बीतता साल अमेरिका के लिए गंभीर चुनौतियों और बड़े फैसलों वाला साल रहा है, चाहे अमेरिकी संसद पर ट्रंप समर्थक भीड़ का हमला हो, राष्ट्रपति बाइडेन के सामने बड़े पैमाने पर टीकाकरण करवाना हो या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लिये गये फैसले हों. अफगानिस्तान से बीस साल बाद अमेरिकी सेना की वापसी, चीन के साथ तनातनी और रूस के साथ खराब होते संबंधों की पड़ताल करें, तो अमेरिका के लिए यह साल बहुत चुनौतीपूर्ण रहा है.
साल की शुरूआत ही उत्तेजना से भरी रही, जब छह जनवरी को तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रंप ने एक भीड़ को उकसाया, जिसने राष्ट्रपति जो बाइडेन के चुनाव पर मुहर लगा रही सांसदों की बैठक को निशाना बनाते हुए संसद भवन पर हमला कर दिया. गुप्तचर एजेंसियों की चेतावनी के बावजूद कैपिटल हिल पर सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं थे.
भीड़ ने भवन के अंदर जाकर जमकर उत्पात किया. इस घटना में एक पुलिसकर्मी समेत पांच लोगों की जानें चली गयीं. इस घटनाक्रम को लेकर पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ लाया गया महाभियोग पर्याप्त वोट न होने के कारण पारित नहीं हुआ, पर घटना में शामिल कई लोगों को गिरफ्तार किया गया और अब कुछ लोगों को सजा भी सुनायी गयी हैं. जब जनवरी में बाइडेन ने पदभार ग्रहण किया, तो अमेरिकी इतिहास में पहली बार एक अश्वेत कवयित्री ने इस समारोह में काव्यपाठ किया.
बाइडेन के सामने सबसे पहली चुनौती थी कोविड वैक्सीन को लोगों तक पहुंचाने की और इस काम में वे जोर-शोर से लगे. अप्रैल महीने में जब भारत में बड़ी संख्या में लोग महामारी की दूसरी लहर में मर रहे थे, अमेरिका में वैक्सीन लेनेवालों लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही थी. मई के अंत तक बड़ी आबादी को वैक्सीन का एक डोज लग चुका था, जो बड़ी उपलब्धि थी.
अमेरिका ने बाद में करोड़ों खुराकें अन्य देशों को दान करने की भी घोषणा की. जब अमेरिका में वैक्सीन के कारण जनजीवन सामान्य हो रहा था, उसी समय राष्ट्रपति बाइडेन ने बड़ा फैसला लिया अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने का. यह नयी बात नहीं थी और पूर्व में अनेक राष्ट्रपति भी यह कह चुके थे, लेकिन बाइडेन ने अपने कार्यकाल के पहले छह महीनों में ही इसकी औपचारिक घोषणा कर दी और सितंबर तक सभी सैनिकों की वापसी की तारीख भी सुनिश्चित कर दी.
सेना वापस बुलाने और कुछ ही घंटों में काबुल में तालिबान के पहुंच जाने को लेकर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की खासी आलोचना हुई. विशेषज्ञों ने इसे अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की खामी करार दिया और कहा कि अमेरिका अफगानिस्तान की जमीन से पूरी तरह कट चुका था तथा उसे पता ही नहीं था कि काबुल से बाहर देश में क्या हो रहा है. अफगानिस्तान से बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हुआ और हजारों लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हुआ. अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाना अमेरिकी विदेश नीति का एक बड़ा फैसला था और इसके साथ दक्षिण एशिया से अमेरिका ने अपनी संलिप्तता थोड़ी कम करने की कोशिश की.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कहते हैं कि आगामी सालों में अमेरिका और चीन के बीच कई स्तर पर जो तनाव बना रहेगा, उसमें दक्षिण एशिया की बड़ी भूमिका हो सकती है. लोग जानते हैं कि एक समय में अमेरिका का कट्टर समर्थक माना जानेवाला पाकिस्तान अब चीन के साथ सामरिक और कूटनीतिक साझेदारी में लगा हुआ है. ऐसे में अमेरिका के पास भारत ही एक विकल्प बचता है, जिसके जरिये वह चीन पर लगाम लगाने की कोशिश करे.
अमेरिका ने नीतिगत बदलाव करते हुए चीन को कई स्तर पर घेरने की योजना पर काम करना शुरू भी कर दिया है. इस तनाव को सिर्फ कोविड के नजरिये से देखना भी ठीक नहीं है. पिछले पांच-छह सालों में अमेरिका और चीन के बीच तकनीक और व्यापार को लेकर विवाद होते रहे हैं. यह जरूर है कि कोविड के कारण यह तनाव बहुत स्पष्ट हो चुका है. पिछले साल ही अमेरिका ने टेक्सास में चीनी वाणिज्य दूतावासों को बंद कर दिया था.
इस साल अमेरिका ने दबाव बनाने की रणनीति के तहत जनवरी में चीन के वीगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार को नरसंहार की संज्ञा दी है और ताइवान के लिए भी अपना समर्थन स्पष्ट किया है. हांगकांग को लेकर भी अमेरिकी नीति चीन के खिलाफ रही है. इसी साल बाइडेन सरकार ने क्वाड और ऑकस संधियां की हैं, जिसकी सामरिक व्याख्या भी की जा सकती है.
ऑकस के तहत ऑस्ट्रेलिया को पहली बार अमेरिका नाभिकीय ऊर्जा से लैस पनडुब्बियों के उत्पादन में मदद करने जा रहा है. ऐसा अमेरिका ने पहले सिर्फ ब्रिटेन के साथ किया है. क्वाड में अमेरिका के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत हैं. इसके एजेंडे में सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को रखा गया है. हालांकि क्वाड का गठन कई साल पहले हुआ था, लेकिन इस साल अचानक इसकी गतिविधियों में सरगर्मी आयी है. इसे चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने के संदर्भ मे देखा जा सकता है.
लोकतांत्रिक ताकतों के अगुआ देश के रूप में अपनी छवि दोबारा स्थापित करने के उद्देश्य से राष्ट्रपति बाइडेन ने वर्ष के अंत में डेमोक्रेसी समिट का आयोजन किया. इसके जरिये बाइडेन संभवत: दुनिया को एक संदेश देना चाहते थे कि अमेरिका की लोकतंत्र की अवधारणा में कौन सा देश फिट होता है और कौन सा नहीं.
इसमें रूस और चीन को नहीं बुलाया गया, जबकि पाकिस्तान को आमंत्रित किया गया. बांग्लादेश, जहां लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार है, उसे भी इस समिट में नहीं बुलाया गया था. रूस और चीन ने इस आयोजन की न केवल कड़ी आलोचना की, बल्कि अमेरिकी रवैये को उकसानेवाला भी करार दिया. रूस और चीन ने अखबारों में लेख लिखकर यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि अमेरिका की दादागिरी नहीं चलेगी. पाकिस्तान ने ऐन मौके पर इस बैठक में शामिल होने से इंकार कर दिया.
पर्यवेक्षकों के अनुसार ऐसा चीन के कहने पर किया गया था. इस साल के घटनाक्रम को देखते हुए यह तो स्पष्ट है कि अमेरिका के लिए आगामी साल आसान नहीं होंगे. घरेलू मोर्चे पर बाइडेन उतने लोकप्रिय नहीं रहे हैं. मंहगाई बढ़ती जा रही है. चीन के साथ रिश्ते खराब होने की आशंका है ही. फरवरी में चीन में होनेवाले शीत ओलिंपिक में शामिल होने से अमेरिका ने मना कर दिया है.