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सहजानंद : किसान चेतना के अग्रदूत

स्वामी जी ने आत्मकथा में लिखा है कि जिसका हक छीना जाए या छिन गया हो, उसे हक दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी तथा असली समाज सेवा है.

स्वामी सहजानंद सरस्वती जी का जन्म 1889 में महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर में हुआ. उनके बचपन का नाम नवरंग राय था. सोलह वर्ष की अल्पायु में पत्नी का देहांत हो गया. दूसरी शादी की चर्चा से उद्वेलित होकर 1907 में वे काशी पहुंच गये. वहां दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने. वर्ष 1909 में उन्होंने दशाश्वमेध घाट स्थित दंडी स्वामी अद्वैतानंद सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और नाम पड़ा दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती.

उन्होंने जमींदारों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा तथा दलित, शोषित समाज के उत्थान के लिए आजीवन कोशिश करते रहे. 05 दिसंबर, 1920 को गांधी जी का एक कार्यक्रम पटना में आयोजित हुआ. चंपारण के किसान आंदोलन का 1914 में सफल नेतृत्व कर किसानों एवं वंचित समूह के बीच स्वामी सहजानंद सरस्वती काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे.

इस अवसर पर गांधी जी के साथ उनका दो दिनों तक संवाद चलता रहा. गांधी जी से प्रभावित होकर स्वामी जी 1921 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए. वर्ष 1921 से 1925 तक स्वामी जी एक कर्मठ कांग्रेसी के रूप में कार्यरत रहे. समूचे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्रिटिश सरकार को चुनौती देते हुए देश सेवा की ज्योति जलाते रहे. इसी बीच, अहमदाबाद सम्मेलन से लौटते हुए उन्हें पहली जनवरी, 1922 को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया.

वे बनारस जेल में रहे, वहां आचार्य कृपलानी, डॉक्टर संपूर्णानंद, बाबा राघवदास से निरंतर मुलाकात और विचार-विमर्श जारी रहा. बनारस से लखनऊ जेल स्थानांतरण होने पर पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनकी पहली मुलाकात हुई. जेल से बाहर आये, तो भूमिहार ब्राह्मण सभा को बंद किया और 1929 में बिहार किसान सभा का गठन किया. इससे पूर्व देश में कोई बड़ा किसान संगठन नहीं था. चंपारण और बारदोली में सफल किसान आंदोलन हो चुके थे, लेकिन किसान आंदोलन को संगठित और वैचारिक मजबूती स्वामी जी के नेतृत्व में ही मिल पायी.

बिहार में राजेंद्र बाबू की छवि बड़े जमींदारों के हितों के लिए प्रयासरत संरक्षक की बनने लगी, जब 1934 के भूकंप में किसानों का बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ. इसी बीच गांधी जी के बिहार आगमन पर स्वामी जी ने जमींदारों द्वारा किसानों के साथ किये जा रहे जुल्म-ज्यादतियों की दास्तान सुनायी. गांधी जी अपने स्वाधीनता लक्ष्य की प्राप्ति से इतर कुछ नया करने को तैयार नहीं थे.

लिहाजा स्वामी जी का सत्याग्रही आंदोलन से मन हटने लगा. किसान सभा स्वतंत्र भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त करने के आंदोलन को तीव्र करने में लग गयी. पटेल ने भी जनसभाओं में ललकार कर कहा कि मुल्क में जमींदारों की क्या जरूरत है. यह कौन-सा काम देश की भलाई के लिए करते हैं.

वर्ष 1934 में पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में आयोजित सम्मेलन में जेपी, लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, अशोक मेहता, डॉक्टर संपूर्णानंद, आचार्य कृपलानी आदि शामिल हुए, लेकिन, सुभाष बाबू और पंडित नेहरू की अनुपस्थिति ने सबको निराश किया. वर्ग संघर्ष के कार्यक्रम को लेकर पंडित रामानंद मिश्र, गंगा शरण सिंह एवं बसावन बाबू जैसे लोगों ने इससे दूरी बनाये रखी.

परिवर्तन की असीम इच्छा और समतामूलक समाज निर्माण के स्वामी जी के निश्चय को कोई ठोस ठिकाना नहीं मिल पाया. लिहाजा राजनीतिक दलों से उनकी दूरी बढ़ती गयी. उन्होंने आत्मकथा में लिखा है कि जिसका हक छीना जाए या छिन गया हो, उसे हक दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी तथा असली समाज सेवा है. स्वराज का असली मकसद क्या है? किसका स्वराज? सामंतों का या जमींदारों का? पूंजीपति या मजदूर का?

समाज विभिन्न वर्गों में बंटा हुआ है एवं उनके हित समर्पित नहीं है, तब एक को मिली आजादी दूसरे के लिए शामत की घंटी ही साबित होगी. स्वामी जी की पीड़ा और बौद्धिक चेतना का बड़ा विस्फोट पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में हुए विशाल किसान आंदोलन से सही साबित हुआ. वहीं, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट है, जिसके मुताबिक, चार लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.

सरकार और सूदखोर दोनों की देनदारी अपमान से भरी है. परिवार में हो रहे विभाजन ने छोटे किसानों की बर्बादी में वृद्धि की है. ऐसे किसानों की संख्या 85 प्रतिशत से अधिक है. छोटी जोत होने के कारण उनके लिए कृषि घाटे का सौदा साबित हो रही है. गांव में शिक्षा व्यवस्था, मनोरंजन और आधारभूत संरचना के अभाव में 30 प्रतिशत से अधिक आबादी गांव से पलायन कर चुकी है. कृषि कार्यों के लिए आवंटित राशि निरंतर कम हो रही है. स्वामी जी ने इन्हीं संभावित खतरों के प्रति गांधी जी व कांग्रेस पार्टी को आगाह किया था.

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