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ऐसा ही कानून का राज होना चाहिए

नियम और कानून की अनदेखी की प्रवृत्ति उत्तर भारत में अधिक है. इसकी एक वजह है कि आजादी के 75 वर्षों के दौरान अधिकांश समय सत्ता उत्तर भारतीयों के हाथों में रही है.

ब्राजील के लोग फुटबॉल के दीवाने हैं. उनकी टीम विश्व कप के इतिहास में सबसे सफल राष्ट्रीय टीम है, जो हर विश्व कप में खेलनेवाली एकमात्र टीम है. फुटबॉल के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि अंग्रेजों ने भले ही इसका अविष्कार किया हो, पर ब्राजील के लोगों ने इसे आत्मसात किया है. यहीं से पेले आते हैं, जिन्हें सर्वकालीन महान फुटबॉल खिलाड़ी माना जाता है. वे फुटबॉल के शहंशाह माने जाते हैं.

कोरोना महामारी के कारण ब्राजील में फुटबॉल मैचों पर रोक लगा दी गयी थी. अरसे बाद वहां दो प्रसिद्ध फुटबॉल क्लबों- सैंटोस और ग्रेमियो- के बीच मुकाबला होना था. दिशा निर्देश तय कर दिये गये थे कि केवल संपूर्ण टीकाकरण करवानेवाले या नेगेटिव आरटी-पीसीआर जांच रिपोर्ट वाले लोग ही स्टेडियम में जाकर मैच देख सकेंगे. ब्राजील के राष्ट्रपति बोल्सोनारो गजब शख्स हैं. उन्होंने कोरोना टीकों के प्रति संदेह व्यक्त किया था और खुद टीका नहीं लगवाया है.

जुलाई, 2020 में वे खुद संक्रमित हुए थे और 14 दिन के क्वारंटाइन के बाद काम पर लौट आये थे. इस दिलचस्प मुकाबले को देखने वे भी स्टेडियम पहुंच गये. लेकिन अधिकारियों ने उन्हें मैच देखने की अनुमति नहीं दी. उन्होंने बेहद सम्मान के साथ राष्ट्रपति से कहा कि पहले आप कोरोना टीका लगवा लें, फिर आप आगे का मैच देख सकते हैं.

एक वीडियो में राष्ट्रपति बोल्सोनारो कहते हुए नजर आ रहे हैं कि वह सिर्फ सैंटोस का मुकाबला देखना चाहते थे, लेकिन अधिकारियों ने उन्हें अनुमति नहीं दी. राष्ट्रपति ने कई दलीलें भी दीं, पर अधिकारी नहीं माने. बोल्सोनारो ने संवाददाताओं से कहा कि उनके पास उन लोगों की तुलना में अधिक एंटीबॉडी हैं, जिन्होंने वैक्सीन ली है. इसके अलावा अन्य लोगों के मुकाबले उनकी प्रतिरोधक क्षमता भी बहुत अधिक है और उन्हें कोरोना का खतरा नहीं है.

लेकिन उनकी दलील नहीं सुनी गयी. ब्राजील में कोरोना का व्यापक असर है और वहां संक्रमण से मरनेवालों की संख्या छह लाख से अधिक हो चुकी है. मौतों के मामले में वह दुनिया में दूसरे स्थान पर है, जबकि संक्रमण के मामले में अमेरिका और भारत के बाद ब्राजील तीसरे स्थान पर है. कहने का आशय यह है कि संदेश साफ है कि भले ही आप देश के राष्ट्रपति हों, लेकिन आप कानून से ऊपर नहीं हैं. अगर आप नियमों का पालन नहीं करेंगे, तो आपके साथ आम आदमी के समान ही व्यवहार होगा.

इसकी तुलना में भारत में परिस्थितियां देख लें. नेता व अधिकारी पुत्रों की दबंगई के मामले रोजाना सामने आते हैं, लेकिन कुछ मामलों में ही कार्रवाई होती है. अधिकारियों की हिम्मत नहीं होती है कि उनसे नियम-कानून के पालन की बात भी कह दें. सैकड़ों में कहीं एक मामला सामने आता है, जब कोई अधिकारी उनसे नियम-कानून पालन करवाने का जज्बा दिखाता है. कुछ समय पहले पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों ने कोरोना वैक्सीन लिये बिना काम पर लौटने से रोकने की कोशिश की थी.

