योजनाएं बेसहारों का सहारा बनें
शुरू में यह सोचा गया था कि एनएफबीएस के अंतर्गत मुहैया कराये जा रहे लाभ की सीमा भारत के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के 80 प्रतिशत तक रखी जाये.
किसी गरीब परिवार में रोटी कमानेवाला ना रहे, तो परिवार पर अचानक विपदा का पहाड़ टूट पड़ता है. वर्ष 1995 में शुरू हुई राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना (एनएफबीएस) का मकसद ऐसे निराश्रित परिवारों को मदद देने का है. दुर्भाग्य से योजना सुस्ती की शिकार रही. इस योजना में आपात सहायता के तौर पर 20 हजार रुपये की मामूली राशि दी जाती है. योजना सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए है और इसमें इतनी औपचारिकताओं को पूरा करना होता है कि किसी का भी धीरज जवाब दे जाये.
इसकी यह खस्ताहाली कोई संयोग नहीं है. हाल के वर्षों में राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना (एनएसएपी) की अनदेखी की गयी है. मिसाल के लिए, वृद्धावस्था पेंशन के मद में केंद्रीय मद से दी जानेवाली सहायता राशि पिछले 15 सालों से 200 रुपये प्रतिमाह पर ठहरी हुई है. इसे बढ़ाने के लिए बारंबार गुहार लगायी गयी. साल 2018 में 66 नामचीन अर्थशास्त्रियों ने एक खुली चिट्ठी भी लिखी थी, लेकिन केंद्र सरकार टस से मस न हुई.
एनएफबीएस का बजट भी ठहरा हुआ है. इस कारण इसका दायरा बढ़ाना या सहायता राशि में इजाफा करना असंभव है. दरअसल एनएफबीएस पर केंद्र सरकार का व्यय 2014-15 के 862 करोड़ रुपये से घटकर 2020-21 में 623 करोड़ रुपये (बजट अनुमान) हो गया और 2020-21 के पुनरीक्षित बजट में यह और भी कम मात्र 481 करोड़ रुपये है. साफ है कि योजना को धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है.
यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि एनएफबीएस को मजबूत करने से कोविड-19 के संकट के दौरान लाखों गरीब परिवारों की मदद की जा सकती थी. एनएफबीएस में जान डालना और सुधार करना हिमालय चढ़ने जैसा कठिन नहीं. पहली बात तो यह है कि आपात सहायता राशि में बड़ी बढ़ोतरी हो, जो लंबे समय से प्रतीक्षित है. शुरुआत में यह राशि 10 हजार रुपये थी, जो 2012 में 20 हजार रुपये की गयी. कार्य-बल के सदस्यों में शामिल केपी कन्नन के अनुसार, शुरू में यह सोचा गया था कि एनएफबीएस के अंतर्गत मुहैया कराये जा रहे लाभ की सीमा भारत के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 80 प्रतिशत तक रखी जाये. इसे आधार मानकर अब सहायता राशि बढ़ाकर एक लाख रुपये की जानी चाहिए.
दूसरी बात यह है कि योजना को गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के परिवारों के लिए सीमित रखने की शर्त हटायी जानी चाहिए. सब जानते हैं कि ज्यादातर राज्यों में बीपीएल की सूची बहुत पुरानी, अविश्वसनीय तथा अपवर्जन की गलतियों से भरी हुई है. बीते बीस सालों में सामाजिक सुरक्षा के ज्यादातर कार्यक्रमों ने बीपीएल को लक्ष्य कर चलने का अपना रास्ता एक न एक तरीके से बदला है. कुछ कार्यक्रम अब सार्विक हो गये हैं, जैसे स्कूलों में बच्चों को भोजन देने का कार्यक्रम.
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) जैसे कुछ कार्यक्रम मांग-आधारित हैं, यानी जो मांगे उसे काम मिलेगा. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) जैसे कुछ कार्यक्रम भी कथित समावेशन पद्धति के सहारे चल रहे हैं. इस पद्धति में कुछ स्पष्ट और पारदर्शी कसौटियों के आधार पर सुविधासंपन्न परिवारों को अलग छांट दिया जाता है, सो बाकी परिवार अपने आप लाभार्थी की श्रेणी में आ जाते हैं. यह तरीका एनएफबीएस के लिए भी उपयोगी विकल्प हो सकता है.
तीसरी बात, इस योजना से जुड़ी औपचारिकताएं तरस रही हैं कि कोई उन्हें सरल, पारदर्शी और लोगों के लिए आसान बना दे. अभी योजना के पात्र परिवार की पहचान करने का मुख्य जिम्मा ग्राम पंचायत या नगरपालिका का है. यह कोई खराब बात नहीं है, लेकिन यहां के बाद एनएफबीएस की अर्जी महीनों तक प्रखंड और जिले की अफसरशाही के गलियारों से गुजरती हुई मानो अपना रास्ता भटक जाती है.
अर्जीदार के पास ऐसा कोई साधन नहीं होता कि वह जान पाये कि आखिर अर्जी पहुंची कहां. तो फिर नियत समय पर अर्जी का जवाब देने की मांग करने की बात यहां क्या करना? संभावित अर्जीदार को सूचना हासिल करने, औपचारिकताओं को पूरा करने, अर्जी कहां तक पहुंची- इसकी जानकारी रखने, फरियाद दर्ज कराने और किसी शिकायत की सूरत में उसके बाबत क्या कदम उठाये जा रहे हैं, यह जानने के लिए बेहतर सुविधा-सहायता मुहैया कराना जरूरी है. देरी होने की सूरत में क्षतिपूर्ति का प्रावधान रहने से भी नियत समय पर योजना का लाभ सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी.
इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि इन तमाम बातों में कोई भी एनएफबीएस के बजट में बड़ी बढ़ोतरी के बगैर संभव नहीं है. अगर शुरुआती तौर पर योजना के दायरे में ही दोगुना विस्तार (मौजूदा 3.6 लाख परिवार से बढ़ाकर सालाना 7.2 लाख परिवार) किया जाता है और सहायता राशि बढ़ाकर एक लाख रुपये प्रति परिवार कर दी जाती है, तो योजना के अंतर्गत खर्च की राशि बढ़कर 72 सौ करोड़ रुपये हो जायेगी.
यह एनएफबीएस के मौजूदा बजट से लगभग दस गुना ज्यादा है, लेकिन इतने महत्व की राष्ट्रीय योजना के लिए यह राशि मामूली ही कही जायेगी, ज्यादा नहीं. गरीब परिवारों की जरूरत से मेल खाता किसी भी तरह का जीवन बीमा का न होना भारत की उभार ले रही सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था की एक बहुत बड़ी कमी है. एनएफबीएस में सुधार लाकर इस कमी को एक हद तक पूरा किया जा सकता है.