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प्रधानमंत्री के अमेरिका दौरे से उम्मीदें

अमेरिकी राष्ट्रपति और अन्य विश्व नेताओं के सामने प्रधानमंत्री मोदी भारत की चिंताओं को रखेंगे तथा महासभा के संबोधन में भी इसे रेखांकित करेंगे.

संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन के दौरान हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा कई अर्थों में महत्वपूर्ण है. दो वर्ष के बाद महासभा की ऐसी बैठक हो रही है, जहां तमाम विश्व नेता जुट रहे हैं और उनके बीच विभिन्न स्तरों पर बातचीत हो रही है. महामारी के कारण संवाद और संपर्क का टूटा हुआ सिलसिला फिर से बहाल हो रहा है तथा विश्व व्यवस्था अपने पुराने रूप में लौट रही है. भारत समेत सभी देशों के लिए यह एक अवसर है, जब विश्व शांति, जलवायु परिवर्तन, महामारी आदि मसलों पर शीर्ष नेता विचार-विमर्श कर सकते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी ने इस यात्रा के अपने एजेंडे में इन अहम मुद्दों को प्राथमिकता दी है. पिछले डेढ़ साल में तकनीक के सहारे वर्चुअल माध्यमों से चर्चाएं हो रही हैं, पर अब शीर्ष नेता आमने-सामने बैठकर विस्तार से अलग-अलग आयामों पर गंभीरता से बातचीत कर सकते हैं. इस अवधि में अनेक मामलों के साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र और अफगानिस्तान में बड़ी तेजी से स्थितियां बदली हैं.

इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी और अन्य भारतीय प्रतिनिधि अन्य देशों के नेतृत्व, विशेषकर क्वाड समूह के नेताओं, को अपनी चिंताओं और विचारों से अवगत करा सकेंगे. ऐसे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संवाद की आवश्यकता भी है.

अफगानिस्तान का मसला निश्चित रूप से बेहद अहम है. तालिबान शासन को समर्थन दे रहे पाकिस्तान, चीन और अन्य कुछ देशों को भी भारत दुनिया और एशिया की भावनाओं से अवगत करायेगा कि क्षेत्रीय एवं वैश्विक शांति और स्थिरता की चिंताओं का भी संज्ञान लेना होगा. भारत पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए सहयोग करता रहा है. यह सहयोग अफगान लोगों की बेहतरी के लिए था और भारत की चिंता है कि अब तक की उपलब्धियों कहीं नष्ट न हो जाएं.

पाकिस्तान की कोशिश है कि भारत के प्रभाव को कम किया जाए. इस ओर भारत संयुक्त राष्ट्र का ध्यान आकृष्ट कर रहा है. पिछले महीने भारत की अध्यक्षता में सुरक्षा परिषद ने ऐसे प्रस्ताव पारित किये हैं कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल अन्य देशों में आतंक फैलाने के लिए नहीं होना चाहिए. ऐसे संदेश केवल तालिबान के लिए ही नहीं हैं, बल्कि चीन और पाकिस्तान जैसे उनके समर्थकों के लिए भी हैं. उन्हें समझना होगा कि आतंक का मामला केवल उनके देशों के लिए नहीं, पूरे क्षेत्र और एशिया की शांति व सुरक्षा से संबद्ध है.

प्रधानमंत्री मोदी ने इसी कारण अपने एजेंडे में आतंकवाद को प्रमुखता से रखा है. अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने यह समझ लिया है कि आज अफगानिस्तान में काबिज लोगों के पास उतनी क्षमता नहीं है कि वे आतंक को उन देशों तक ले जा सकें. इसलिए इस मुद्दे पर अधिक चिंता भारत और अन्य एशियाई देशों को करनी है. अमेरिकी राष्ट्रपति और अन्य विश्व नेताओं के सामने प्रधानमंत्री मोदी भारत की चिंताओं को रखेंगे तथा महासभा के संबोधन में भी इसे रेखांकित करेंगे.

