगा. हमें समझना होगा कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए व्यापक संसाधनों की आवश्यकता होती है.

एक विकल्प यह हो सकता है कि सरकारी संस्थानों में सीटें बढ़ायी जायें और अधिक सरकारी मेडिकल कॉलेज बनाये जायें. अगर किसी छात्र के सामने सरकारी और निजी कॉलेज का विकल्प हो, तो वह हमेशा सरकारी संस्थान को चुनेगा, लेकिन सीटें उपलब्ध नहीं होने पर उसके पास कोई चारा नहीं होता.

भारत में मेडिकल की पढ़ाई बहुत कठिन है और कई तरह की परीक्षाओं और प्रयोगों से छात्रों को गुजरना होता है. इस बारे में भी करियर काउंसलर भ्रम फैलाते हैं कि इतना कुछ करने का कोई औचित्य नहीं है और बाहर आसानी से अच्छी पढ़ाई की जा सकती है. ऐसे में सरकार की ओर से छात्रों को सही राय देने, काउंसलरों पर नियंत्रण करने तथा विदेशी संस्थाओं पर दबाव बनाना चाहिए.

सरकार विभिन्न देशों को निर्देश भेज सकती है कि अगर आप हमारे यहां के हजारों छात्रों को पढ़ा रहे हैं, तो कुछ निर्धारित मानकों को मानें. ऐसा नहीं करने पर उन संस्थानों में भारतीय छात्रों को नहीं जाने देने या उनकी डिग्री को मान्यता नहीं देने की शर्त रखी जानी चाहिए. अगर हमारे यहां फीस कुछ कम भी हो जाती है, तब भी बाहर जाने का सिलसिला नहीं रुकेगा क्योंकि वे संस्थान भी उसी हिसाब से कुछ कमी कर देंगे. विदेशी मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम का परिणाम आज तक दस प्रतिशत से ऊपर नहीं गया है.

इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उन देशों में पढ़ाई का स्तर क्या है. मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि उन देशों में स्तरहीन प्रशिक्षण दिया जाता है. हमें अधिक से अधिक डॉक्टरों की जरूरत है. इसके लिए स्वास्थ्य क्षेत्र में आवंटन को बहुत अधिक बढ़ाया जाना चाहिए.

इस दिशा में हो रही कोशिशों को तेज किया जाना चाहिए. कोरोना महामारी ने हमें दिखा दिया है कि स्वास्थ्य सेवा पर बहुत ध्यान देने की जरूरत है. अगर हम सुलभ और गुणवत्तापूर्ण मेडिकल शिक्षा सुनिश्चित नहीं करेंगे, तो अस्पतालों की कमी भी रहेगी, मेडिकल कॉलेज भी कम रहेंगे और हमारे हजारों छात्रों को हर साल स्तरहीन पढ़ाई के लिए दूसरे देशों में जाना पड़ेगा.

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