जलवायु संकट का बच्चों पर असर
पर्यावरण संबंधी हस्तक्षेप जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रख कर किये जाएं, क्योंकि यह बच्चों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है तथा इससे स्वास्थ्य विषमता बढ़ती है.
यह आम तौर पर माना जाता है कि जलवायु संकट एक ऐसा खतरा है, जिससे निबटने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है. संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) द्वारा हाल में प्रकाशित रिपोर्ट ने इस खतरे की गंभीरता के प्रति दुनिया को चेतावनी दे दी है. संबंधित तथ्य सभी के समक्ष उपलब्ध हैं- बीस लाख वर्षों में वातावरण में सबसे अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी 2019 में दर्ज की गयी थी,
बीते तीन हजार वर्षों में समुद्र का जलस्तर सबसे अधिक तेजी से साल 1900 के बाद बढ़ना शुरू हुआ है तथा वैश्विक स्तर पर सामुद्रिक तापमान में 11 हजार सालों में सबसे अधिक बढ़ोतरी बीती सदी में हुई है. ऐसे कई तथ्य हैं.
समूची मानव जाति के लिए इस जलवायु संकट के व्यापक और सघन प्रभाव हैं, लेकिन कुछ समूहों, विशेष रूप से बच्चों, पर इसका बहुत अधिक असर है. यूनिसेफ ने इस समस्या पर बच्चों के अधिकारों की रौशनी में हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की है. यह जलवायु संकट के बच्चों पर असर के अध्ययन का एक उदाहरण है. इसके तहत एक नयी अवधारणा प्रस्तुत की है, जिसे बच्चों के लिए जलवायु संबंधी जोखिम सूचकांक कहा गया है. इसमें उपलब्ध आंकड़ों और सूचनाओं के आधार पर एक ऐसा वैश्विक साक्ष्य तैयार किया जा रहा है,
जिससे यह जाना जा सकता है कि वर्तमान में कितने बच्चे जलवायु एवं पर्यावरण के खतरों, झटकों और तनावों से प्रभावित हैं. दो श्रेणियों में यह सूचकांक 57 कारकों के आधार पर 163 देशों में जोखिम का आकलन कर रहा है. इनमें वे देश शामिल नहीं हैं, जहां के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
इसमें अनेक छोटे विकासशील द्वीपीय देशों को भी शामिल नहीं किया गया है. यह सूचकांक दो आधारों पर काम करता है- एक, जलवायु एवं पर्यावरण के खतरों, झटकों और तनावों के प्रभाव तथा दूसरा, बच्चे के लिए जोखिम. दूसरे आधार के अंतर्गत उन अधिकारों के अनुसार बच्चे के जोखिम और उसकी सहने की क्षमता का आकलन होता है, जिन्हें बाल अधिकारों के कन्वेंशन के तहत निर्धारित किया गया है. स्पष्ट रूप से जलवायु संकट बच्चों के अधिकारों से संबंधित ऐसा बहुआयामी संकट पैदा कर रहा है, जो पहले कभी घटित नहीं हुआ.
बाल अधिकार कन्वेंशन के अनुसार, बाल अधिकारों का संरक्षण प्राथमिक रूप से राज्य का उत्तरदायित्व होता है और मुख्य संरक्षक होने के नाते उसे अपने उत्तरदायित्व का अनुपालन करना होता है. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपने निर्णय जलवायु पर होनेवाले दीर्घकालिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए करे तथा इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि निर्णयों से बच्चों के हित सुरक्षित रहें.
कमिटी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि पर्यावरण संबंधी हस्तक्षेप जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रख कर किये जाएं, क्योंकि यह बच्चों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है तथा इससे स्वास्थ्य विषमता बढ़ती है. इसलिए राज्य को जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियों के निर्धारण में बच्चों की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को केंद्र में रखना चाहिए. समुचित शिक्षा और स्थानीय एवं वैश्विक चुनौतियों, जिनमें जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण क्षरण भी शामिल हैं, का सामना करने में सहयोग के माध्यम से बच्चों की भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
हालांकि यह आशा से भरा है, पर कुछ समस्याएं भी हैं. बहुत से अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरह इसके पास भी सुझाव या निष्कर्ष लागू कराने का तंत्र नहीं है. इसलिए यह लगभग पूरी तरह राष्ट्रीय कानूनी साधनों पर निर्भर है. इस कारण संयुक्त राष्ट्र द्वारा चयनित 18 विशेषज्ञों का समूह और हर पांच साल में इसके द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट एक तरह से प्रभावहीन हो जाते हैं.