पाकिस्तान का रवैया चिंता का एक अन्य विषय है. उसे यह लगने लगा है कि तालिबान के साथ सहयोग कर उसने अमेरिका और अन्य नाटो देशों को अफगानिस्तान से निकाल दिया है, तो बाकी पड़ोसी देशों की अधिक परवाह करने की जरूरत नहीं है. पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों को तेज किया जाना चाहिए. चीन तो सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, सो उसकी भी बड़ी जिम्मेदारी है, अन्यथा विश्व समुदाय में वह अपना भरोसा खो सकता है. ऐसा तो नहीं हो सकता है कि चीन केवल अपनी चिंता करे और क्षेत्रीय स्थिरता के प्रति लापरवाह हो जाए.

इस यात्रा का दूसरा मुख्य मामला क्वाड समूह से जुड़ा हुआ है. पहली बार इस समूह के सदस्य देशों- भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान- के नेता आमने-सामने बैठक शिखर वार्ता कर रहे हैं. अमेरिका अफगानिस्तान छोड़कर निकल गया है और उसने तालिबान के साथ समझौता भी किया हुआ है. अमेरिका के इस नरम रवैये पर क्वाड में भी चर्चा होगी क्योंकि यह पहलू भारत की सुरक्षा से संबद्ध है. क्वाड का उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र और सामुद्रिक सुरक्षा तक ही सीमित नहीं हैं.

पिछली शिखर बैठक में आपसी सहयोग से क्षेत्रीय देशों में वितरण के लिए बड़ी मात्रा में कोविड वैक्सीन बनाने पर सहमति बनी थी. इस पर बात होगी. दूसरा मुद्दा जलवायु परिवर्तन पर आपसी सहयोग बढ़ाने का है. एक बड़ा मामला यह भी है कि क्वाड पर अमेरिका की सोच क्या है, क्योंकि हाल में उसने ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिला कर ऑकस समूह बनाया है, जिसके तहत सामरिक तकनीक और साजो-सामान के आपसी लेन-देन पर सहमति बनी है.

यह समझौता नाटो देशों को अलग रखकर हुआ है. फ्रांस बहुत नाराज है क्योंकि ऑस्ट्रेलिया ने उससे पनडुब्बी खरीदने का करार रद्द कर दिया है, जिससे उसे भारी आर्थिक नुकसान हुआ है. यह सही है कि ऑस्ट्रेलिया को चीन के आक्रामक रुख के कारण सुरक्षा इंतजाम बढ़ाने हैं, पर भारत ऑकस के मामले पर स्पष्टता की मांग कर सकता है.

ऑकस को लेकर फ्रांस की नाराजगी भी एक पहलू है क्योंकि भारत के साथ उसके गहरे संबंध हैं. जब जलवायु परिवर्तन के मामले पर अमेरिका पीछे हट गया था, तब दोनों देशों ने अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन बनाया था. यदि अमेरिका को भारत को विशिष्ट तकनीक देने में परेशानी है, तो उसे फ्रांस से भारत के तकनीक व साजो-सामान लेने पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए.

हमने देखा है कि जब भारत ने रूस से हथियार खरीदा, तो अमेरिका ने प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दे दी थी. उम्मीद है कि इस दौरे में दोनों देशों के नेता इस आयाम पर चर्चा करेंगे. यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्वाड केवल सुरक्षा से संबद्ध न रहे, जैसा कि ऑकस है, जो सीधे-सीधे एक सैन्य सहयोग है.

क्वाड प्लस बनाने की बातें भी होती रही हैं, जिसमें फ्रांस, इंडोनेशिया, वियतनाम और अन्य देश शामिल हो सकते हैं. रूस भी एक संभावित सदस्य हो सकता है. स्थायी शांति और विकास के लिए यह महत्वपूर्ण कदम हो सकता है. क्वाड में इस पर भी चर्चा हो सकती है. जहां तक भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों की बात है, तो उसमें बेहतरी की संभावना है.

प्रधानमंत्री मोदी ने इंगित किया है कि राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ बातचीत में परस्पर रणनीतिक समझौते को आगे ले जाने के साथ विज्ञान और तकनीक में सहयोग बढ़ाने पर बात होगी. यदि पीएम मोदी उन्हें भारत की सुरक्षा चुनौतियों तथा विकास आकांक्षाओं पर अपनी सोच के अनुरूप मना लेते हैं, तो यह बड़ी उपलब्धि होगी. (बातचीत पर आधारित).

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