जलवायु परिवर्तन से शीतलहर

शीतलहर के प्रकोप से आनेवाले 15-20 दिनों तक राहत मिलने के आसार नहीं हैं. नतीजतन शहरों में प्रदूषण का स्तर भी खतरनाक स्तर पर रहेगा.

By ज्ञानेंद्र रावत | December 21, 2021 7:57 AM
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उत्तर भारत में पहाड़ों पर लगातार हो रही बर्फबारी और ठंडी हवाओं के चलने से शीत लहर का प्रकोप लगातार बढ़ रहा है. चाहे जम्मू-कश्मीर हो, हिमाचल, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश हो या फिर महाराष्ट्र हो, भीषण ठंड से लोग बेजार हैं. उत्तराखंड में प्राकृतिक जल स्रोत जमने लगे हैं.

केदारनाथ और मुक्तेश्वर में नलों और तालाबों का पानी जमने लगा है. श्रीनगर में डल झील सहित दूसरे जल स्रोतों की दशा भी ऐसी ही है. राजस्थान के गंगानगर, चुरू, बीकानेर, अलवर, हनुमानगढ़, नागौर, जैसलमेर, पाली, जोधपुर, झुंझनू, सीकर, टोंक, जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ में येलो अलर्ट जारी कर दिया गया है.

देश के कई हिस्सों में तापमान तीन और पांच सेंटीग्रेड से भी नीचे गिरने से जन-जीवन प्रभावित हुआ है. बीते दिनों जम्मू-कश्मीर में औसतन तापमान शून्य से 5.9 डिग्री नीचे गया, जबकि गुलमर्ग में शून्य से 10.4 डिग्री नीचे रहा, पहलगाम में 8.7 डिग्री, श्रीनगर में 6.2 डिग्री, बिहार के पटना में न्यूनतम 5.3 डिग्री पहुंचा, राजस्थान में शेखावाटी अंचल में शून्य से पांच डिग्री नीचे रहा, वहीं राज्य के 36 जगहों पर वह नौ डिग्री से भी नीचे रहा, उत्तर प्रदेश में तीन से नीचे, पंजाब-हरियाणा में 1.6 डिग्री नीचे,

हिमाचल में 12.2 डिग्री नीचे रहा, वहीं मध्य प्रदेश के सागर और ग्वालियर सहित 14 जिले शीत लहर के भीषण प्रकोप से जूझ रहे हैं. इस बार देशवासियों को बीते बरसों की तुलना में भीषण ठंड का सामना करना पड़ रहा है. साल 1965 के दिसंबर माह में देश में शीतलहर का प्रकोप नौ दिन तक रहा था,

लेकिन इस बार इसने 1965 का रिकॉर्ड तोड़ दिया है और इसके जनवरी के पहले पखवाड़े तक रहने का अनुमान है. देश की राजधानी दिल्ली ने तो बीते रविवार को 15 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. यहां पारा 4.6 डिग्री पर उतर गया, जो इस मौसम का सबसे सर्द दिन रहा है.

इस स्थिति का अहम कारण जलवायु परिवर्तन के चलते प्रशांत महासागर में हुए मौसम के बदलाव की वजह से ला नीना का प्रभाव है. दरअसल, मौसम के चक्र में प्रशांत महासागर की भूमिका बेहद अहम है. ईएनएसओ (अल नीनो साउथ ओसिलेशन) प्रशांत महासागर की सतह पर पानी और हवा में असामान्य बदलाव लाता है. इसका असर पूरी दुनिया के वर्षा चक्र, तापमान और वायु संचरण प्रणाली पर पड़ता है.

जहां ला नीना ईएनएसओ के ठंडे प्रभाव का परिचायक है, वहीं अल नीनो भीषण गर्मी के प्रभाव का प्रतीक है. देखा गया है कि दोनों ही प्रभाव प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में सामान्य तापमान में असमानता पैदा करते हैं. ला नीना में प्रशांत महासागर की गर्म पानी की सतह पर हवा पश्चिम की ओर बहती है, नतीजतन गर्म पानी में हलचल होने से ठंडा पानी सतह पर आ जाता है, इससे पूर्वी प्रशांत क्षेत्र सामान्य से काफी ठंडा हो जाता है.

ला नीना के चलते सर्दियों में तेजी से हवा बहने पर भूमध्य रेखा और उसके आसपास का पानी सामान्य से ज्यादा ठंडा हो जाता है. इससे महासागर का तापमान समूची दुनिया के मौसम को प्रभावित कर देता है. इसके कारण कहीं भारी बारिश, कहीं बाढ़, तो कहीं सूखे की स्थिति पैदा होती है.

हमारे देश में पहाड़ों पर भीषण बर्फबारी के चलते कड़ाके की जानलेवा ठंड इसी ला नीना का परिणाम है. मौसम विभाग और दुनिया के वैज्ञानिक भी इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं. जहां तक भारत का सवाल है, मैरीलैंड यूनीवर्सिटी अमेरिका के जलवायु वैज्ञानिक रघु मूर्तगुडे की मानें, तो भारत में समूचे उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत के पहाड़ी इलाकों में भीषण ठंड का प्रमुख कारण ला नीना ही है.

भारत में ला नीना का असर सर्दी के मौसम में ही होता है. इसके चलते हवाएं उत्तर-पूर्व के हिस्सों की ओर से बहती हैं. इससे पैदा पश्चिमी विक्षोभ के कारण उत्तर व दक्षिण में निम्न दबाव बनता है, नतीजतन देश में भारी बारिश और बर्फबारी होती है तथा शीतलहर के प्रकोप में वृद्धि होती है.

इस बार शीतलहर के प्रकोप से आनेवाले 15-20 दिनों तक राहत मिलने के आसार नहीं हैं. नतीजतन शहरों में प्रदूषण का स्तर भी खतरनाक स्तर में बढ़ा रहेगा. ऐसे में अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है. जरूरी होने पर ही, खासकर अधिक आयु के, लोग घर से बाहर निकलें, अन्यथा घर में ही रहें. कड़ाके की ठंड में लोग अलाव, गर्म कपड़े, टोपी और मफलर के भरोसे हैं. भीषण जानलेवा सर्दी से फसलों के बर्बाद होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता. इससे किसान काफी भयभीत हैं.

पारा गिरने और पाला पड़ने से रबी की फसल तबाह हो सकती है, और सब्जियों को भी नुकसान पहुंच सकता है. पौधों की पत्तियां हरी होने की जगह हल्की भूरी पड़ने लग जायेंगी. टमाटर, गोभी, बैंगन और मिर्च की फसल पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा. रोजमर्रा की जरूरतों, खासकर भोजन, पानी और बिजली जैसी सुविधाओं व स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ेगा.

कड़ाके की ठंड पड़ेगी, ऊर्जा की खपत बढ़ेगी, खर्च बढ़ेगा, धीमी आर्थिक प्रगति की दर और बढ़ती मंहगाई आम जनता की जेब पर भारी पड़ेगी. ऐसी हालत में दूसरे साधनों पर निर्भरता और बढे़गी इससे खाद्यान्न तो प्रभावित होगा ही, अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा. बाकी दुनिया की स्थिति भी कमोबेश यही रहेगी. ऐसी स्थिति में बचाव के लिए हमें सचेत रहना चाहिए.

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