बच्चों के अधिकारों की सामाजिक वास्तविकता पर 2012 में प्रकाशित अपनी किताब में समाजशास्त्री मैनफ्रेड लाइबेल ने कहा है, ‘आज तक सुझावों के प्रभावों का तथ्य आधारित अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन यह स्पष्ट है कि उन्हें लगातार अनदेखा किया जाता है, उनकी मनमानी व्याख्या होती है या अधिक से अधिक उनमें से कुछ को लागू किया जाता है.’ बाल अधिकार से जुड़ी एक समस्या यह भी है कि बच्चे यानी अधिकार रखनेवाले और निर्णय लेने के लिए अधिकृत लोगों यानी नैतिक प्रतिनिधियों के बीच जुड़ाव नहीं होता.
भारत ने 1992 में इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किया था और तब से उन अधिकारों के अमल के लिए अनेक कदम उठाये गये हैं. फिर भी यह उल्लेखनीय है कि सतत विकास लक्ष्यों के तहत भारत रैंकिंग में पिछड़ गया है और लैंगिक समानता, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में अहम चुनौतियां बरकरार हैं. पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और भारत चार ऐसे दक्षिण एशियाई देश हैं, जहां बच्चों के लिए जलवायु संकट के खतरों के असर का बहुत अधिक जोखिम है. भारत में यूनिसेफ के प्रतिनिधि डॉ यास्मीन अली हक के शब्दों में, ‘जलवायु परिवर्तन एक बाल अधिकार संकट है.’
बच्चों के लिए जलवायु संबंधी जोखिम सूचकांक ने जलवायु परिवर्तन के जल की कमी, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा पर नकारात्मक असर से बच्चों की गंभीर वंचना को रेखांकित किया है. इसमें भारत को 33 सर्वाधिक जोखिम वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है, जहां लगातार बाढ़ और वायु प्रदूषण से महिलाओं और बच्चों को खराब सामाजिक व आर्थिक नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं. इन 33 देशों में लगभग एक अरब बच्चे रहते हैं.
आनेवाले वर्षों में 60 करोड़ से अधिक भारतीय पानी की गंभीर कमी की समस्या का सामना करेंगे. इसी अवधि में वैश्विक तापमान के दो डिग्री सेल्सियस से अधिक होने के साथ भारत के शहरी क्षेत्रों में अचानक बाढ़ की बारंबारता भी बढ़ेगी. भारत में बच्चों व किशोरों की दुनिया में सबसे अधिक आबादी के मद्देनजर रिपोर्ट में दर्ज चुनौतियां आगे और भी बढ़ेंगी. बच्चों को ध्यान में रखते हुए बनी यह पहली रिपोर्ट है और इसमें बेहतर विश्लेषण के तौर-तरीके अपनाये गये हैं.
इस नाते यह बेहद सराहनीय सूचकांक है, लेकिन इसके साथ यह समस्या भी है कि यह मात्र एक रिपोर्ट ही है. भले ही यह डराने की कोशिश लगे, लेकिन आइपीसीसी की रिपोर्ट के तथ्यों और हमारे सामने मौजूद जलवायु संकट के प्रभावों को देखते हुए हमें सोचना होगा कि क्या हमारे पास पहले से चली आ रही समझ और पर्यावरणवाद के तरीके के लिए समय बचा हुआ है. इसका उत्तर नकारात्मक है. सो हमारा भविष्य क्या है? कैसे हम बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करेंगे? सही दिशा में अग्रसर होने के लिए हमारा प्रयास क्या होगा?