अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ी कीमतों पर काबू पाने के लिए अमेरिका, चीन, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया ने अपने संरक्षित रणनीतिक तेल भंडार से आपूर्ति करने का फैसला लिया है. विभिन्न देश ऐसा भंडारण आपात स्थितियों के लिए करते हैं. भारत पहली बार अपने इस भंडार से तेल निकाल रहा है. हमारे देश में 2005 में ऐसे भंडार की स्थापना पर विचार शुरू हुआ था और उस पर सैद्धांतिक सहमति बनी थी. इसका आधार यह था कि ऊर्जा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा विषय भी है.
इसका उद्देश्य भविष्य में किसी युद्ध या आपूर्ति संकट की स्थिति में ऐसे भंडारण से अपनी तात्कालिक आवश्यकताएं पूरी करने का था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद उस पर व्यावहारिक अमल शुरू हुआ और फिलहाल भारत में ऐसे तीन रणनीतिक भंडार हैं. इन भंडारों में अभी लगभग 5.33 मिलियन टन यानी करीब 38 मिलियन बैरल कच्चा तेल संग्रहित है.
इनमें से पांच मिलियन बैरल तेल बाजार में लाने की चर्चा है. अमेरिका, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया भी अपने स्तर पर आपूर्ति करेंगे. इसके पीछे वित्तीय चिंताएं अहम हैं. इस वित्त वर्ष में वित्तीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 6.8 फीसदी तक सीमित रखने का लक्ष्य है. लेकिन तेल की कीमतें इसी तरह उच्च स्तर पर बनी रहीं, तो इस लक्ष्य को पूरा कर पाना बहुत चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
कच्चे तेल की आपूर्ति का यह निर्णय उन देशों ने सामूहिक रूप से लिया है, जो तेल के सबसे बड़े आयातक देश हैं. एक प्रकार से यह तेल उत्पादक देशों के समूह ओपेक प्लस के बरक्स बड़े खरीदार देशों का समूह बन गया है, जिसमें भारत के अलावा अमेरिका, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं. ओपेक प्लस के देश अपने हितों को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों को नियंत्रित करते हैं. ये जो पांच देश हैं, वे संयुक्त रूप से 60 से 61 प्रतिशत तेल की खरीद करते हैं.
ओपेक प्लस का कारोबार और मुनाफा बहुत अधिक इन्हीं देशों के उपभोग पर निर्भर है. अगर इनमें से अमेरिका को हटा दें, तो अन्य चार देश एशिया से हैं. खरीद में अमेरिका की 12 फीसदी हिस्सेदारी है. इस हिसाब से लगभग आधी अंतरराष्ट्रीय खरीद इन चार एशियाई देशों द्वारा की जाती है. इससे यह भी इंगित होता है कि वैश्विक स्तर पर जो वृद्धि है, वह मुख्य रूप से एशियाई देशों द्वारा संचालित है, जिसमें चीन और भारत की अग्रणी भूमिका है.
चीन लगभग कुल आयात का 25-26 फीसदी तेल आयात करता है और भारत की खरीदारी 9-10 प्रतिशत के आसपास है. भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक देश है और चीन पहले पायदान पर है. इस समूह के साथ आने से ओपेक प्लस की ताकत को संतुलित करने में मदद मिल सकती है. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत और चीन के संबंध अभी अच्छे नहीं हैं तथा अमेरिका और चीन के बीच भी मतभेद की स्थिति है. लेकिन तेल की स्थिति को लेकर ये सभी देश साथ आये हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ऐसे अवसर आते हैं, जब विभिन्न देश आपसी रंजिशों को किनारे रख मौजूदा जरूरतों को देखते हुए एक साथ आ जाते हैं.
