यूक्रेन में हो रहे रूसी हमलों और अमेरिकी विदेश नीति को कई संदर्भों में देखा और समझा जा सकता है. युद्ध की विभीषिकाओं से बचने और ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ जैसी कहावतों से इतर अगर रूस, यूक्रेन और यूरोप में नाटो के जरिये अमेरिकी संलिप्तता पर नजर डालें, तो इस मुद्दे पर अमेरिकी नीति को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है.
यूक्रेन और रूस का आधुनिक इतिहास सौ साल से अधिक पुराना है, लेकिन नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद दोनों देशों के संबंधों में तेजी से बदलाव हुए हैं, जिसका परिणाम आज हम यूक्रेन पर रूसी हमले के रूप में देख रहे हैं. पिछले कुछ सालों पर गौर करें, तो रूस ने 2008 में जॉर्जिया पर हमला किया था और उसके बाद 2014 में यूक्रेन के क्रीमिया प्रांत को अपने कब्जे में ले लिया था.
साथ ही, यूक्रेन से सटे बेलारूस पर रूस का खासा प्रभाव है और इस संघर्ष में बेलारूस उसके साथ खड़ा है. यह सर्वविदित है कि रूस के अनुसार सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका ने नाटो के जरिये रूस को घेरने की हर संभव कोशिश की है. सोवियत संघ के विघटन के बाद उससे अलग होकर बने देशों और सोवियत प्रभाव वाले पूर्वी यूरोपीय देशों को नाटो में शामिल किया गया है, जिसे रूस खतरे के रूप में देखता है.
साल 2020 में जब से नाटो ने यूक्रेन को सदस्य बनाने की प्रक्रिया शुरू की है, तब से रूस खासा नाराज है. अमेरिकी विदेश नीति सोवियत संघ के विघटन के साथ ही शीत युद्ध खत्म होने के बाद भी रूस को सीमित करने की रही है और इसके लिए नाटो का इस्तेमाल किया जाता रहा है. बाल्कन क्षेत्र में नाटो की सक्रियता पूरी दुनिया ने देखी है, लेकिन रूस के मामले में क्या नाटो हथियारों का प्रयोग करेगा, इस पर अमेरिकी नीति स्पष्ट है.
उसने साफ कर दिया है कि उसकी सेना यूक्रेन की लड़ाई में हिस्सा नहीं लेगी, बल्कि नाटो देशों की रक्षा करेगी. सामान्य शब्दों में कहें, तो अगर रूसी सेना किसी नाटो सदस्य देश पर हमलावर होती है, तो अमेरिकी सेना उसकी रक्षा में उतरेगी. चूंकि यूक्रेन अभी नाटो में नहीं है, तो यूक्रेन पर हमले के खिलाफ नाटो सेनाओं के सक्रिय होने की संभावना कम है. यही कारण है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश फिलहाल आर्थिक प्रतिबंध लगा रहे हैं, जिनका बहुत अधिक असर रूस पर होनेवाला नहीं है.
साल 2014 में क्रीमिया संघर्ष के दौरान फ्रांस और जर्मनी ने बीच-बचाव कर समझौता कराया था और बहुत संभव है कि इस बार भी जर्मनी और फ्रांस ही दोनों पक्षों के बीच शांति वार्ताओं को नतीजे पर पहुंचाए.ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर अमेरिका को अभी रूस को घेरने की क्या जरूरत आन पड़ी? अगर नाटो के विस्तार को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया जाए, तो भी मामला टल सकता था, लेकिन राष्ट्रपति बाइडेन ने मामले को तूल देने की जरूरत क्यों समझी है, वह भी तब, जब दुनिया कोविड से उबर ही रही है.
यह एक टेढ़ा सवाल है और इसके जवाब में अनुमान ही लगाया जा सकता है. देखनेवाली बात यह है कि पिछले साल ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाया है. इसके बाद अमेरिका के पास एशिया और उसके आस पास कोई बहुत बड़ी सैन्य मौजूदगी नहीं है. इसका मतलब यह है कि यह इलाका सैन्य रूप से उनके प्रभाव क्षेत्र से लगभग-लगभग मुक्त है.
