नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में सतत विकास लक्ष्य हासिल करने में पिछड़ने को लेकर बिहार केंद्रित चर्चा जोरों पर है. लेकिन अगले वर्ष की रिपोर्ट में बिहार की तस्वीर बेहतर हो, इस पर चर्चा नदारद है. बिहार ‘विशेष राज्य’ के दर्जे की मांग दोहराता रहा है. लंबे समय से राज्य के लगभग सारे राजनीतिक दल एक सुर से विशेष दर्जे की मांग करते आ रहे हैं. मौजूदा समय में एक बार फिर यह मांग प्रासंगिक हो गयी है क्योंकि बिहार को अन्य राज्यों के समतुल्य खड़ा करने के लिए विशेष दर्जा ही कारगर समाधान है.
कुछ वर्षों के लिए 14वें वित्त आयोग की अनुशंसा ने विशेष दर्जा देनेवाले प्रावधान को समाप्त कर इस बहस को कुछ दिन के लिए एकतरफा कर दिया था, लेकिन 15वें वित्त आयोग ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यों को ‘विशेष दर्जा’ प्रदान करने का अधिकार वित्त आयोग के अधिकार क्षेत्र में नहीं होगा और यह फैसला पूर्णत: केंद्र सरकार के विवेकाधीन रहेगा. यह सिफारिश महत्वपूर्ण और आशा जगानेवाली रही.
आंध्र प्रदेश को विशेष श्रेणी राज्य का दर्जा नहीं देने के पीछे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा यही हवाला दिया गया था कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद किसी भी राज्य को ऐसा दर्जा नहीं दिया जा सकता है. ऐसे में 15वें आयोग की अनुशंसा बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों के िलए उत्साहवर्धक रही, लेकिन अब तक किसी भी राज्य को इसका फायदा नही मिल पाया है. उल्लेखनीय है कि 14वें वित्त आयोग में राज्यों को अधिक ‘कर’ देने के उद्देश्य से अंतरण को 32 फीसदी से बढ़ाकर 42 फीसदी किया गया था, जिसे 15वें आयोग में 41 फीसदी रखा गया है.
अंतरण में वृद्धि के बावजूद केंद्रीय व केंद्र प्रायोजित योजनाओं के आवंटन में कटौती के कारण स्थिति लगभग पहले जैसी ही रही. अब केंद्र को बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों की मांगें पूरी कर समुचित विकास सुनिश्चित करने की पहल करनी चाहिए.
इस मांग को लेकर नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, जगह मोहन रेड्डी सरीखे नेता लंबे समय से संघर्षरत रहे हैं. साल 2018 में विशेष राज्य के दर्जे का मामला काफी गरमाया था, जब एनडीए गठबंधन की पुरानी सहयोगी टीडीपी आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिये जाने पर गठबंधन से अलग हो गयी थी. साल 2014 तक केंद्र में यूपीए और बिहार में एनडीए की सरकार कार्यरत थीं. इस दौरान भी विशेष दर्जे को लेकर निरंतर संघर्ष होता रहा. वर्तमान में बिहार और केंद्र में एनडीए की सरकार है. इस स्थिति में अपेक्षा और आकांक्षा बढ़ना लाजिमी है.
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने ‘आंध्र प्रदेश रिआॅर्गेंनाईजेशन एक्ट 2014’ पर बहस के दौरान प्रदेश को पांच वर्ष के लिए विशेष दर्जे की बात कही थी. ‘आंध्र प्रदेश विभाजन एक्ट’ में विशेष दर्जे जैसी कोई शर्त नहीं रखी गयी थी, लेकिन सर्वविदित है कि आंध्र प्रदेश से तेलंगाना बनने के बाद राज्य को भारी आर्थिक क्षति हुई है, जिसकी भरपाई की दिशा में भी ‘विशेष राज्य’ की मांग तर्कसंगत है.
