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ईरान में रईसी की जीत के मायने

प्रधानमंत्री मोदी ने रईसी को जीत पर बधाई दी है और संभव है कि जल्दी ही कोई भारतीय प्रतिनिधिमंडल ईरान जाये. अच्छे संबंध की हमारी कोशिश जारी रहेगी.

राष्ट्रपति का यह चुनाव ऐसे वक्त में हुआ है, जब ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अली खामनई के उत्तराधिकार की भी चर्चा हो रही है. दूसरी बात, ऐसा माना गया कि वर्तमान उदारवादी सरकार कोरोना महामारी की रोकथाम और उससे बचाव में असफल रही. ईरानी सत्ता को यह अहसास भी हो गया था कि बाइडेन प्रशासन के दौर में अमेरिका परमाणु समझौते में वापस शामिल होना चाहता है.

खामनई और रूढ़िवादी नेतृत्व ने इसे अपनी रणनीतिक समझ के अनुरूप देखा कि देश के भीतर अपनी स्थिति को बरकरार रखते हुए अमेरिका व पश्चिम के साथ संबंधों की दिशा में भी आगे बढ़ा जाए. बहरहाल, मैं ईरान के चुनाव को चुनाव नहीं मानकर चयन मानता हूं. चयन की प्रक्रिया यह है कि वहां की गार्डियन काउंसिल उम्मीदवारों का चयन करती है. इस काउंसिल के सदस्यों को खामनई तय करते हैं.

पिछले चुनाव में भी इब्राहिम रईसी खड़े हुए थे, पर जीत उदारवादी रूहानी को मिली. इस बार भी ऐसी उम्मीद की जा रही थी. लेकिन अभी ईरान की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है. देशभर में दंगे-फसाद और प्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा है. ऐसे में ईरानियों ने अपेक्षाकृत युवा उम्मीदवार पर भरोसा किया, जो साठ साल के हैं और उनके पास समय है. रईसी न्याय व्यवस्था के प्रमुख भी हैं और धार्मिक नेता खामनई के बहुत नजदीक भी हैं. सैकड़ों उम्मीदवारों में से सात को चुनाव लड़ने की अनुमति मिली थी, जिनमें से कुछ रईसी के समर्थन में बैठ भी गये थे.

यह पहले से ही साफ था कि इब्राहिम रईसी चुनाव जीतेंगे. यदि आप अमेरिका और यूरोप के नजरिये से देखेंगे, तो यह चुनाव प्रक्रिया ठीक नहीं लगेगी कि लोगों को भागीदारी का मौका नहीं मिला, पर जो भी हो, अंतत: यह ईरानी व्यवस्था है और काम करने के उसके अपने ढंग हैं. कंजरवेटिव होने के बावजूद जो पहला बयान रईसी ने दिया है, वह यह कि अमेरिका जल्दी से परमाणु समझौते में आये और हम आगे बढ़ें. देखिए, आखिरकार सबको पैसा चाहिए.

अमेरिका ने एक अच्छा रुख दिखाते हुए कोरिया में फंसे ईरान के 20 अरब डॉलर को मुक्त करा दिया है. उसी धन से ईरान संयुक्त राष्ट्र में अपनी सदस्यता शुल्क का भुगतान कर सका है. बाइडेन प्रशासन की कोशिश है कि किसी भी तरह ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा को नियंत्रित किया जाए, लेकिन अगर ईरानियों पर बहुत अधिक दबाव डाला जायेगा, तो वर्तमान रूहानी सरकार के रवैये से रईसी की सरकार का रूख बहुत अलग रहेगा. उल्लेखनीय है कि अगस्त के मध्य में रईसी पदभार संभालेंगे. रईसी सरकार रूस और चीन के साथ मिलकर अपनी स्थिति को आगे ले जाने की कोशिश करेगी.

अब अमेरिका का मुख्य फोकस हिंद-प्रशांत क्षेत्र में है. ऐसे में जब से उसने इराक से अपने को हटाना शुरू किया है, तब से मध्य-पूर्व के देश नये समीकरण बनाने में लगे हुए हैं. ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में अब्राहम समझौता हुआ, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को और सूडान तथा इजरायल के बीच सहयोग का प्रस्ताव था. इनके संबंध तो पहले से ही थे, पर इस समझौते के बाद यह औपचारिक हो गया. अभी पहली बार इजरायल के विदेश मंत्री ने संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा की है.

