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प्रकृति के प्रति बदलें द‍ृष्टिकोण

पर्यावरण के बचाव और विकास के मौजूदा स्वरूप को लेकर बहुत भ्रामक स्थिति है. प्रकृति संरक्षण के प्रति समाज जितनी जल्दी जागेगा, उतनी जल्दी हम बदलाव के दुष्प्रभावों से बच पायेंगे.

वर्तमान में दुनिया जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती का सामना कर रही है. आज यह जानना आवश्यक हो गया है कि विकास के नाम पर हम जो भी काम कर रहे हैं, क्या वह प्रकृति के अनुरूप है. प्रकृति संरक्षण के सवाल पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. अगर हमारा विकास का काम प्रकृति को प्रभावित और उसे नष्ट करता है, तो उसे विकास नहीं कहा जा सकता. आज विश्वभर में प्रकृति की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं.

पिछले एक-डेढ़ सदी में इंसान ने औद्योगिकीकरण और विकास के नाम पर जो कुछ किया है, उसका असर अभी हम भुगत रहे हैं. चीन में तबाही मचानेवाली बाढ़ आ रही है. यूरोप में भी बाढ़ की विभीषिका है, जो बीते 50-100 वर्षों में पहले कभी नहीं देखी गयी थी. अमेरिका के कई हिस्सों में सूखे पड़ रहे हैं और वनों में आग लगने की घटनाएं सामने आ रही हैं.

भारत में भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं. महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में बाढ़ जैसी घटनाओं को देखा जा रहा है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भूस्खलन की खबरें आती रही हैं. फरवरी में चमोली में बड़ा हादसा हुआ था. हाल-फिलहाल में अनेक प्राकृतिक घटनाएं हुई हैं. यह हमारे लिए चेतावनी है.

हम यदि सबक नहीं लेंगे और विकास की वर्तमान प्रक्रिया में जरूरी बदलाव नहीं करेंगे, तो प्रकृति की ये प्रतिक्रियाएं लगातार बढ़ती ही जायेंगी. अगर आज हम नहीं जागे, तो हमारी भविष्य की पीढ़ी का नाश निश्चित है. जिस तरह जलवायु में बदलाव हो रहा है, उससे स्पष्ट है कि वर्तमान पीढ़ी को भी आनेवाले समय में इन आपदाओं का खामियाजा भुगतना पड़ेगा.

हमारे पास दूसरी पृथ्वी नहीं है. एक ही पृथ्वी है, जहां हमें रहना है और उसे रहने योग्य बना कर रखना है. अभी हमें यह नहीं दिख रहा है कि सत्ता में बैठे लोग जाग रहे हैं. अब भी हम लोग इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जीडीपी ग्रोथ ही विकास है. जितने बड़े प्रोजेक्ट होंगे, उतना ही अधिक विकास करेंगे. सरकार के नुमाइंदे सोचते हैं कि अभी हमें विकास का काम पूरा कर लेना है, प्रकृति के साथ जो कुछ हो रहा है, उससे हम बाद में निबट लेंगे.

यानी विकास की मौजूदा अवधारणा प्रकृति की संरक्षणवादी सोच पर हावी हो रही है. हमारी यह सोच गलत है. वास्तव में प्रकृति, पर्यावरण के बचाव और विकास के मौजूदा स्वरूप को लेकर बहुत भ्रामक स्थिति है. प्रकृति संरक्षण के प्रति समाज जितना जल्दी जागेगा और इसे लेकर हम जितने प्रभावी कदम उठायेंगे, उतना जल्दी ही हम बदलाव के दुष्प्रभावों से बच पायेंगे. यह संभव है, लेकिन उसे हमें तात्कालिक तौर पर करने की जरूरत है.

वन्य जीवों और वनस्पतियों के संरक्षण की दिशा में भी हमें सोचना और काम करना होगा. कोई भी प्रजाति, चाहे वह प्राणि जगत से हो या वनस्पति जगत से, उसे बचाने का मतलब है कि उसके प्राकृतिक वास यानी हैबिटेट को बचाना. वह जिस प्राकृतिक आवास में रहता है, जहां वह पनप सकता है, जहां उसके विकास के लिए अनुकूल दशाएं मौजूद हों, उसका अगर हम पुन:स्थापन करेंगे, तो संभव है कि ऐसी प्रजातियां फिर से विकसित होने लगें.

वास्तव में, कई सारी जगहों पर ऐसा करने में सफलता भी मिली है. अमेरिका और अन्य कई देशों में यह प्रयोग किया गया है कि अगर किसी नदी के बहाव को अवरुद्ध कर दिया जाता है और डेल्टा तक पानी नहीं पहुंच पाता है, उससे डेल्टा में प्राकृतिक विविधता नष्ट हो जाती है. नदियों पर बांध बना देने की वजह से नदी का पानी समुद्र तक नहीं पहुंच पाता है.

दरअसल, डेल्टा क्षेत्र जैव-विविधता के मामले में काफी समृद्ध क्षेत्र होता है. देखा गया है कि जब नदी में फिर से पानी बहना शुरू हो जाता है और नदी का पानी डेल्टा तक पहुंचने लगता है, तो कुछ वर्षों (दो से तीन सालों में) में ही बहुत सारी जैव-विविधता वापस आने लगती है.

ऐसे बहुत सारे प्रयोग हुए हैं, जो दिखाते हैं कि जिस प्राकृतिक अवस्था यानी हैबिटेट में जीवों और वनस्पतियों का विकास हो सकता है, उसका पुन:स्थापन करना जरूरी है. ऐसा करने से संभव है कि बहुत सारी प्रजातियां, जो खत्म हो चुकी होती हैं, वे दोबारा से आ जाती हैं. कई प्राकृतिक वास में पुनरावर्तन हुआ है. अनुकूल दशाएं होने पर जीव-जंतु और वनस्पतियां दोबारा पनपने लगती हैं. दुर्भाग्य से हम ऐसे प्राकृतिक वासों को नष्ट करते जा रहे हैं.

हालांकि, दुनियाभर में पर्यावरण संरक्षण के लिए अलग-अलग स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं, लेकिन उसमें अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पा रही है. इसके पीछे अहम कारण है कि सरकारें और आधिकारिक एजेंसियां आज भी यह समझने और स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं कि हम कितने बड़ी प्राकृतिक आपदा का सामना कर रहे हैं और आपदाएं क्यों आ रही हैं?

सरकारें इस भ्रम में हैं कि अभी तो हम विकास कर लें, बाकी प्रकृति संरक्षण, जैव विविधता, नदियों, समुद्र, जंगल आदि जैसे काम को बाद में देख लेंगे. जब तक यह भ्रम नहीं टूटेगा, तब तक हम यह नहींं समझेंगे कि जो हमें विकास करना है और समाज का उत्थान करना है, वह सिर्फ और सिर्फ प्रकृति संरक्षण के साथ ही हो सकता है, वह विकास और उत्थान प्रकृति को नष्ट करके नहीं हो सकता है. इसे लेकर हमारे पास समझ नहीं है. इसीलिए इसे हम स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. यही वजह है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हमारा जो भी प्रयत्न हो रहा है, वह नाकाम ही है.

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