रेणु और उनका मैला आंचल

मैला आंचल में सिर्फ मनुष्यों के स्वप्न ही नहीं हैं. उपकथाओं के माध्यम से रेणु माटी-पानी तक के स्वप्न रचते हैं और इनकी कांपती हुई विविधवर्णी छायाओं से यथार्थ की नयी छवियों को आविष्कृत करते हैं.

By हृषीकेश सुलभ | March 4, 2022 9:52 AM

सत्ता की अराजकता, क्रूरता और हिंसा के विरुद्ध लड़ते हुए निरंतर सृजन करनेवाले फणीश्वरनाथ रेणु हमारी भाषा के विरले लेखक थे. उन्होंने जनतंत्र के पक्ष में चलने वाले आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया. उन्होंने सशस्त्र नेपाली क्रांति में भी भाग लिया. रेणु के रचनाकार और क्रांतिकारी व्यक्तित्व की निर्मिति पर गौर करने पर पता चलता है कि इसके केंद्र में रहे हैं- उनके भावनात्मक और सामाजिक अंतर्विरोध.

ये इतने तीखे थे कि रेणु का लेखक, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी बनना सहज संभाव्य था. सन 54 में मैला आंचल के प्रकाशित होते ही सपनों और भविष्य के लुट जाने के हाहाकार की अनुगूंज ऐसे पसरी कि हिंदी का रचना-संसार विस्मित हुआ.

मैला आंचल को गोदान के बाद हिंदी का सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है. यथार्थ की नयी छवियों, कहन के नये अंदाज और भाषा की नयी त्वरा के कारण इसने पाठकों को मुग्ध किया. इसकी स्थानिकता को रेणु ने अपने रचना-कौशल से महाकाव्यात्मक विस्तार दिया. मैला आंचल जिन स्रोतों से उपजा है, यानी जिस यथार्थ के गर्भ से इसका कथ्य जनमता है, उस यथार्थ से इसकी अंत:प्रकृति और रूपरचना मिल कर एक दीर्घ कलात्मक प्रभाव रचती है.

यह भारत की आजादी के संधिकाल की कथा है. इस कथा में जीवन का मर्म एक गहन आलाप की तरह उभरता है. यहां वासनाओं और वृत्तियों की आवाजाही है, ग्रामीण जीवन के सामूहिक शील की अभिव्यक्ति है, परंपरा के नाम पर जीवन को रूढ़ियों में बांधनेवाले संस्थानों का मिथ्याचार है.

और हैं- नयी राजनीतिक चेतना की आड़ में लूट की संस्कृति का बीज बोते वंचकों की दुरभिसंधियां. मैला आंचल में निष्कलुष प्रेम, दुविधा, घृणा, कुंठा, उत्सव, कोलाहल, संवेदना की आर्द्रता, संबंधों का राग, आंदोलन, वर्चस्व की राजनीति आदि तमाम रंग हैं, जो लोक के अवसाद में रूपांतरित हो जाते हैं. यहां आंचलिकता का परिदृश्य ऐसी घटनाओं को समेटे हुए है, जिनका ऐतिहासिक अर्थ और महत्व है.

मुक्ति का स्वप्न, मैला आंचल का प्रमुख स्वप्न है. नये देश की पीड़ा, नयी जिंदगी की छटपटाहट इन स्वप्नों में गुंथी हुई है. बालदेव सामान्य ग्रामीणों का प्रतीक है. बालदेव को राजनीति का अवसरवाद कहीं का नहीं छोड़ता. वह अवसरवाद की विवशता से मुक्त नहीं हो पाता. वह नहीं चाहता कि देश और समाज अपना भविष्य सामान्य लोगों के सपनों की उपेक्षा करते हुए रचे.

उसे यह बात उतनी नहीं टीसती कि वह नये आजाद भारत के लिए जरूरी नहीं रहा, बल्कि लोगों के टूटे सपनों की किरचों की चुभन उसे ज्यादा टीसती हैं. एकांतवास में आत्मसंघर्ष करते हुए असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों की पीड़ा, बालदेव की अकथ पीड़ा से मैला आंचल में अभिव्यक्ति पाती है. वह इतिहास के ऐसे स्थलों को अपने चरित्र से आविष्कृत और चिह्नित करता है, जहां मुक्ति के स्वप्नों की हत्या होती है.

बावनदास स्वप्नों की शक्तिशाली उपस्थिति है. शक्तिशाली, पर हारी हुई, एक करुण उपस्थिति. यही रेणु की विशिष्टता है कि बावनदास के व्यक्तित्व की दृढ़ता और उसके पराजय से पैदा हुए शोक को वे एक ऐसी आंख में तब्दील कर देते हैं, जिससे आनेवाले कल की भयावहता को देखा जा सके. वह यह भरोसा देता है कि यदि गहन अंधेरे में भी विश्वास की आंख से कोई देखे, तो सच छुप नहीं सकता.

जब बावनदास का सहज स्वर ऊपर उठता है और पंचम तक पहुंचता है, स्वप्नों की चीख सुनायी पड़ती है. इसमें शामिल हैं इतिहास के कई प्रसंग, जैसे वे लोग जो कल सत्याग्रह के दुश्मन थे और आज पार्टी के पदों पर बैठे हैं, महात्मा की तस्वीर के बल पर सरस्वती देवी की वासना से मुक्ति आदि. कथा में नायक की तरह दिखनेवाले प्रशांत की उपस्थिति मुक्ति के स्वप्नों की एक अलग वीथि की तरह दिखती है, पर यह वीथि भी उसी चौराहे पर जाकर खुलती है, जहां बालदेव, बावनदास आदि खड़े हैं.

प्रशांत बाहर से आया है. वह रेणु की दीर्घ आंचलिकता के विस्तार में समाहित नहीं होता, पर मैला आंचल की कथा की अंतरंगता में उसकी और उसके स्वप्नों की अपनी जगह है. उसके व्यक्तित्व की सांद्रता उसके स्वप्नों को अलग रंग और आभा देती है. वह मा़त्र शोधार्थी नहीं रह जाता. गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास के दलदल में फंसे भोलेभाले लोगों का सुख-दुख, उसका सुख-दुख बन जाता है. ममता को लिखे उसके पत्र और उसकी डायरी के अंशों में उसके स्वप्नों की लहलहाती हुई फसल है.

वह अपने इन स्वप्नों का मुरझाना देखने के लिए अभिशप्त है. कालीचरण क्रांतिकारिता का नया चेहरा है. अपने ही लोगों द्वारा लहूलुहान कालीचरण आज भी अपने स्वप्नों की लाश उठाये भटक रहा है. अपने जीवन–काल में मिथक बन चुके जिस नक्षत्र मालाकार को चलित्तर कर्मकार के नाम से रेणु ने रचा था उनके स्वप्नों की परिणति भी कालीचरण के स्वप्नों जैसी ही होती है.

लक्ष्मी का स्वप्न आज भी भारतीय समाज के लिए प्रश्नचिह्न बना हुआ है. क्या वह हर काल और हर स्थिति में केवल दूसरों की लालसापूर्ति के लिए बनी है? वह मैला आंचल में परतंत्रता का चरम बनकर उभरती है. मैला आंचल में सिर्फ मनुष्यों के स्वप्न ही नहीं हैं. उपकथाओं के माध्यम से रेणु माटी-पानी तक के स्वप्न रचते हैं और इनकी कांपती हुई विविधवर्णी छायाओं से यथार्थ की नयी छवियों को आविष्कृत करते हैं.

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