दूसरी तरफ, 2017 में जब सऊदी अरब ने कतर पर पाबंदियां लगायी थी, तब कतर और ईरान नजदीक आ आ गये थे. कतर से तुर्की की भी निकटता बढ़ गयी थी. अब सऊदी अरब और कतर के झगड़े खत्म हो गये हैं. कतर की कोशिश है कि इराक के साथ मिलकर ईरान और सऊदी अरब के रिश्तों में कुछ बेहतरी लायी जाए. इस संबंध में कुछ बैठकें भी हो चुकी हैं. ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ ने भी बयान दिया है कि उनका देश फिर सऊदी अरब में राजदूत भेजने के लिए तैयार है.

सऊदी अरब के लिए अभी सबसे जरूरी यह है कि वह किस तरह से यमन मसले का हल निकले. वहां हूथी खेमे को ईरान धन और हथियार देकर मदद करता है. यमन युद्ध का समाधान तभी संभव है, जब उसमें ईरान की भूमिका भी हो. सऊदी अरब के लिए अब यह युद्ध एक बोझ बन चुका है.

ईरान और इसरायल एक-दूसरे को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते हैं, खास तौर से 1979 के बाद से. उससे पहले यह स्थिति नहीं थी. शाह के दौर में ईरान में इजरायली सहयोग से ही परमाणु संयत्र आदि बने थे. वह तब सैन्य सहायता भी मुहैया कराता था. ईरान में अभी भी बहुत यहूदी रहते हैं. बीते कुछ समय से ईरान के परमाणु ठिकानों पर दुर्घटनाएं हुई हैं तथा वरिष्ठतम परमाणु वैज्ञानिक फकीरजादे की हत्या भी हुई है.

ईरान इनके लिए इसरायल खुफिया एजेंसी मोसाद को जिम्मेदार मानता है. पिछले साल बगदाद में शीर्षस्थ ईरानी सैन्य कमांडर सुलेमानी को अमेरिकियों ने मारा. उसमें भी मोसाद का हाथ होने की चर्चा होती रहती है. ऐसी घटनाओं पर ईरान की उदारवादी सरकार ने कोई कठोर प्रतिक्रिया नहीं की. इस रणनीतिक धैर्य का कारण यह था कि वे परमाणु समझौते की संभावनाओं को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे. अमेरिकी पाबंदियों से बदहाल अर्थव्यवस्था को बचाना उनकी मुख्य चिंता थी. लेकिन अब कंजरवेटिव सरकार के आने के बाद ईरान का रवैया वैसा नहीं होगा और वह कठोर जवाबी कार्रवाई कर सकता है.

भारत के संदर्भ में सबसे बड़ी व्यथा यह रही कि हमने अमेरिकी पाबंदियों के चलते बीते कुछ समय में तेल का आयात और अन्य व्यापार को काफी कम कर दिया. जो ईरान के कंजरवेटिव समूह हैं, चाहे रईसी हों या संसद हो, वे यह सोचते है कि भारत अच्छे मौसम का दोस्त है, हर तरह की स्थिति में वह दोस्ती नहीं निभाता यानी भारत को मौका मिलेगा, तो वह ईरान के साथ आ जायेगा, पर वह अमेरिका के खिलाफ ईरान का साथ नहीं देगा.

इस सोच को भारत को दुरुस्त करना होगा. उल्लेखनीय है कि ईरान उन देशों में है, जिनसे भारत सबसे अधिक तेल खरीदता है. परमाणु समझौता होने के बाद भारत फिर से इस आयात को शुरू कर देगा. बीते कुछ साल में एक गैस फील्ड समझौते से भारत अलग हुआ है. एक रेल परियोजना में भागीदारी से भी भारत पीछे हटा है.

चाबहार में सहयोग को बहाल रखने की कोशिश भारत कर रहा है. बहरहाल, मेरा मानना है कि ईरान के साथ विनियमात्मक संबंध होने की संभावना अधिक है. प्रधानमंत्री मोदी ने रईसी को जीत पर बधाई दी है और संभव है कि जल्दी ही कोई भारतीय प्रतिनिधिमंडल ईरान जाए. अच्छे संबंध की हमारी कोशिश जारी रहेगी. असल में हम खुद अमेरिकी पाबंदियों के चक्कर में फंस गये थे. (बातचीत पर आधारित)

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