इसी तरह, नवंबर, 2000 में बिहार से झारखंड बनने के बाद राज्य के सभी प्राकृतिक संसाधन झारखंड में चले गये. इस स्थिति में पहले से गैर-औद्योगिक राज्य बिहार पूर्णतः संसाधनविहीन हो गया. बिहार पुनर्गठन अधिनियम 2000 के एक प्रावधान के तहत विभाजन से राज्य को होनेवाली वित्तीय कठिनाइयों से जुड़े एक विशेष प्रकोष्ठ की संस्तुति की गयी थी, जो सीधे योजना आयोग के उपाध्यक्ष की निगरानी में राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करनेवाला था. यह विशेष प्रकोष्ठ कुछ हद तक कारगर जरूर रहा, लेकिन भरपाई काफी दूर रह गयी.
बिहार में सत्तासीन जेडीयू और भाजपा के नेता एक स्वर में स्वीकारते हैं कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए. जेडीयू द्वारा 2013 में इस मांग को लेकर दिल्ली में एक बड़ी रैली आयोजित की गयी थी, जिसके बाद यूपीए सरकार ने तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी थी. इस कमिटी ने राज्यों को धन उपलब्ध कराने हेतु बहुआयामी सूचकांक की व्यवस्था अपनाने का सुझाव दिया था.
कमिटी की रिपोर्ट में प्रत्येक राज्य को विकास की जरूरत के अनुसार अतिरिक्त राशि का आवंटन सुनिश्चित करने की सिफारिश की गयी थी. इस कमिटी में बिहार, ओड़िशा व आठ अन्य राज्य ‘सबसे कम विकसित‘ श्रेणी में अंकित किये गये थे. इसके बावजूद इस दिशा में ठोस कदम नदारद रहे. बिहार में 2005 से नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार है. इस दौरान बिहार विकास की गाथा देशभर में सराही गयी. बिहार आर्थिक विकास दर के मामले में राष्ट्रीय औसत से अधिक व अन्य राज्यों के बीच सर्वाधिक विकास दर की उपलब्धि वाला राज्य है.
सामाजिक सौहार्द को बरकरार रखने और सामाजिक रूप से पिछड़ों को आगे लाने तथा महिला सशक्तिकरण समेत अन्य आधारभूत संरचनाओं को बल देने के लिए मौजूद शासन को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सराहना भी मिल चुकी है. इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद बिहार प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व आर्थिक सेवाओं पर व्यय में पीछे है. इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं. बिहार में बाढ़ के कारण जान-माल की भारी क्षति प्रति वर्ष की कहानी है. इस कारण हर साल राज्य को अतिरिक्त वित्तीय भार उठाना पड़ता है. इसी तरह ओडिशा को भी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारी नुकसान उठाना पड़ता है.
हालांकि संविधान में विशेष दर्जे का प्रावधान नहीं है, लेकिन नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल द्वारा पहाड़ी एवं दुर्गम क्षेत्र, कम जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्र, प्रति व्यक्ति आय व गैर कर राजस्व में कमी वाले राज्यों तथा आदिवासी बहुल इलाके समेत अंतरराष्ट्रीय सीमा से जुड़े क्षेत्र को आधार बनाकर विशेष दर्जा देने का निश्चय किया गया. ये मानक तीसरी पंचवर्षीय योजना के बाद बने थे.
पांचवे वित्त आयोग द्वारा तीन राज्यों- जम्मू व कश्मीर, नागालैंड व असम को उपर्युक्त आधार पर विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया गया, जिसके बाद अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, हिमाचल और उत्तराखंड इस श्रेणी में लाये गये. विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों को 90 फीसदी अनुदान और 10 फीसदी राशि ऋण स्वरूप देने का प्रावधान है,
जबकि गैर विशेष राज्यों को केंद्र सरकार की 30 प्रतिशत राशि बतौर अनुदान और 70 फीसदी ऋण के रूप में देने की व्यवस्था है. विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों को एक्साइज, कस्टम, कॉरपोरेट, इनकम टैक्स आदि में भी रियायत मिलती हैं. इन रियायतों से आधारभूत संरचनाओं के विकास में काफी मदद मिलेगी. विशेष दर्जा से प्राप्त संसाधनों से शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य क्षेत्रों में बहुमुखी विकास संभव हो पायेगा.