दूसरी तरफ, रूस के पास मौजूद अकूत तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार भी अमेरिका के लिए सिरदर्द साबित हो सकते हैं. इन सबके बीच राष्ट्रपति पुतिन की नीतियां भी अमेरिकी हितों से इतर रही हैं. रूस ने भले ही अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले को समर्थन दिया था, मगर पिछले दस सालों में रूस ने धीरे धीरे इस रुख से किनारा कर लिया. पुतिन की सत्ता में वापसी के बाद रूस ने एडवर्ड स्नोडन को न केवल पनाह दी, बल्कि उसे लौटाने की राष्ट्रपति ओबामा की अपील को भी ठुकरा दिया.
साल 2014 के क्रीमिया संघर्ष के बाद रूस ने सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल असद का पूरा समर्थन किया, जहां अमेरिकी विमानों ने कई हमले किये थे. अमेरिका को रूस का सीरिया को दिया गया समर्थन भी नागवार गुजरा था. आगे चल कर रूस ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को भी प्रभावित करने की कोशिश की. इन सबके कारण दोनों देशों के संबंध बेहद खराब होते चले गये. राष्ट्रपति ट्रंप के समय चूंकि नाटो का विस्तार रुका रहा था, तो दोनों देशों के बीच शांति बनी रही.
अब कोविड की रोकथाम और अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के बाद अमेरिका एक बार फिर नाटो के जरिये अपना प्रभाव बढ़ाने की बेहद पुरानी रणनीति पर काम कर रहा है. इसके जवाब में राष्ट्रपति पुतिन ने भी दो ध्रुवीय दुनिया वाली रणनीति अपनायी है. इस समय चीन और पाकिस्तान जैसे देश रूस के साथ खड़े हैं, जबकि भारत ने अमेरिका और रूस के बीच शुरू हुए इस तनाव में अपनी भूमिका को सीमित रखा है. हालांकि दोनों ही देश भारत का समर्थन लेने की कोशिश कर रहे हैं. अमेरिकी विदेश मंत्री ने जहां भारतीय विदेश मंत्री को फोन किया है, वहीं भारतीय प्रधानमंत्री ने रूसी राष्ट्रपति से बात की है.
शीत युद्ध की समाप्ति के बाद लंबे समय तक अमेरिका पूरी दुनिया में एकमात्र सुपरपावर के रूप में उभर कर सामने आया था और यह स्थिति कोई दो दशक तक बनी रही, जब अमेरिका ने इराक, लीबिया, अफगानिस्तान में कार्रवाइयां कीं, लेकिन पिछले कुछ समय में स्थिति धीरे-धीरे बदली है. एक तरफ जहां चीन एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा है, वहीं रूस ने भी नाटो के प्रसार को लेकर नाराजगी जतायी है.
अमेरिका में यूक्रेन संकट को लेकर आम लोगों में दो राय है. गैलप पोल के अनुसार, 82 प्रतिशत लोग रूस-यूक्रेन संघर्ष को अमेरिका के लिए गंभीर मानते हैं, जबकि एपी-एनओआरसी का सर्वेक्षण कहता है कि देश के 52 प्रतिशत लोग चाहते हैं कि अमेरिका इस संघर्ष में मुख्य भूमिका में न आए. ये परिणाम देखने में अटपटे लग रहे हों, लेकिन यह साफ है कि अमेरिकी जनता को अपनी जमीन से इतर किसी और संघर्ष में बहुत अधिक रुचि नहीं है, लेकिन बाइडेन पुरानी विदेश नीति का अनुसरण कर रहे हैं, जहां उनके लिए नाटो के जरिये अमेरिकी प्रभाव को बढ़ाना आसान लग रहा है.