लेकिन उसका भारी विरोध हुआ, मामला अदालत तक चला गया और उसे वापस लेना पड़ा. मुझे याद है, जब मैं बीबीसी लंदन में कार्यरत था, तब टोनी ब्लेयर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे. उनका 16 साल का बेटा इम्तिहान खत्म होने की खुशी में एक पब में दोस्तों के साथ पार्टी कर रहा था. इस दौरान उसे कुछ ज्यादा चढ़ गयी और पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया. टोनी ब्लेयर की पत्नी शैरी ब्लेयर को थाने जाकर बेटे को छुड़ाना पड़ा था.

टोनी ब्लेयर या फिर किसी अन्य ने उसके बचाव की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान के जरिये घटना पर खेद प्रकट किया था. भारत में कहीं के मुख्यमंत्री, मंत्री या सेलिब्रिटी के बेटे को हाथ लगा कर तो देखिए. पूरे तंत्र पर हल्ला बोल दिया जाता है. लखीमपुर खीरी की घटना इसका ताजा उदाहरण है. केंद्रीय मंत्री के पुत्र पर गंभीर आरोप हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस पूरा दिन इंतजार करती रही और वह पूछताछ के लिए पेश ही नहीं हुआ. वह दूसरे दिन प्रकट हुआ. फिल्म स्टार शाहरुख खान का बेटा गिरफ्तार हुआ है और उस पर भी कितनी हाय-तौबा मची हुई है.

नियम और कानून की अनदेखी जैसे हमारी प्रवृत्ति बन गयी है. उत्तर भारत में यह अधिक है. इसकी एक वजह है कि आजादी के 75 वर्षों के दौरान अधिकांश समय सत्ता उत्तर भारतीयों के हाथों में रही है. लोगों की सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुंच आसान रही है. मुझे लगता है कि इसी वजह से नियम-कानूनों को तोड़ने का चलन बढ़ता गया है. आप गौर करें कि रेड लाइट उल्लंघन में फाइन देने के बजाय लोग पैरवी लगा कर छूटने की कोशिश करते नजर आते हैं.

एक बार किसी पारिवारिक समारोह में शामिल होने मुंबई गया था. वहां एक सज्जन उत्तर प्रदेश से कार से आये थे, जिसका ड्राइवर भी यूपी से था. वह कभी दाहिने, तो कभी बाएं से अपनी कार आगे निकालने की लगातार कोशिश कर रहा था. मुंबई के एक सज्जन ने अपनी गाड़ी रोक कर कहा कि कृपया आड़ी-तिरछी कार न चलाएं और यातायात के नियमों का पालन करें. यह बात उन सज्जन और उनके ड्राइवर को बहुत बुरी लगी क्योंकि उन्हें नियमों के पालन की आदत ही नहीं थी. हम लोग किसी कार्य के लिए लाइन में खड़े होना शान के खिलाफ मानते हैं.

पिछले साल शादियों में शामिल होने की संख्या को लेकर राज्य सरकारों ने अनेक नियम बनाये थे, लेकिन लगातार उनकी अनदेखी होती रही. निर्धारित संख्या से कहीं अधिक संख्या में लोग विवाह समारोहों में शामिल हो रहे थे. ऐसे रवैये ने कोरोना फैलाने में बड़ी भूमिका निभायी. अब फिर शादियों का मौसम आ रहा है. महामारी को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के अनेक दिशा-निर्देश अब भी हैं. लेकिन हम उन सबसे बेपरवाह नजर आ रहे हैं.

देखने में आया है कि जैसे-जैसे देश में कोरोना के कारण लगी पाबंदियों में छूट दी गयी, वैसे ही लोगों ने मान लिया है कि कोरोना अब समाप्त हो गया है. दुर्गा पूजा और दशहरे के दौरान बाजारों में भारी भीड़ जमा हुई और लोग लापरवाह नजर आ रहे हैं. यह केवल बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल ही नहीं, पूरे देश की कहानी है. लोगों ने तो मास्क तक उतार कर फेंक दिया है. दीपावली और छठ के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क की अनदेखी संकट को बढ़ा सकती है. यह बात सभी को स्पष्ट होनी चाहिए कि कोरोना के खिलाफ लड़ाई लंबी चलेगी और सरकारी दिशा-निर्देशों की अवहेलना की प्रवृत्ति हम सबको संकट में डाल सकती है.

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