गहरा रही जलवायु परिवर्तन की चिंता
यदि लोग अपनी तरफ से कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं, तो फिर सबको प्रकृति के पलटवार के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
इस महीने अमेरिकी राज्य कैलिफोर्निया के डेथ वैली रेगिस्तान में पारा 54.4 डिग्री तक जा पहुंचा, जो धरती पर आज तक रिकॉर्ड हुए सबसे ऊंचे तापमान के बराबर था. पिछले महीने कनाडा के लिटन का पारा 49.4 डिग्री और अमेरिका के पोर्टलैंड का पारा 46.7 डिग्री जा पहुंचा था. पिछले सप्ताह उत्तरी आयरलैंड में तापमान का रिकॉर्ड दो बार टूटा. पश्चिमी कनाडा और अमेरिका की ग्रीष्म लहर में लगभग 500 लोग मारे गये हैं.
इस महीने पश्चिमी और मध्य यूरोप में बादल फटने और बाढ़ आने से 210 से ज्यादा लोग मारे गये. इसी सप्ताह चीन के कुछ इलाकों में बाढ़ में कम-से-कम 25 लोग मारे गये हैं. कैलिफोर्निया, पश्चिमी कनाडा और साइबेरिया में भीषण गर्मी से कई जगह आग लग गयी, जिसमें लाखों एकड़ जंगल नष्ट हो गये.
ऐसी प्राकृतिक विपदाओं का आना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन जिस तेजी से इनकी भीषणता और आवृत्ति बढ़ रही है, उससे सिद्ध हो रहा है कि अब ये प्रकृति के स्वाभाविक चक्र के हिसाब से नहीं हो रहीं और इनके पीछे जलवायु परिवर्तन कारक है. मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, वायुमंडल में बढ़ी गर्मी के कारण उत्तरी ध्रुव की तरफ जानेवाली महासागरीय हवाओं की रफ्तार धीमी पड़ती जा रही है. महासागरों की भाप से लदी ये हवाएं जितनी धीमी गति से चलती हैं, इनके पानी बरसाने की संभावना उतनी ही बढ़ती जाती है.
जैसे पश्चिम जर्मनी की राइन नदी घाटी और बेल्जियम की मूज नदी घाटी पर फटे बादलों ने एक दिन में 15 सेंटीमीटर पानी बरसा दिया, जिसने पिछले 60 वर्षों की भीषणतम बाढ़ का रूप ले लिया. मौसम विज्ञानी इसकी भविष्यवाणी चार दिन पहले ही कर चुके थे. फिर भी जर्मनी व बेल्जियम जैसे समृद्ध देश लोगों की रक्षा नहीं कर पाये. बारिश से लदे बादल धीमी गति से ऑस्ट्रिया, हंगरी, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया की तरफ बढ़े, जिससे डैन्यूब और एल्बे नदियों में बाढ़ आयी है. मध्य चीन की पीली नदी घाटी में भी ऐसी ही घनघोर बारिश हुई है.
ब्रिटेन के न्यूकासल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, सदी के अंत तक प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति आज के मुकाबले 14 गुणा बढ़ जायेगी. शोध दल ने बताया है कि हमारे वायुमंडल में बढ़ती गर्मी से ध्रुवों का तापमान बढ़ रहा है. इस वजह से महासागरों से ध्रुवों की तरफ जानेवाली जैट स्ट्रीम हवाओं की गति धीमी पड़ रही है. महासागरों का पानी गरम होने से भाप ज्यादा बन रही है.
इस भाप से लदी हवाएं जब धीमी गति से महाद्वीपों की तरफ बढ़ती हैं, तो वे तूफान और बादल फटने जैसी घटनाओं को जन्म देती हैं. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतरेश ने बीबीसी के एक पर्यावरण मंच पर बोलते हुए कहा, ‘हमारी धरती टूट चुकी है. इंसान ने प्रकृति के खिलाफ जंग छेड़ रखी है. यह खुदकुशी है, क्योंकि प्रकृति हमेशा पलटवार करती है.’ एक बड़ी चिंता रूस के साइबेरिया में हो रहे बदलावों की है.