ऊर्जा सुरक्षा को लेकर एक दीर्घकालिक दृष्टि होती है और दूसरी तात्कालिक स्थितियों या कुछ समय के हिसाब से तय होती है. दीर्घकालिक दृष्टि से देखें, तो ऊर्जा से संबंधित चुनौतियों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम जीवाश्म आधारित ईंधनों पर अपनी निर्भरता को कम करें और वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ें. हमें स्वच्छ ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा आदि के बारे में ठोस कदम उठाने होंगे.
लेकिन अभी हमें तेल और प्राकृतिक गैसों की बड़ी जरूरत है. हाल ही में संपन्न हुए ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में भारत और चीन ने कोयला के उपयोग को रोकने से जुड़े समझौते के प्रारूप में उल्लेखित प्रावधान में संशोधन कराया और उसमें अंतिम रूप से यह लिखा गया कि ऊर्जा के लिए कोयला पर निर्भरता में क्रमश: कमी की जायेगी. दोनों देश अपने बिजली संयंत्रों के ईंधन के रूप में कोयले पर आश्रित हैं. ग्लासगो में भी हमने देखा कि दोनों देशों ने परस्पर मतभेदों से परे जाकर एक साथ मिलकर प्रावधान में संशोधन कराया.
यही सहयोग हम तेल के बारे में भी देख रहे हैं. हमें यह भी देखना होगा कि तेल की कीमतों के साथ प्राकृतिक गैसों के दाम भी बढ़ते चले जा रहे हैं. पिछले साल कोरोना महामारी के कारण इन चीजों का उपभोग कम हो गया था और अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी इनके दाम काफी गिर गये थे. इससे हमारा आयात खर्च भी कम हो गया था. लेकिन औद्योगिक और कारोबारी गतिविधियों में तेजी आने तथा अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी के कारण पेट्रोलियम पदार्थों की मांग बढ़ती जा रही है. यह रुझान भविष्य में भी बना रहेगा.
महामारी के बाद ऊर्जा की मांग बढ़ने के अलावा एक अन्य कारक भी ध्यान में रखना चाहिए कि सर्दियों के मौसम में पेट्रोलियम पदार्थों की मांग कुछ बढ़ जाती है. ऐसे में तेल उत्पादक देश भी फायदा उठाने की ताक में रहते हैं. ऊर्जा स्रोतों की आपूर्ति का संबंध भू-राजनीतिक समीकरणों से भी होता है. तेल उत्पादक देशों के समूह के नेता के रूप में सऊदी अरब और बड़ा उत्पादक होने के नाते रूस बाजार पर अपने नियंत्रण को बरकरार रखना चाहते हैं.
अमेरिका, भारत, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के एक साथ आने और अपने रणनीतिक भंडार से आपूर्ति करने के निर्णय से निश्चित ही उत्पादक देशों पर दबाव बढ़ेगा. ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि वे जल्दी ही आपूर्ति बढ़ाकर कीमतों को नीचे लाने में योगदान करेंगे. रणनीतिक भंडार होने से हमें कुछ दिनों का समय मिल गया है कि बढ़े हुए दाम को एक हद तक नीचे लाया जा सके. तेल पर बहुत अधिक निर्भरता के कारण जब आयात का खर्च बढ़ता है, तब केवल कीमतें ही प्रभावित नहीं होती हैं, बल्कि सरकार के लिए कल्याणकारी और विकास योजनाओं पर खर्च करना भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है.
मुद्रास्फीति बढ़ने की समस्या भी गंभीर हो जाती है. हमें संतोष होना चाहिए कि वर्तमान सरकार ने सक्रियता से व्यावहारिक पहल करते हुए रणनीतिक तेल भंडारण की व्यवस्था की. यदि पहले से ही ऐसा नहीं किया जाता, तो हमारे पास महंगा तेल आयात करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता. कूटनीतिक और रणनीतिक दृष्टि से भी इस संबंध में भारत तेल उत्पादक और तेल आयातक देशों से बेहतर तालमेल बैठा पाने की स्थिति में है. आशा है कि जल्दी ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्थिरता आ जायेगी.