शून्य से नीचे तापमान वाले इस प्रदेश में पारा पिछले कई वर्षों से धीरे-धीरे चढ़ रहा है और जमी हुई जमीन पिघल कर दलदली पीट में बदल रही है. दलदली पीट भारी मात्रा में मिथेन गैस छोड़ रही है, जो कार्बन डाइऑक्साइड से 20 गुणा अधिक गर्मी फैलाती है. साइबेरिया के जंगलों में आग भी लगने लगी है. जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए हमें हर साल वायुमंडल में जा रहीं ग्रीनहाउस गैसों से कहीं अधिक मात्रा में वायुमंडल से गैसें निकालने या उन्हें सोखने की व्यवस्था करनी होगी.
सबसे पहले तो हमें ग्रीनहाउस गैसें छोड़नेवाले ईंधन का प्रयोग बंद करके सौर, पवन, हाइड्रोजन और परमाणु ऊर्जा जैसे विकल्पों का प्रयोग शुरू करना होगा. दूसरा कि हमें पशुपालन और खेती का रूप बदलना होगा, ताकि मिथेन की मात्रा घटे. तीसरा कि हमें बड़े पैमाने पर वनीकरण करना होगा, जो इन गैसों को सोख सके. चौथी बात कि ऐसी नयी तकनीक खोजनी होगी, जिसके जरिये हम ग्रीनहाउस गैसों को सोख कर उनको किसी उपयोग में ला सकें.
नवंबर में ब्रिटेन के ग्लासगो में होने जा रहे 26वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इन्हीं सब उपायों पर विचार होगा और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कार्य योजना तैयार की जायेगी. यूरोपीय संघ ने प्रस्ताव रखा है कि वह 2030 तक अपनी ऊर्जा की खपत में अक्षय ऊर्जा के हिस्से को 20 से बढ़ा कर 40 प्रतिशत कर लेगा. ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकने के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक चीन यूरोप से भी पीछे है.
यूरोपीय संघ ने नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करने का लक्ष्य 2050 का रखा है, जबकि चीन ने 2060 की सीमा तय की है. भारत ने अभी तक औपचारिक रूप से कोई लक्ष्य नहीं रखा है, लेकिन 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को नेट जीरो बनाने की बातें हो रही हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि हम इतनी ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें छोड़ चुके हैं कि अब इन्हें कम किये बिना जलवायु परिवर्तन को रोक पाना मुश्किल है. पर्यावरणशास्त्री भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम की जंग तो हम हार चुके हैं.
आपदाओं के बढ़ने के साथ ध्रुवों और हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तथा समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है. अब हम प्रकृति के पलटवार का इंतजार करने और उससे बचाव के उपाय करने के अलावा कुछ नहीं कर सकते. बचाव के लिए यूरोप, अमेरिका और चीन तो फिर भी कुछ कर लेंगे, लेकिन यदि ऐसे प्रकोप भारत को झेलने पड़े, तो क्या होगा? मसलन हिमालय के ग्लेशियर सूख गये, तो क्या होगा?
क्या आप मांस खाने से पहले यह सोचने के लिए भी तैयार हैं कि वह शाकाहारी भोजन से ढाई गुना ग्रीनहाउस गैसें छोड़ कर बनता है? क्या आप बड़ी कार खरीदने या उसमें चढ़ने से पहले यह सोचने के लिए तैयार हैं कि आपकी कार कितनी ग्रीनहाउस गैस छोड़नेवाली है? यूरोप और अमेरिका अब भारत जैसे देशों से आनेवाले माल पर जलवायु कर लगाने का प्रस्ताव रख रहे हैं, ताकि स्वच्छ ऊर्जा से बने माल को बढ़ावा मिल सके.
क्या आप अपने माल पर स्वच्छ ऊर्जा कर देने को तैयार होंगे? आप ही क्यों, सबसे बड़ा सवाल तो यह भी है कि क्या यूरोप, अमेरिका और चीन के लोग अपने खान-पान बदलने, स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा अपनाने और उपभोग की फिजूलखर्ची को रोकने के लिए तैयार होंगे? प्रति व्यक्ति हिसाब से अमेरिका, यूरोप और चीन के लोग भारतीयों की तुलना में कहीं ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें छोड़ते हैं. यदि लोग अपनी तरफ से कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं, तो फिर सबको प्रकृति के पलटवार के लिए तैयार हो जाना चाहिए.